जीवन स्तर के लिहाज से गली की आबादी को कई हिस्सों में बांटा जा सकता है। गली के दोनों ओर बने करीब पचास घरों में से कुछ आठ-दस घरों को घर की संज्ञा दी जा सकती है। वे भले ही छोटे हैं पर बाकायदा घर की साज सज्जा के लिए अनिवार्य चीजों मसलन खिड़की, दरवाजे, पक्की दीवारों, पक्की छत वस्नानघर-शौचालय आदि से सज्जित हैं। इन घरों के मालिकों की गली में खासी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान है। बाकी के घर कहीं से भी घर कहलाने की पात्रता नहीं रखते। उनके मालिकों ने खाली जगह देखकर किसी टूटी पड़ी इमारत से रातों रात कुछ टीन टप्पर व ईंटों वगैरा का जुगाड़ कर किसी तरह से सर छुपाने भर की जगह बना ली।
रहने के ठिकाने के बाद उन लोगों ने सरकारी आंकड़ों में गरीबी रेखा में अपना नाम दर्ज कराकर बी.पी.एल. कार्ड बनवा लिया। इन परिवारों के मुखिया या तो रिक्शा चलाते या मजदूरी वगैरा करते। महिलाएं घरों में चौका-बर्तन झाडू पोंछा और खाना वगैरा बनाने का काम करतीं। तीसरी श्रेणी के परिवारों की स्थिति पहले दोनों से भी गई गुजरी थी। ये वे परिवार होते जो गांव में काम धंधा न होने पर वहां से पलायन कर आते और इश्तिहारी बैनरों और कुछ बांसों की सहायता से अपने सर पर छत का इंतजाम कर लेते और काम की तलाश में लग जाते। जब कुछ मिल जाता तो ईंटो के अस्थाई चूल्हे से धुंआ निकलता वरना पानी से पेट भरने की कोशिश करते। आर्थिक विपन्नता भले हो इस गली में पर आबादी के लिहाज से खासी सम्पन्न है गली। चार-छः घर छोड़ दें तो हर घर कम से कम तीन से पांच बच्चों से समृद्ध है। अपनी इस स्थिति से गली वालों को कोई शिकायत भी नहीं है। वे दोनों ही स्थितियों को भगवान व कुदरत की देन मानते हैं और सत्ताधारियों को दोषमुक्त करके हर चुनाव में अपनी भागीदारी निभाते हैं। अपने वोटों से सरकारें बनवाते हैं। रही ज्यादा बच्चों की बात तो इसे वे अपनी गलती नहीं मानते। बल्कि वे ये सोचकर संतुष्ट रहते कि घर में ज्यादा खाने वाले हैं तो कमाने वाले भी तो कम नहीं। मुंह एक दिया है भगवान ने हाथ तो दो हैं। कुछ साल खिलाना पड़ेगा। फिर कमाने लगेंगे बच्चे। पढ़ाई और स्कूल भेजने की बात उनके गले नहीं उतरती। कोई ज्यादा कहे तो कहते हैं कि पढ़ लिखकर कौन लाट गर्वनर बन जायेंगे। करनी तो मजदूरी ही है। चार अक्षर पढ़ गये तो पैंट की जेब में हाथ डालकर घूमेंगे। कहेंगे नौकरी ढूंढ़ रहे हैं। मजदूरी करते शर्म आयेगी।
सो जैसे ही बच्चे आठ नौ साल की उम्र पार करते, मां बाप उन्हें किसी गैराज या किसी दुकान में नहीं तो किसी के घर में काम पर रखवा देते । आमदनी का एक अतिरिक्त ज़रिया बन जाता और बच्चा आवारागर्दी से भी बच जाता। हाँ, दो से आठ साल का वक्त जरूर ऐसा होता जब माता-पिता बच्चे के लिए किसी सुरक्षित ठिकाने की तलाश में रहते। भला हो सरकार के सर्व शिक्षा अभियान का कि शिक्षकों के बहुत इसरार पर माता पिता अपने बच्चों को प्राइमरी विद्यालयों में भेज देते। इसमें एक साथ कई हित सध जाते। एक ओर तो माता-पिता घंटों के लिए बच्चों की चिंता से मुक्त हो जाते। खाने से लेकर ड्रेस व किताबें स्कूल से ही मिलतीं। अनुसूचित व पिछड़ी जाति के हुए जो कि शत प्रतिशत होते ही, तो साल में दो चार सौ रुपये अतिरिक्त मिल जाते माता-पिता को और उधर सरकार और उसके अधिकारियों को सर्व शिक्षा अभियान की सफलता पर अपनी पीठ ठोंकने का मौका मिल जाता। पर ये सौभाग्य सिर्फ प्राइमरी स्कूलों को ही हासिल था। जूनियर स्कूलों में अचानक बच्चों की संख्या घट जाती। वे स्कूल से ऐसे गायब होते जाते मानो गधे के सिर से सींग। उन्हें ना खाने का प्रलोभन स्कूल में रोक पाता ना किताबों और वर्दी के लालच में फंसते वे, क्योंकि जब पढ़ना ही नहीं तो किताबों और वर्दी का क्या करना। अब ऐसा भी नहीं कि जूनियर स्कूल की कक्षायें एकदम से खाली हो जातीं। दो चार जिद्दी किस्म के बच्चे उन कक्षाओं में जरूर जमें रहते। वे वही बच्चे होते जिनके पिता किसी सरकारी नौकरी में लगे होते और उस पद की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता आठवीं पास होती। उनके पास एक स्थाई नौकरी लगने की पूरी संभावना रहती । यही बच्चे होते जो जैसे तैसे सरकार के सर्व शिक्षा अभियान की ज़रा बहुत नाक बचा लेते ।
उन्हीं में से दूसरी श्रेणी के एक घर में रहने वाला विनोद था। जिसके सामने ऐसा कोई अवसर नहीं था। फिर भी गली के वातावरण, पर्यावरण व रवायत को धता बताते हुए आश्चर्यजनक ढंग से उसकी दोस्ती पढाई से हो गयी। उसे पढ़ना लिखना अच्छा लगता। जब वह पढ़ाई लिखाई में अच्छा करता तो उसके शिक्षक उसकी पीठ ठोंकते। तब उसमें और अच्छा करने का उत्साह जाग जाता । हालांकि उसके सामने अभी कोई लक्ष्य नहीं था जीवन का। सिवाय इसके कि उसका पढ़ाई में मन लगता था और अभी पिता की तरह सिलाई कारखाने में काम कर पाने की उसकी उम्र नहीं हुई थी। इस लिए उस पर पढ़ाई छोड़ने का दबाव नहीं था सो बस वह पढ़ रहा था।
दबाव तो तब पड़ा उस पर जब आठवीं का रिजल्ट आया और उसने पूरे जनपद में टॉप किया। उसके शिक्षक उसका रिजल्ट लेकर उसके घर चले आये और बोले राजाराम तुम्हारा बेटा बड़ा होनहार है। अपने मोहल्ले के बच्चों की तरह इसकी पढ़ाई मत छुडवाना। इसके इतने अच्छे नम्बर आये हैं, उसके लिए इसे आगे भी वजीफा मिलेगा। तुम्हारा कुछ भी खर्च नहीं होगा इस पर। ये तुम्हारा और तुम्हारे मोहल्ले का नाम रोशन करेगा। उनकी बात विनोद के बप्पा(पिता) की समझ में आ गई। विनोद का एडमिशन एक इंटर कॉलेज में हो गया। पहले दसवीं फिर इंटर, दोनों परीक्षाएं उसने विशेष योग्यता से पास की। यही नहीं टॉपर लिस्ट में अपना नाम भी लिखाया। उसकी और उसके माता-पिता की फोटो अखबार में छपी। कुम्हारन गली का नाम पूरे शहर में मशहूर हो गया। उसके साथ उसके माता-पिता की फोटो भी अखबार में छपी। उसकी इच्छाओं के पर निकल आये। उसके साथियों और शिक्षकों की उससे अपेक्षायें बढ़ गई।
सबने मिलकर उस पर जोर डाला कि उसे एस.एस.सी. या बैंक पी.ओ. वगैरा की परीक्षा देनी चाहिए। उसे भी लगा कि अपनी गणित की बदौलत वह कोई भी परीक्षा पास कर सकता है। अंग्रेजी पर मेहनत करनी पड़ेगी। मेहनत से वह डरता नहीं था। आगे की पढ़ाई के लिए उसने चार छः ट्यूशन पकड़ लिये। ताकि उसकी पढ़ाई का खर्चा निकल सके। माता पिता पर अब और बोझ नहीं डालना चाहता था वह। ग्रेजुएशनके बाद उसने प्रतियोगी परीक्षाएं देनी शुरू कीं। दो साल में ही उसने एक साथ दो परीक्षाएं पास कर लीं। एक प्रादेशिक पुलिस सेवा में पुलिस उपाधीक्षक स्तर की और दूसरी बैंक पी.ओ. की। अब उसे दोनों में से चुनाव करना था। उसने अपने दोस्तों व शिक्षकों की मदद ली। सबने उसे पुलिस सेवा को ही चुनने की सलाह दी।
उसके पिता सहित गली के सारे लोग पुलिस की वर्दी से खौफ खाते थे। ये वह जानता था। उनके बीच का कोई वर्दी पहन लेगा तो उनका डर दूर हो जायेगा। उसे अपना फैसला सही लगा। पर अपने माता-पिता को नहीं बताया उसने। अपने माता-पिता के सामने अचानक वर्दी में आकर चौंकाना चाहता था वह। उन्हें यही बताया उसने कि उसकी बैंक में नौकरी लग गई है। दो साल की ट्रेनिंग है। छुट्टियों में आता रहेगा। पहले साल एक दो बार आया भी पर दूसरे साल नहीं आ पाया। ट्रेनिंग के बाद नज़दीकी शहर में ही उसकी नियुक्ति हुई। नई नौकरी ज्वाइन करने के बाद काम में उलझने से पहले माता-पिता से मिलने के इरादे से अपने घर चला आया वह। घर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा घिर आया था। अपनी जीप गली के बाहर ही रोक दी उसने। गली में ले जाकर सब पर रौब नहीं गांठना चाहता था वह।
गली ज़रा भी बदली नहीं थी। वही आधे उजाले व आधे अंधेरे में हल्के से उजाले के सम्मिश्रण वाली, जो कि उधर से आने वाले की पहचान छुपाती। आने वाला जब तक उजाले की परिधि में ना आ जाता पता ही ना चल पाता कि इंसान है या जानवर ! आज भी वही हुआ। पिता अंधेरे में थे। वह उजाले में। पिता उसे तो पहचान नहीं पाये, पर वर्दी पहचान ली थी उन्होंने। देखते ही भाग खड़े हुए। तब जाकर समझा था वो कि पिता हैं | उन्हें हमेशा से शाम को पीने की आदत है। आज भी पीकर आये हैं। इसीलिए लड़खड़ा रहे हैं। पर पिछले एक साल में पिता पर क्या-क्या गुजरी इस बात से अंजान था वह कि मुसीबतें घर से उसकी अनुपस्थिति का इंतजार हीकर रही थीं जैसे। इधर वह एक साल घर नहीं आया उधर वे टूट पड़ीं। पर क्योंकि उसे कुछ भी पता नहीं था, पिता का अब भी इस तरह शराब पीकर शाम को लड़खड़ाते हुए घर लौटना अपनी वर्दी पर बदनुमा धब्बे की तरह लगा उसे। उसका मन खिन्न हो उठा।
खुद ही लौट आयेंगे कुछ देर में, खुराक में कमी रह गई होगी..बेजारी से गर्दन झटकता घर के उड़के दरवाजे खोल सीधा आंगन में आकर खड़ा हो गया था। आहट पाकर अम्माँ ने सर उठाया था। भौंचक्की सी कुछ देर उसे देखती रहीं फिर हाथ का चिमटा छोड़ा या छूट गया, हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुईं। उसे लगा वे उसे पहचान नही पाई हैं। जल्दी से अपनी टोपी उतार ली उसने। उसे देखते ही अम्माँ के डर से फीके पड़ गये चेहरे के आइने में खुशियों के कई रंग चमकने लगे थे। लंबे-लंबे डग भरती उसकी ओर बढ़ आई थीं वे। आँसुओं से भीगी आंखों के साथ पांव पर झुके उसके सर को बीच में ही अपने दोनों हाथों में लिये कुछ देर देखती रहीं फिर उसका माथा चूमा फिर हथेलियां। उसने धीरे से उनके आंसू पोंछे। उसका मन हुआ कि कहे अब ये आंसू किसी और वक्त के लिए बचा कर रखो अम्माँ। आज तुम्हारी जिंदगी का शायद सबसे ख़ास दिन है, इसे आंसुओं में मत डुबाओ। इससे पहले कि वो कुछ कहे, अम्माँ एक लोटे में पानी ले आईं और उसे सात बार उसके सर पर से उतारा और जल्दी से आंगन की नाली में फेंक आईं। साथ ही एक कटोरी में ज़रा सी चीनी और एक गिलास पानी भी ले आई थीं।
‘‘लेव बउआ तुम्हारी गरीब अम्माँ के हिआं अबे यई है, खाइके पानी पी लेव।“अम्माँ ने कटोरी उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा। ‘‘अरे! अब काहे गरीब, तुम्हारा बउआ अफसर बनि गवा अभी पुलिस..!’’ उसने अम्माँ को अपने कंधे पर टंके स्टार दिखाये।
‘‘अरे तू पुलिस अफसर !तू तौ कहि रहा था कि तेरी नौकरी बंक मा लागि है।’’ कहते हुए अम्माँ ने प्यार से उन स्टारों पर हाथ फिराया था। ‘‘अम्माँ बप्पा अबहूं दारू की पूरी खुराक ले कई घर में घुसत हैं ?’’ उसने शिकायत की थी।
‘‘अरे कहां अब दारू पिअत हैं, हियन तौ रोटिअन के लाले रहे, दारू पिए का होस कहां रहत है।’’
“रोटी के लाले ! काहे ? तुम बताई नहीं, फोन पे तो कहत रहीसब ठीक है। हमहु सोचा कि थोड़े पैसे इकट्ठे कर लेई तौ घर ठीक करा लेब। यही से पैसा नहीं भेजे। बप्पा की नौकरी छूट गई ! बताई काहे नाहि अम्मा ?” बेसब्री व बेचैनी से हथेलियां मसलने लगा था वह। अम्मां एक-एक करके पूरे साल में घटा घटना क्रम बताने लगीं।अम्माॅ ने फिर जो जो बताया वो धीरे-धीरे पिघले शीशे सा उसके कानों से होता हुआ उसकी आत्मा तक पहुंच गया था ।वो किसी बहेलिए के तीर से घायल परिंदे सा फड़फड़ाता एक झटके सेउठ कर तड़प कर बोला था, “इत्ता सब हो गया यहाँ पर बताया काहे नहीं?”जवाब के लिये वो बेजारी से अम्मा की ओर देखने लगा था पर अम्मा के चेहरे पर दुनिया भर की बेवसी व लाचारी की स्याही पुतीदेख उसका कलेजा मुंह को आ गया था सदमें और सन्नाटे की हालत में बुत बना अम्माँ को देखता रहा देर तक । उसे अब तक हासिल की गई अपनी सारी उपलब्धियां बेमानी लगने लगी थीं। कितनी सारी बातें, कितनी घटनायें सोचकर आया था। अम्मा बप्पा को बताने के लिए कितना उत्साहित था। बातें सुनकर अम्मा का रह-रहकर आंसू पोंछना। बप्पा का आंखे चुराते हुए मुंह ही मुंह में मुस्कराना।ऐसे तमाम दृश्यों की कल्पना करता घर आया था। घर आने की उमंग और ख़ुशी में पानी पीना तक भूल गया। देर से प्यास लगी थी पर पानी पीने की इच्छा नहीं हुई थी। चूल्हे पर कुछ बनातीं अम्मा किसी जरा जर्जर इमारत सी दिखाई पड़ रही थीं। वे अब उसका हालचाल पूंछ रही थीं पर उसके कानों में अम्माँ की कही बातें अब तक गूंज रही थीं। “ऊ दिन तो पीये भी नहीं रहे। तनिक बुखार रहा। बीड़ी लेन गये रहे। अंधेरा रहा सो गड़ढे में पांव फंसि गवा। ऊ-छोर से दरोगा आगवा। उहारन पैहारन देन लगा। जब जल्दी नहीं हटे तब सोचेस कि कौनों नसेड़ी है। जान बूझि के नाइहटि रहा है। बस अपनी मोटर सैकिल से उतरा और मारब सुरू करि दिहेस। पहिले अपन बेल्ट से मारत रहा। फिर सोर सुनिके उधर से होमगार्ड आ गवा तो ओका डंडा छीनि के मारे लगा। ऊतौ रामसिंह भैया चिल्ला न देते और गली वाले मिलिके दरोगा के हाथ पैर ना जोड़ते तब तो मारै डालते। पर मरे समान तौ बना ही दीनेस, हाथ पांव सब बेकार हुई गे।“
जिस वर्दी के लिए इतनी मेहनत की। रात दिन एक कर दिये। खून पसीना बहाया। उसी वर्दी ने पिता की ऐसी हालत कर दी। उनका काम छूट गया। घर में फांको की नौबत आ गयी। और उसे कुछ पता तक नहीं चला। उसका अंतर आठ-आठ आंसू रो रहा था। नौकरी का पहला दिन और खुशी उससे दूर खडी होकर उसे मुंह चिढारही थी। जब सामने ऐसी हृदय विदारक तस्वीर हो घर की, माता-पिता की, तब खुशी की गुंजाइश कहां रह जाती है। उसके भीतर से कराह निकली थी। सहसा अपनी वर्दी बोझ लगने लगी उसे। एक झटके से उठ कर चाय का कप वापस रखा और बोला-
‘‘पहले ज़रा कपड़े बदल लें फिर.. ।’’ अम्माँ जो आकर उसके पास खड़ी हो गई थीं। वे उसका हाथ पकड़कर उसके साथ ही बैठतीं हुई बोलीं
‘‘तुमने तो पानी भी नई पिआ, लेव पहले पानी पिऔजाने कब के चले हुइऔ, पहिले कछु खाय पी लेव, तब बदल लिहों कपड़ा तब तक कहौ बप्पा भी आ जायें बहू तो देखि लें अपने अफसरबउआ कौ अम्माँ अपने आँसू पोछने लगी थीं। फिर बोलीं हम जानित हैं तुमैं बहुत बुरा लगा है, आतै ई सब सुनावै लागीं पर का करतीं, पता तौ चलै जाता, अबै ना तो जब बप्पा आते तौ उनै देखि के तौ..!चलो अब जो हो गवा सो हो गवा, का कीन जाय जौन किस्मत मां लिखा होत है ऊ तौ भेगै का परत है और देखौ अपने बपपा को यही समझाना कि तुम बड़े अफसर बनि गे हौ, अब उनका चिंता करै की जरूरत नाई है। आराम से बैठिके खायें। अपनी बीबी की कमाई खाये मां सरम आवत रही बेटा की कमाई तौ दुनियां खात है। ओमा कैसी सरम।“ अम्मा ने एक दीर्घ श्वांस भरकर छोड़ते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा था सांत्वना का। इससे पहले कि अम्मां की सांत्वना का मरहम उसके आहत अंतर को राहत दे पाता। एक भीषण त्रासदी उनका द्वार खटखटा रही थी।
“बउआ के बप्पा के चोट लागि गे है। गली के नुक्कड़ पै बीहोस परे हैं।“ रामसिंह चौकीदार ने द्वार खोलते ही सूचना दी। वो और अम्माँ उनकी मदद से बप्पा को नजदीकी अस्पताल में ले गये थे। जहां डा. ने उन्हें देखते ही मृत घोषित कर दिया था। उसकी वर्दी बप्पा के खून से रंग गई थी। दोबारा जीवन में इस वर्दी को नहीं पहनेगा। भले मजदूरी कर लेगा। उसने मन ही मन फैसला कर लिया था। बप्पा के अंतिम संस्कार के बाद अम्मा से भी अपना ये निर्णय दोहरा दिया था उसने। अम्माँ उस वक्त कुछ नहीं बोली थीं।
हवन के बाद जब आंगन में चारपाई पर औधें मुंह पड़ा था अम्माँ उसके पास आकर बैठ गईं और उसका सर सहलाने लगीं। उसने अपना सर अम्माँ के घुटनों में धंसा लिया था। उसकी पुरानी आदत थी अम्मा जब धीरे धीरे बालों में उंगलियां फिरातीं उसे बहुत सकून मिलता था। परीक्षा के दिनों में तनाव के चलते जब सोना चाहते हुए भी नींद नहीं आती थी। तब अम्मां का हाथ अपने सर पर रख लेता था। अम्माँ समझ जातीं। वे उसके बालों में उंगलियां चलाने लगतीं। उसे नींद आ जाती। आज भी बड़ी राहत मिल रही थी उसे।
बालों में उंगलियां चलाते चलाते उसे एक साल में बप्पा और अम्मा पर जो-जो गुजरा विस्तार से बताने लगीं। कि बप्पा के चोट लगी वे छः महीने बिस्तर पर पड़े रहे। अब जाकर थोड़ा बहुत चलने फिरने लगे हैं। बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। बल्कि इससे भी बड़ी थी। अम्मां के हिसाब से बप्पा मर तो उसी दिन गये थे जिस दिन उस दरोगा ने बुरी तरह मारा था उन्हें। उस दिन उनकी देह से ज्यादा उनका स्वाभिमान भरा था। उनकी आत्मा घायल हुई थी। बिना किसी अपराध के सरेआम अपना अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ था उन्हें। ऊपर से अपाहिज होकर पूरी तरह अम्मा पर आश्रित हो जाना। इस सबने उन्हें बुरी तरह तोड़कर रख दिया था। रात में जब दर्द उनकी नींद की छाती पर चढ़कर उसका गला दबाने लगता वे तड़पने लगते। सारी रात अपनी मौत की दुआ करते। अम्माँ खाना बनाकर रख जातीं पर जब लौट कर आतीं। खाना उन्हें वैसा ही रखा मिलता। सारे-सारे दिन पिता कभी गंगा जी के किनारे बैठे रहते। तो कभी किसी मंदिर में। जिंदगी से उनका मोह भंग हो चुका था बुरी तरह से। बस एक ही बात उन्हें राहत देती थी कि उनका बउआ उनका नाम रौशन करेगा। मरने के बाद भी उनका नाम जिंदा रखेगा। हाथ वाली मशीन होती तो घर में बैठ के सिलाई कर लेते थोड़ी बहुत। मन भी लगा रहता। दूसरों पर बोझ बन गए हैं। ये बात भी दिमाग में ना आती। उसने पहली बार मां के कंधे पर हाथ रखा था। पर वे दोगुने वेग से फूट पड़ी थीं। बोलीं तुम का सोचत हो बउआ कोसिस, नाईं करी बहुत करी पर सिद्धे हाथ की अंगुरियां सब बेकार हुइ गइ रहीं, जाने कौन कौन जड़ी बूटी लाई, तेल बना करके लगावा पर अंगुरिअन मां जान नहीं आई तो नहीं आई। तभई तौ फिर उनकी जगा हम जाय लगीं फैटरी।
फैटरी जातीं ना तौ करतीं का देखौ काज बनावत बनावत अंगुलियों में छेद हुइ गे हैं ।अम्मा अपनी सीधी हथेली उसके सामने फैला कर उसका मुंह देखने लगी थीं ।अम्मा की काली दरारों वाली हथेली और छिपे उंगलियों के पोर देख उसका कलेजा मुंह को आ गया था ।अम्मा उसका मुंह देख रही थीं हमारे जीवन भर की तपस्या का यही सिला दोगे बउआ ! अम्मा के अनकहे शब्दों और उनके
आंसुओं के साथ भीतर की सारी दुविधा अवसाद और पीड़ा पिघल कर बह गई थी। तत्काल एक निश्चय किया था उसने कि अब अपने कार्यक्षेत्र में किसी को पुलिस प्रताड़ना का शिकार नहीं होने देगा। वर्दी पहनता सोच रहा था विनोद कश्यप।