काव्य संग्रह – अलाव पर जिंदगी लेखिका – शिल्पा सोनटक्के प्रकाशक – शिवानी प्रिंटर्स
समीक्षक
डॉ. रमेश यादव. मुंबई
“अलाव पर जिंदगी” शिल्पा सोनटक्के जी का छठवाँ काव्य संग्रह विविध रंगों की चासनी में पगा है और शीर्षक के अनुरूप ही वास्तव में संग्रह की रचनाएं जिंदगी की अलग तान छेड़ते हुए विशेष होने का ताना-बाना बुनती हैं. अपने शीर्षक के समर्थन में कवयित्री लिखती है –
“ये ज़िन्दगी एक अलाव की आग-सी है / हर कोई अपने हिस्से की आंच सहता है / अकेले ही झूजता है मुश्किल-ओ-हालात से / खुद में सिमट के फिर वो तन्हा-तन्हा रहता है.”
जीवन का कितना वास्तविक और सटीक चित्रण इन चंद पंक्तियों में किया गया है. इससे लेखनी और सोच का तेवर पता चलता है. हलकी-फुलकी पंक्तियों को उर्दू शब्दों से सजाते हुए कविता के कॅनवास पर सुंदर चित्र उकेरती हुए एक नए अंदाज में जीवन के मर्म को पाठकों तक पहुंचाने का उनका यह प्रयास काबिलेतारीफ है. ‘ग़मगीन है फागुन’ नामक रचना में ‘दहशत’ से बिखरे उत्सव संस्कृति का बड़े मार्मिक ढंग से अपनी बात रखती हैं –
“अबके फागुनी रंग स्याह नज़र आते हैं / गुलमोहर-औ-टेसू सहमे-सहमे लहराते हैं / निश्चल हंसी भूले ये नौजवां चेहरे / अब दहशतों का फरमान सुनाते हैं.”
मूलतः गुजराती भाषी शिल्पा जी ने हिंदी से एम.ए. (ऑनर्स) किया, है साथ ही हिमांशु जोशी के पांच उपन्यासों का गहन अध्ययन करते हुए अपना शोध-प्रबंध भी प्रस्तुत किया है. बीमा कंपनी से होते हुए एक प्रतिष्ठित सरकारी बैंक में राजभाषा अधिकारी के रूप में 27 वर्षों तक राजभाषा हिंदी की सेवा वे करती रही और एक ऐसा कातिल वक़्त आया, जिसने उन्हें गंभीर बीमारी से त्रस्त कर दिया. परिणामतः वरिष्ठ प्रबंधक के पद से स्वेच्छानिवृत्ति ले ली. उस मानसिक अवस्था से गुजरते हुए उनकी एक रचना की ये पंक्तियाँ देखें –
“आस की चादर में लगेंगे और पैबंद कितने / कुछ तदबीरें तो कर कामयाब, सच कर दे कुछ सपने / रंगीन महफ़िलों के ख़्वाब धुँधलाएं इस कदर / सियाही का रंग भरा आंखों में, हम हुए दर-ब-दर”
जीवन में सुख, शांति, प्रसन्नता, तनाव मुक्तता बनाएं रखने के लिए साहित्य के साथ “सजावट कला” के नाम से कला जगत में भी सफलता पूर्वक मुसाफिरी करती वो नजर आती हैं. अहिंदीभाषी होते हुए भी उनके हिंदी प्रेम को देखते हुए उनकी इस रचनाधर्मिता को सलाम किया जा सकता है. उन्हें कई मान सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हैं. अनुवाद के काम से भी वे जुड़ी हुई हैं. गुलाबदास ब्रोकर के संस्मरणों, आबिद सुरती जी के लेखों तथा उपन्यास एवं चार एकांकियों का हिंदी अनुवाद उन्होंने किया है जो धर्मयुग, महानगर जैसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. इस संग्रह की कई रचनाएं तत्कालीन समय के संजीदा एहसासों से गुजरती हैं. बानगी के तौर पर ये मुक्तक देखें –
“उड़ गए ख्वाहिशों के परिंदे सभी / पेड़ पर बचा कोई घोसला न रहा / अब परों को हवाओं में / तौलने का हौसला न रहा.”
संग्रह में क्षणिकाएं, मुक्तक, कविताओं और गीतों जैसे विविध काव्य विधाओं का समावेश किया गया है जो जीवन और परिवेश के राग-विराग, सुख-दुख, संस्कृति, प्रकृति, खुशी और सपनों के इन्द्रधनुषी रंगों में प्रस्फुटित हुए हैं. इसके साथ ही देशप्रेम, पर्यावरण, कोरोना, भाईचारा, महानगर, झरना, खामोशी, आदमी, पहली फुहार जैसे विषयों के माध्यम से सामाजिकता का भी अंतर्नाद है. काव्य की ये विविधताएं निश्चित रूप से पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ हैं. बानगी के तौर पर दो गीत देखते हैं – “अपने होठों पर सजाया है तुझे / अपने गीतों में बसाया है तुझे / मूंदकर पलकें कभी सपने बुने /और सपनों में बुलाया है तुझे.”
इसी तरह एक और गीत –
ग़म के साए हैं, अश्कबारी है / वक़्त की आंखों में खुमारी है / जी रहे हैं इक दांव पर लगी हुए जिंदगी भी कहां हमारी है.”

अपनी बात में वे लिखती हैं – जिंदगी के आगाज से लेकर मृत्यु तक के सफर में विविध इंसानी फितरतों के साथ बसर होता है. इसकी झलकियां संग्रह में मौजूद हैं. उन्हीं के शब्दों में कहें तो – ‘ बिना कश्ती के सहारे तूफानों से उतरे हैं हम / तमन्नाओं वाली उम्र में हादसों से गुज़रे हैं हम.’

वैसे इंसानी जीवन की ये फितरत भी है. लगभग हर किसी को इसी तरह के रास्तों से गुजरना पड़ता है मगर उन्हें शब्दबद्ध करना भी एक कला होती है, जिसे कवयित्री ने बेहतर अंजाम दिया है. वे बधाई की पात्र हैं.’ जीवन के अलाव ‘ से गुजरते हुए उन्होंने अपने भीतर के कवि मन को कभी मुरझाने नहीं दिया, बनिस्बत एक रोल मॉडेल के रूप में उभर कर सामने आती हैं और अपनी तमाम भाव – भावनाओं को रचनाओं में अंकित करती चलती हैं. बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी शिल्पा जी कई भाषाओं को जानती हैं और यथार्थ की जमीन पर व्यक्त होती हैं.
एक और कविता के अंश देखते हैं – ‘ मंजिलों पर न पहुंचे, भटकते रहे कदम / था कौनसा सफर ये न पूछिये / किनारे बहाकर ले गई संग अपने / बहकी थी कौनसी लहर ये न पूछिये. ‘ संग्रह की रचनाएं पाठक को अंत तक बांधे रखती हैं ‘ महानगर’ नामक कविता में वे बखूबी से शहर का वर्णन करते हुए लिखती हैं – ‘ ये शहर रोज नए रंग में ढल जाता है / अपना होते-होते फिर ये बदल जाता है/’
इसी तरह एक और गीत का तेवर देखें – हम अपने हाथ की लकीरों में तुझे ढूँढते हैं / है ये दीवानगी, तकदीरों में तुझे ढूँढ़ते हैं / दिलबरी के सभी रंग हैं फीके-फीके / मगर हम हैं कि तस्वीरों में तुझे ढूंढ़ते हैं.’
कुल मिलाकर यह काव्यसंग्रह जीवन के राग रंग के साथ-साथ सामाजिकता, अध्यात्म, सौहार्द और देशभक्ति के गीत भी गाता है. प्रेम, विरह और सुख दुख के तत्व भी इसमें मौजूद हैं जो एक अलग शिल्प में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होते है, अतः वे साधुवाद की हकदार हैं. हिंदी साहित्य जगत में इस संग्रह का गर्मजोशी से स्वागत किया जाएगा.

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