मालिनी अवस्थी का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। दशकों की साधना और समर्पण से लोकगीतों के क्षेत्र में उन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है। लोकगीतों के अलावा ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर आप निरंतर मुखर भी रहती हैं। वर्ष 2016 में पद्म श्री सहित उन्हें अबतक कला-संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। साक्षात्कार श्रृंखला की नौवीं कड़ी में मालिनी अवस्थी से उनकी अबतक की जीवन-यात्रा, लोकगीतों के विभिन्न पहलुओं सहित विविध विषयों पर युवा लेखक पीयूष द्विवेदी ने बातचीत की है। 

सवाल – अपने प्रारंभिक जीवन के विषय में कुछ बताइये।

मालिनी जी – मेरा बचपन मिर्ज़ापुर, गोरखपुर और लखनऊ इन तीन नगरों में गुजरा। पिताजी डॉक्टर थे, तो उनका स्थानांतरण होता रहता था। पिताजी के डॉक्टर होने के नाते हमने बचपन में होश संभालते के बाद उन्हें मरीजों से घिरा हुआ ही देखा। घर भी अस्पताल कैम्पस के अंदर ही होता था। अस्पताल कैम्पस के अंदर रहने का मतलब था कि जीवन-मृत्यु सब आँखों के सामने ही होते रहते। मरीजों का घर में आना-जाना, अपना दुःख-दर्द सुनाना भी लगा रहता। तो कह सकते हैं कि लोकजीवन से जो नैकट्य है, वो हमारे लिए घर का ही हिस्सा था।

माता-पिता बहुत खुले ज़हन के थे। वे मानते थे कि बच्चों को संगीत सिखाया जाना चाहिए। मुझे गुरुओं तक वही लेकर गए। उसके बाद ईश्वर की और गुरुओं की कृपा रही, हमने मेहनत भी की और संगीत की शिक्षा हुई। लेकिन गुरुओं तक ले जाने वाले माता-पिता ही थे।

संयोग है कि गोरखपुर में जहां स्कूलिंग हुई हमारी, वो एक मिशनरी स्कूल था। उस्ताद हमारे मुस्लिम थे और वहीं पर गोरक्षनाथपीठ का संस्कृत पीठ भी था। वहाँ आठ वर्ष लगातार संस्कृत विद्यापीठ की संस्कृत संभाषण की प्रतियोगताओं में मैं हिस्सा लेती रही।

हिंदी भाषा की मेरी अध्यापिका बहुत अच्छी थीं तथा माँ व बहन भी हिंदी पढ़ते थे, इन सब से हिंदी भाषा और साहित्य को पढ़ने की बड़ी प्रेरणा मिली। बांग्ला साहित्य भी पढ़ा। कह सकते हैं कि भाषा और संस्कृति की दृष्टि से मेरी बड़ी सुन्दर परवरिश हुई। भारतीयता के हर रस को मैंने छोटी उम्र से ही अनुभव करना शुरू कर दिया था।

सवाल – संगीत की तरफ रुझान कैसे हुआ?

मालिनी जी – मेरे बचपन का बहुत बड़ा हिस्सा आकाशवाणी (रेडियो) में गुजरा। मेरे जो दोनों उस्ताद थे- शुज़ात हुसैन खां साहब और राहत अली खां साहब- दोनों ही आकाशवाणी गोरखपुर में म्यूजिक कंपोजर थे। रोज वहीं पर जाना और उनसे सीखना होता था। लेकिन लोक कलाकारों को देखकर लगता था कि जो सामान्य व्यक्ति का असली स्पंदन है, उसे यही समझते और व्यक्त करते हैं।

मुझे याद है, एक कलाकार थे मोहम्मद खलील। यही मोतिहारी चंपारण के थे। वे धोती-कुर्ता पहनकर जब गाने बैठते तो उनकी अदायगी ऐसी होती थी कि लगता ही नहीं था कि स्त्री के भाव कोई पुरुष व्यक्त कर रहा है। कुछ और कलाकार थे जैसे नियामत अली जी, हीरालाल यादव जी, राम कैलाश यादव जी – इनका बहुत प्रभाव पड़ा। इसी तरह वागेश्वरी जी, गिरिजा देवी जी को भी सुना और बहुत प्रभाव पड़ा। सुनने को और बहुत से लोगों को सुनते थे, लेकिन लोक कलाकारों और ठुमरी के प्रति मेरा जो झुकाव उसी समय से हुआ, शायद उसका मूल कारण भाषा और भाव रहे।

सो बचपन में जो समय खेलने-कूदने, हँसने-हँसाने का होता है, वो तो था, लेकिन बचपन का एक बहुत बड़ा हिस्सा सीखने में भी गया। जिस उम्र में बच्चे ये सब शायद सोचते भी नहीं हैं, उस चौदह-पंद्रह साल की उम्र में मैं फ़िराक, मज़ाज़, पन्त और निराला को गा रही थी, लोकगीत गा रही थी। अतः आज जो कुछ करियर दिखता है, इसके पीछे पूरे पैंतालिस साल की लम्बी साधना रही है।

सवाल – आप शुज़ात हुसैन खां साहब, राहत अली खां साहब और गिरिजा देवी जी की  शिष्या रही हैं, तो उनसे जुड़े आपके कुछ अनुभव, कुछ स्मृतियाँ हम जानना चाहेंगे।

मालिनी जी – हमारे तीनों गुरुओं का स्वभाव अलग था। तीनों ही असाधारण इंसान थे। दिल से गाते थे। शुजात साहब अनुशासन प्रिय थे। अपने हाथों से डायरी में मेरे लिए ग़ज़लें, गाने लिखते थे। क्योंकि मैं तब इतनी छोटी थी कि पूरा लिख भी नहीं पाती थी। उनके हाथ की लिखी डायरी आज भी मेरे पास है। ऐसे गुरु अब कहाँ मिलेंगे? मुझे याद आता है कि क़तील शिफ़ाई के नाम का सही उच्चारण वे मुझसे करवाते थे। मेरी ज़बान उन्होंने बहुत साफ़ कराई। नौ साल की बहुत छोटी उम्र से ही मैंने सीखना शुरू कर दिया था, तो मंच पर बैठने का तरीका, अनुशासित अदायगी जैसी चीजें उन्होंने मुझे उस छोटी उम्र में ही सिखाई। वो कहते थे कि कलाकार जब स्टेज पर आए तो उसमें उसका औरा आ जाना चाहिए। अब लगता है कि उन चीजों को समझने के लिए वो उम्र बड़ी कच्ची थी, लेकिन उन्होंने तब भी वो सब कुछ सिखाया। बड़े फक्र से कहते थे कि कलाकार जब गाए, तो सुनने वालों को पूछना चाहिए कि किसकी शागिर्द हो, तब तो गुरु में कोई बात है!

राहत अली खां साहब बिलकुल फक्कड़, सूफी थे। घर में खाने को नहीं रहता था, चाय पिलाने का बंदोबस्त नहीं होता था। एक ही बार हम बीस-बीस लोग पहुँच जाते तो वे कहते कि अभी बाहर से आता हूँ। दूध वगैरह लाने चले जाते। कभी-कभी मेरी माँ खुद मुझे गुरु के पास ले जातीं तो जबतक हम सीखते माँ वहीं बैठती थीं। ये बात पता चली तो और लोग भी आने लगे, वहां महफ़िल जम जाती। इसमें चाय से लेकर खाना आदि तक का गुरुओं पर खर्च पड़ जाता, लेकिन वे सब करते थे। आज मुझे लगता है कि इस तरह सिखाने का जो ज़ज्बा है, वो अब नहीं रहा। तभी तो देखिये, आजकल शागिर्द बनने कम हो गए हैं। कह सकती हूँ कि अपना घर फूंककर भी शिष्यों को सिखाने वाले रहे हैं मेरे गुरु!

यूँ समझ लीजिये कि राहत साहब साधू थे जो गायक बन गए। हरफनमौला थे। ठुमरी जितने अच्छे से गाएं, उतने ही अच्छे से ग़ज़लें-नज़्में, दादरा, लोकगीत और भजन भी। देवी के तो ऐसे भजन उन्होंने बनाए थे कि कोई सोच नहीं सकता था कि ये एक मुस्लिम द्वारा बनाए गए हैं। संगीत को ही जीते थे। यही उनका ओढ़ना-बिछौना था। उनसे जो एक चीज मैंने अपनी जिंदगी में उतार ली कि शास्त्रीय संगीत का अगर गहरा रियाज़ होगा, तो दो पंक्ति भी भजन की सीधी-सीधी भी गाओगे तो सुनने वालों के कलेजे तक उतरेगी।

एकबार वे एक कार्यक्रम में गा रहे थे, मैं सामने बैठी थी। अचानक लाइट चली गयी, उसके साथ ही साउंड व्यवस्था भी चली गयी। बहुत बड़ा पंडाल था, शोरगुल होने लगा। लेकिन वे रुके नहीं, गाते रहे। उन्होंने कहा कि अब जबतक बिजली आएगी, तबतक अगर आप खामोश रहें तो हम ऐसे ही संगीत का मज़ा ले सकते हैं। करीब दस-पंद्रह मिनट लाइट नहीं आई, लेकिन वे बिना कुछ देखे-पढ़े लगातार गाते रहे।

मैं सोचती हूँ कि आज हम तकनीक पर आश्रित हो गए हैं, लेकिन उन्होंने उस दिन दिखा दिया कि अगर सुर में ताकत हो तो आदमी किसी तकनीक वगैरह का मोहताज़ ही नहीं है। अतः मैंने उनसे ये सीखा कि कलाकार को हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए और रियाज़ यदि हो तो प्रभु स्वयं सहायता करते हैं। उनसे मैंने यह भी सीखा कि रूहदारी क्या होती है। संगीत अगर आपके दिल में है, तो पोर-पोर बोलता है।

ऐसे ही गिरिजा देवी जी में मैंने देखा कि संगीत के साथ-साथ पूरी बनारस की आत्मा उनमें समाई हुई है। हमारी गुरुजी ऐसी थीं कि दरवाजा हमेशा खुला ही रहता था। वो सिखा रही हैं, इस दौरान कोई आ जाए बैठ जाए तो भी कोई दिक्कत नहीं। ये जो एक बेलौसपना है, ये जो अनौपचारिकता है, ये उनके संगीत में भी थी।

मुझे याद आता है, शिवरात्रि के दो दिन पहले एक कार्यक्रम था मिर्जापुर में। हम लोग गए थे। उसमें हमारी गुरुजी भी थीं। एक आदमी ने वहाँ फरमाइश करते हुए कहा कि गिरिजा जी, कजरी हो जाए। अप्पा जी बोलीं, ‘अरे फागुन में कजरी सुनब! अब तू लोगन के हम मना त करब ना, बाकिर भईया अईसन ह कि कबो-कबो बड़ा गड़बड़ा जाला मामला। फागुन में कजरी सुनब, त पंडाल-ओंडाल उखड़ न जाई। गिरिजा यदि कजरी सुनाई त महादेव बरखा क दिहें।’ उनका नाम पार्वती जी का था – गिरिजा। इसलिए बोलीं कि गिरिजा यदि कजरी सुनाएंगी, तो महादेव बारिश कर देंगे।

इसके बाद उन्होंने इधर कजरी गानी शुरू की और उधर झमाझम बारिश होने लगी। हमने तानसेन की ऐसी कहानियाँ तो सुनी थीं, लेकिन उस दिन गिरिजा जी के गायन में ये साक्षात देख लिया। हमने अप्पा जी के पाँव छू लिए और कहा कि गुरुजी, महादेव आपकी कजरी सुन लिए तो वे बोलीं कि जब कलाकार गाता है, तो देवी-देवता खड़े होकर सुनते हैं। अतः कलाकारों पर बड़ी जिम्मेदारी है।

मैंने इन अनुभवों से ये सन्देश ग्रहण किया कि संगीत सिर्फ दुनियावी चीज नहीं हैं, लेकिन दुनियावी करते-करते ही आप ऊपर वाले धरातल तक पहुँचते हैं। मुझे ख़ुशी है कि मुझे ऐसा रास्ता दिखाने वाले गुरु मिले। गुरु-कृपा ने और लोगों के बेशुमार प्यार ने आज ऐसा कर रखा है कि रोज कार्यक्रम में व्यस्त रहती हूँ। लेकिन सपना यही है कि जो गुरुओं से लिया है, वो शिष्याओं तक पहुँचाऊँ और गुरु-शिष्य परम्परा से ही सिखाऊँ।

सवाल – आपके गायन में एक बात अक्सर देखी जाती है कि आप गाते वक़्त वेश-भूषा से लेकर भाव-भंगिमा तक गीत में पूरी तरह से डूब जाती हैं। इसके पीछे क्या कारण है?

मालिनी जी – पहली बात तो यही है कि ये चीज कुदरतन होती है। शुरू से ही हमने सीखा है कि कलाकार जब मंच पर बैठता है, तो मंदिर में मूर्ति की तरह वो मंच पर प्रतिष्ठित होता है। उससे एक आभामंडल बनता है। पुराने कलाकारों को देखें तो कलाकार गजरा, वेणी लगाकर बैठती थीं। कितने कलाकार बढ़िया शॉल ओढ़कर भी बैठते थे। मेरे साथ ऐसा रहा कि मैं जो लोकगीत गाती थी, वे कोई ऐसे गीत तो थे नहीं, जिनकी रिकॉर्डिंग होती हो। ये तो दादी-नानी के गाने थे। घर-अंगना की चीज थे। ऐसे में मुझे लगा कि जब मैं घर-अंगना की चीजों को अपने श्रोताओं के सामने पेश करती हूँ तो उन्हें अगर उस ढंग से ही पेश नहीं करुँगी तो बात कैसे आगे तक पहुंचेगी?

मुझे लगा कि पारंपरिक लोकसंगीत को अगर मैं पेश कर रही हूँ तो जरूरी है कि मैं पारंपरिक वेश-भूषा में दिखूं फिर चाहें वो चूड़ी, बिंदी, महावर, बिछिया लगाना हो या सीधे पल्लू में साड़ी पहनना हो। फिर यह भी स्वभावतः ही हो जाता था कि मैं बिदाई गाती तो मेरा कंठ अवरुद्ध हो जाता। सोहर गाती या दामाद के द्वारचार गाती तो ऐसा लगता था जैसे मेरे मन में ही शहनाइयाँ बजने लगी हों। इसी कड़ी में ये सब होता चला गया जो आप कह रहे हैं कि मगन होकर गाती हैं।

बहुत लोग आजकल लोकगीत गाने लगे हैं, जो कि अच्छी बात है। लेकिन मुझे लगता है कि उन्होंने लोक का वो आस्वादन अभी नहीं किया है। अगर आपने खुद लोक के रस अनुभव नहीं किए हैं, लोक की झांकी खुद नहीं देखी है, तो वो आपके गाने में नहीं दिखेगी। मैं जब भी कोई कार्यक्रम करती हूँ, तो मंच को मंच मानकर नहीं करती, बल्कि अपने घर का आंगन मानकर करती हूँ। इसी कारण एक बेतकल्लुफी होती है मेरे कार्यक्रमों में। मैं महिलाओं को अपने साथ गवा भी लेती हूँ, नचा भी लेती हूँ। इस प्रकार उनको जोड़ती हूँ। वास्तव में लोक का अर्थ ही यही होता है।

सवाल – आपकी ख्याति लोकगीतों के लिए है, लेकिन मैंने सुना है कि आपने गज़ल गायकी भी की है। इस बारे में कुछ बताइये।

मालिनी जी – दलेर मेहन्दी और मैंने साथ ही तालीम ली थी, और ये तालीम गज़लों की थी। अब देखिये उनकी शोहरत भी पंजाबी पॉप म्यूजिक में हुई, जबकि पंजाबी तो उन्होंने सीखी नहीं थी। सो ये तो मुकद्दर है कि कलाकार को किस तरफ ले जाए, लेकिन शुजात साहब, राहत साहब से हमारी जो तालीम थी, वो ग़ज़लों की ही थी। ग़ज़लें खूब गाईं। रेडियो के लिए मैं आज तक लोक संगीत में नहीं, ग़ज़लों में टॉप ग्रेड की आर्टिस्ट हूँ।

शोहरत लोकगीतों में मिलने का कारण ये रहा कि मुझसे पहले किसीने उत्तर प्रदेश के लोकगीतों को इस तरह लेकर आने की कोशिश नहीं की थी। दूसरी बात कि बहुत लोग ग़ज़लें गा रहे थे, लेकिन मुझे लगा कि हमारे लोकगीतों में उपस्थित खुसरो से लेकर राम के जन्म, बेटी की बिदाई, सुहागन के अपनी प्रेमी की प्रतीक्षा जैसे तमाम रंगों को भी कोई दिखाने वाला होना चाहिए। यही सोच, मान्यता कहीं न कहीं मुझे लोकगीतों की तरफ ले गयी, जिससे ये छवि प्रतिस्थापित हो गयी। लेकिन आज भी जो जानने वाले हैं, वे सब सुनने के बाद ग़ज़लों की फरमाइश करते हैं। रेडियो में मैं ग़ज़लों के लिए ही बुलाई जाती हूँ। बेगम अख्तर जी पर जो अभी अकादमी का कार्यक्रम हुआ था, उसमें भी मैं ग़ज़लें ही गाने के लिए आई थी।

अवध जहां की मैं नुमाइंदगी करती हूँ, वहां कलाकार को एक खांचे में बांधकर नहीं देखा जाता। ठुमरी, दादरा, कजरी गाने वाली बेगम अख्तर ग़ज़लें और निर्गुण भी गाती थीं। इकबाल बानो जी, फरीदा खानम जी का भी उदाहरण हमारे सामने है। वास्तव में कलाकारों को हमने खांचे में बाँट दिया, वरना पहले ऐसा नहीं था। अब जिन बेगम अख्तर ने ‘मोहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया’ गाया, उन्होंने ही यह भी गाया कि ‘निहुरे निहुरे अंगनवा गोरिया धीरे धीरे’। यूँ ही इकबाल बानो ने एकतरफ गाया ‘..ला दे झुमका चांदी का’ तो वहीं दूसरी तरफ ‘शाम-ए-फ़िराक अब न पूछ आई और आके टल गयी..’। तो इस तरह हमने भी सोचा कि जब सारी चीजें सीखी हैं, तो सबको पेश करने की कोशिश करते हैं।

कितने लोग आज भी कहते हैं कि जितने साफ़ उच्चारण के साथ आप उर्दू बोलती हैं, ऐसा कभी नहीं सुना। मैं यही कहती हूँ कि नौ बरस से गुरुओं की शोहबत में ये सब सीखना हो गया। आज भी ग़ज़लें सुनने वाल कहते हैं कि लगता नहीं कि आप लोकगीत भी गा सकती हैं, क्योंकि ग़ज़ल में जो ठहराव, नज़ाकत, अदायगी चाहिए, वो लोकसंगीत से एकदम अलग है। लेकिन एक समय पर मुझे लगा कि लोकगीतों की तरफ ही पूरी तरह से आना चाहिए, क्योंकि लोकगीत हमारी सभ्यता-संस्कृति को समझने का सबसे बेहतर आइना हैं। इसलिए लोकगीतों की तरफ रुझान हुआ।

सवाल – एक समय के बाद से भोजपुरी सिनेमा और संगीत लगातार नीचे की तरफ जा रहे हैं। हिंदी या अन्य भाषाओँ की सिनेमा की तरह भोजपुरी सिनेमा में कुछ भी बहुत नया या रचनात्मक होता नहीं दिख रहा तो वहीं भोजपुरी संगीत बहुधा अश्लीलता की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है। आप इस स्थिति को कैसे देखती हैं और इसके लिए आपकी दृष्टि में कौन जिम्मेदार है?

मालिनी जी – भोजपुरी फिल्म संगीत के विषय में तो वही ज्यादा बेहतर पाएंगे जो उसमें गाते या गाती हैं। लेकिन किसी भी चीज में, मनोरंजन में भी, जब आप स्वयं को व्यक्तिगत जिम्मेदारी से बरी करने लगते हैं, तो यहीं से चीजें विकृत होने लगती हैं। अश्लील गाने लिखने वाला, उन्हें गाने वाला, उनमें अभिनय करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री, उसे बेचने वाले – ये सब जिम्मेदार हैं। जब भोजपुरी सिनेमा-संगीत में अश्लीलता की अति हो गयी तो लोगों ने उधर से मुंह मोड़ना शुरू कर दिया। यह स्पष्ट होने लगा कि अगर फिल्म परिवार के साथ बैठकर देखे जाने लायक नहीं है तो उसका चलना मुश्किल है।

परिवार के साथ बैठकर जब भोजपुरी फ़िल्में देखना लोगों ने कम किया तो ये अपने आप ही निर्माता-निर्देशकों, कलाकारों को जवाब देता चला गया कि अच्छे स्तर की सिनेमा की तरफ लौटें। कलाकारों के साथ हाल ये है कि सब चाहते हैं कि कार्यक्रम भी मिले, इज्ज़त भी मिले और अश्लील भी गा लें। लेकिन आज के जमाने में ये तीनों चीजें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। कई रियलिटी शोज में मैं निर्णायक के रूप में रही हूँ, वहाँ पर कलाकारों ने यदि कभी हल्का गाया तो मैंने बतौर निर्णायक उन्हें फटकारा, नम्बर भी काटे और कहा कि ये कहके आप जिम्मेदारी से नहीं बच सकते कि हमको टीवी चैनल ने यही गाने को कहा था। आप जो कर रहे हैं, उसके लिए आपकी जिम्मेदारी है और आप खुद को बरी नहीं कर सकते।

कलाकार का अपना एक नैतिक दायित्व होता है कि मनोरंजन का स्तर निम्न न हो। जो इस दायित्व को नहीं मानते, उनसे निपटने का सबसे अच्छा तरीका है उनका बहिष्कार जो लोगों ने करना शुरू भी कर दिया है। कुल मिलाकर मुझे अब भोजपुरी में एक शुभ संकेत दिखता है, जो कलाकार आ रहे हैं, वे न केवल अच्छा गा रहे हैं बल्कि बहुत जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ रहे हैं।

सवाल – अभी हाल ही में उनचास हस्तियों ने मोब लिंचिंग पर पीएम को एक सार्वजनिक पत्र लिखा था, जिसके जवाब में एक पत्र इकसठ अन्य हस्तियों ने भी लिखा जिनमें एक नाम आपका भी था। आपको क्यों लगा कि उन उनचास लोगों के पत्र के जवाब में एक पत्र लिखा जाना चाहिए?

मालिनी जी – ये अभी ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। असहिष्णुता का भ्रम फैलाकर साहित्यकारों का लामबंद होना 2015 से ही चल रहा है। मैंने तब भी इसका विरोध किया था। एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना किसी प्रदेश में घटित हुई, उसे लेकर साहित्यकारों ने विरोध व्यक्त किया जो कि अच्छी बात है। साहित्यकार हों या कलाकार हों, उन्हें समाज में जो कुछ भी गलत दिखे उसका विरोध करना ही चाहिए। लेकिन इस विरोध में ईमानदारी होनी चाहिए। आज हम दिनकर, प्रेमचंद आदि को यदि याद करते हैं, तो इसीलिए करते हैं कि उनका सत्य सभी के लिए समान सत्य था।

2015 में ये जो विरोध करने वाल साहित्यकार थे, उसमें एक साहित्यकार तो ऐसे थे कि जिस प्रदेश में घटना हुई, उसी प्रदेश की सरकार से सम्मान लिए थे। लेकिन वो सम्मान और उसकी राशि न वापस करके अकादमी पुरस्कार लौटाने लगे। जहां घटना हुई थी, उसकी सरकार का सम्मान-पैसा लौटाते, उसके खिलाफ नारा लगाते तो माना जाता कि इनका विरोध सही है। लेकिन ऐसा नहीं किया, दिल्ली में आकर प्रदेश की घटना के लिए बोलते रहे।

इसी तरह अभी जब ये पत्र-प्रकरण हुआ तो हम लोगों को लगा कि बंगाल में इतनी हिंसा हुई, बूथ कैप्चरिंग के वीडियो पूरे देश में फ़ैल गए, लेकिन इसके खिलाफ इन उनचास लोगों जिनमें अपर्णा सेन आदि कितने बंगाल के ही लोग हैं, में से किसीने कुछ नहीं बोला। मेरा मानना है कि हर कलाकार के भीतर सामाजिक, राजनीतिक विषयों को लेकर एक दृष्टि होनी चाहिए। मुझे लगता है कि देश के सभी कलाकारों, साहित्यकारों को सभी सामाजिक मुद्दों पर समान रूप से मुखर होना चाहिए। अगर कुछ लोग पक्षपात करेंगे तो ऐसे लोगों की नीयत पर संदेह होना स्वाभाविक ही है।

सवाल – भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग लम्बे समय से हो रही है, लेकिन इस विषय में सरकारी स्तर पर बस दिलासे ही मिलते रहे हैं। इस विषय में आपकी क्या राय है और मौजूदा सरकार से कितनी उम्मीद है?

मालिनी जी – भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग बहुत पहले से चली आ रही है जो कि एक जायज मांग है और मुझे उम्मीद है कि सरकार इस मांग को पूरा भी करेगी। सरकार इस विषय में गंभीर है, सो मुझे लगता है कि ये काम होगा।

सवाल – आप वर्तमान सरकार की नीतियों की अक्सर प्रशंसा करती रही हैं, जिससे आपकी छवि एक भाजपा समर्थक की बनी है। इसपर आप कुछ कहना चाहेंगी?

मालिनी जी – ये तो देखने वालों के नजरिये पर है कि वो मुझे किस रूप में देखते हैं। मुझे लगता है कि मैं राष्ट्र समर्थक हूँ। देश के लिए जो सरकार अच्छा निर्णय लेगी, मैं हर उस सरकार के साथ हूँ। इंदिरा गांधी ने जिस समय बांग्लादेश बनाकर देश का मस्तक ऊंचा किया, तो आजतक इंदिरा जी की कौन प्रशंसा नहीं करता? नेहरू जी ने आईआईटी, आईआईएम बनवाए, तो इसके लिए तो मैं नेहरू जी की भी प्रशंसा करती हूँ, तो क्या आप मुझे कांग्रेसी कहेंगे? जिन प्रदेशों में कुछ रीजनल पार्टियों की सरकारों ने बहुत अच्छा काम किया है, उनकी प्रशंसा करने पर क्या हम उनके समर्थक हो जाएंगे?

आप हमारी पुरानी पोस्ट देखेंगे तो हमने अच्छे कामों के लिए कांग्रेस की भी तारीफ़ की है, लेकिन वो देखेंगे ही नहीं। अभी शीला दीक्षित जी के देहावसान पर मैंने जो पोस्ट की थी, उसमें आधुनिक दिल्ली के निर्माण के लिए उनके योगदान को याद किया था। लेकिन आप वो नहीं देखेंगे। जयललिता जी के निधन पर भी मैंने लिखा था।

आज भाजपा की सरकार है, तो उसके अच्छे कामों की तारीफ़ कर रहे। आप ही बताइये कि 370 हटने से कौन-सा भारतीय होगा जिसे प्रसन्नता नहीं होगी? मुझे तो बहुत गर्व हुआ कि हमारे यहाँ किसीने पहली बार कहा कि हम कश्मीर के लिए जान भी दे देंगे। इसपर गर्वित होना भाजपा का समर्थन कैसे हो गया? 370 का समर्थन केजरीवाल जी, मायावती जी ने भी किया है, तो क्या इन्हें भाजपा समर्थक बोलेंगे?

मैं उन कलाकारों में से हूँ, जिनके लिए भारत सबसे पहले है। जो सरकार भारत के हितों की रक्षा करती है, उसके समर्थन में हम क्या, हर व्यक्ति को खड़ा होना चाहिए। गरीब आदमियों के लिए यदि कोई सरकार सड़क, बिजली, घर बनाती है, तो क्या मैं कलाकार हूँ, इसलिए उसकी आलोचना करूंगी। जो गलत बात है, उसके लिए जरूर आलोचना करनी चाहिए। लेकिन देश के हितों की दिशा में यदि कोई सरकार काम कर रही है, तो वो कांग्रेस, भाजपा, तृणमूल कांग्रेस चाहें जिसकी सरकार हो, वो हर व्यक्ति के लिए प्रशंसा के योग्य है।

अतः ये कहना गलत है कि मैं भाजपा समर्थक हूँ, मैं हर ऐसी सरकार, हर ऐसी नीति का समर्थन करती हूँ जो देशहित में है। कोई कलाकार हो, साहित्यकार हो, उसका सरोकार बस सत्य के संग होना चाहिए और वो सत्य उसके देश, समाज और कला के प्रति हो। इन तीन के अलावा चौथा कुछ नहीं है। दल-विशेष के प्रति न तो बहुत सहिष्णुता अच्छी है, न असहिष्णुता अच्छी है, तटस्थ रहने की आवश्यकता है।

मैं तीन साल पहले लद्दाख गयी थी, तो मैंने ट्विट किया था कि वहाँ पर यूनियन टेरिटरी की मांग है जो कि अब पूरी भी हो गयी। ये होने के बाद मैंने इसका जिक्र किया कि तीन साल पहले मैंने कहा था और ये अब हुआ है। इसे आप भाजपा के समर्थन के रूप में नहीं देख सकते। एक और उदाहरण देती हूँ कि मैं फिजी गयी थी, 2010-11 में। वहाँ से लौटकर मैंने दैनिक जागरण के लिए एक लेख लिखा था – सीता बैठी झरोखे रोवें अंसुवन की धार।

उस लेख में मैंने ये लिखा था कि सरकारी उदासीनता के कारण फिजी अब चीन के अत्यंत निकट हो गया है, अतः सरकार को चाहिए कि उसपर ध्यान दे। सामरिक दृष्टि से उसकी स्थिति बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। अब प्रधानमंत्री जब फिजी गए तो पता चला कि इंदिरा गांधी के बाद वहाँ जाने वाले वे ही अगले प्रधानमंत्री हैं। यानी कि तीन-चार दशकों में वहाँ कोई गया ही नहीं था।

मैंने बताया कि मेरे पिताजी डॉक्टर थे, तो बांग्लादेश युद्ध के दौरान ट्रेन में भरकर सिपाही आ रहे थे। मिर्ज़ापुर के पास ट्रेन रूकती तो नहीं, मगर थोड़ी धीमी हो जाती थी। माँ वगैरह उस जमाने में स्टेशन पर पूरी-सब्जी, चाय आदि बनाके पैकेट में भरती थीं और हम बच्चों का काम था कि ट्रेन आए तो उसे अंदर जवानों तक पहुंचाए।

ये 1972 की बात मैं बता रही हूँ, सोचिये कि मैं कितनी छोटी रही होउंगी। अब ऐसे परिवार में मेरा पालन-पोषण हुआ है, जहां मैंने राष्ट्र के प्रति ऐसी भावना देखी है और उसे महसूस करती हूँ। तो ये उनकी समस्या है, जिनको मैं दल-विशेष की समर्थक दिखती हूँ। मैं सिर्फ भारत की समर्थक हूँ और हर उस दल की समर्थक हूँ, जो भारत के हितों को सर्वोपरी रखता है।

पीयूष – समय देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

मालिनी जी – बहुत बहुत धन्यवाद, पीयूष जी।

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

1 टिप्पणी

  1. मालिनी अवस्थी का साक्षात्कार पढ़ा..न सिर्फ़ संगीत से जुड़े उनके जवाब बल्कि सामाजिक व राजनीतिक प्रश्नों पर उनके जवाब बहुत संतुलित थे । उन सबको पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों की बुअन इंसान की सोच को इतनी गहराई दे देती है कि विचारों में परिपक्वता स्वतः ही दिखती है।

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