Saturday, May 18, 2024
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विशेष प्रस्तुति : दीक्षित दनकौरी की ग़ज़लें

आज आपकी अपनी पत्रिका पुरवाई हिंदी ग़ज़ल के सबसे बड़े नामों में से एक दीक्षित दनकौरी की ग़ज़लें लेकर आई है। दीक्षित दनकौरी का नाम किसी परिचय का मुहताज नहीं है। विभिन्न टी.वी. चैनलों एवं इंग्लैंड, त्रिनिडाड, टोबेगो, मॉरीशस, केन्या, नेपाल सहित देश-विदेश के सैकड़ों कवि सम्मेलनों/मुशायरों में आप ग़ज़ल पाठ कर चुके हैं। आपके शेर लोगों की ज़ुबान पर चढ़े रहते हैं। ऐसे दीक्षित दनकौरी को पुरवाई में छापते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में दीक्षित दनकौरी जी का एक शेर अपनी बात के समर्थन में सुनाया था – ‘न मांझी, न रहबर, न हक में हवाएं / है कश्ती भी जर्जर, ये कैसा सफ़र है।’

1.
शेर अच्छा-बुरा नहीं होता
या तो होता है, या नहीं होता।
आह या वाह-वाह होती है
शेर पर तब्सिरा नहीं होता।
इश्क़ को बंदिशें क़ुबुल नहीं
इश्क़ बाक़ायदा नहीं होता।
कब, कहाँ, कौन दोस्त बन जाए
हादसों का पता नहीं होता।
अपना ही दिल उदास होता है
कोई मौसम बुरा नहीं होता।
2.
आग सीने में दबाए रखिए
लब पे मुस्कान सजाए रखिए।


जिससे दब जाएं कराहें घर की
कुछ न कुछ शोर मचाए रखिए।


ग़ैर मुमकिन है पहुँचना उन तक
उनकी यादों को बचाए रखिए।


जाग जाएगा तो हक़ मांगेगा
सोए इन्सां को सुलाए रखिए।


जुल्म की रात भी कट जाएगी
आस का दीप जलाए रखिए।
3.
दवा तो दवा है दुआ भी न देगा
वो ठहरा सगा हौसला भी न देगा
जो उँगली तिरी थाम कर चल रहा है
सहारा तो क्या रास्ता भी न देगा
ये तय था वो ख़ंजर चलाएगा मुझ पर
मगर क्या पता था हवा भी न देगा
ये मुंसिफ़ जो उस ने मुक़र्रर किया है
सज़ा तो सज़ा फ़ैसला भी न देगा
दलीलें तो होंगी तिरे पास लेकिन
गवाही तिरी आइना भी न देगा
4.
चलें हम रुख़ बदल कर देखते हैं
ढलानों पर फिसल कर देखते हैं


ज़माना चाहता है जिस तरह के
उन्हीं सांचों में ढल कर देखते हैं


करें ज़िद, आसमां सिर पर उठा लें
कि बच्चों-सा मचल कर देखते हैं


हैं परवाने, तमाशाई नहीं हम
शमा के साथ जल कर देखते हैं


तसल्ली ही सही,कुछ तो मिलेगा
सराबों में ही चल कर देखते हैं
5.
या तो कुबूल कर, मेरी कमजोरियों के साथ
या छोड़ दे मुझे, मेरी तनहाईयों के साथ।
लाजिम नही कि हर कोई हो कामयाब ही
जीना भी सीख लीजिए नाकामियों के साथ।
अच्छा किया जो तुमने गुनहगार कह दिया
मशहूर हो गया हूँ मैं, बदनामियों के साथ।
शामिल हूँ तेरे गम में, बहुत शर्मसार भी
लाचार हूँ, खडा हूँ तमाशाइयों के साथ।
जद्दो-जहद में जोश था, जीने का लुत्फ था
मुश्किल में पड़ गया हूँ मैं, आसानियों के साथ।

दीक्षित दनकौरी
डी.डी.ए. फ्लैटस
76, मानसरोवर पार्क
दिल्ली-110032
Mobile: +91 98991 72697
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2 टिप्पणी

  1. तेजेंद्र जी ने आपकी तारीफ यूँ ही नहीं की है दीक्षित सर! वाकई आपकी सभी गजलें बहुत अच्छी हैं! पढ़कर बहुत अच्छा लगा।पहले विस्तार से लिखाथा हर ग़ज़ल पर लेकिन लापरवाही से सब डिलीट हो गया इसलिए अब संक्षेप में कहें तो हर गजल पर 100बटा 100 नंबर।
    गजल के लिए तो हम सिर्फ इतना ही कहते रहे हैं कि दिल से निकलती है और सीधे दिल तक ही पहुंँचती है। किसी भी रचना का भाव हमें पहले प्रभावित करता है।
    आपकी पहले गजल का पहला शेर ही बता रहा है कि या तो शेर होता है या नहीं होता। आपकी गजल में तो है और हर गजल का हर शेर बड़ी ताकत से अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। वाह-वाह ही है ।
    आपकी हर गजल एक नंबर है पर फिर भी आपकी दूसरी गजल के प्रारंभ के दो और अंत के दो शेर लाखों के हैं।इस ग़ज़ल ने अंदर तक छुआ है। तीसरी गजल वर्तमान से साक्षात्कार कराती है।यह भी बहुत अच्छी है ।चौथी गजल अपने को आज के अनुरूप बदलने की बात करती है।।एक बार अपने को बदल कर देखने में क्या बुराई?
    पाँचवी गजल जिद की गजल है।
    हमने बहुत चाहा, बहुत कोशिश की कि कोई शेर उदाहरण पर प्रस्तुत करें ,लेकिन हर गजल का हर शेर इतना मुकम्मल था कि किसी को किसी से कमतर न आँक सके।
    सभी गजलें 100 बटा 100 हैं।
    तेजेंद्र जी का तहेदिल से शुक्रिया है इतने बेहतरीन शायर से और उनकी शायरी से परिचय करवाने के लिए। पुरवाई का आभार तो बनता ही है।

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