आलोकुठि को राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है और इसका मुद्रित मूल्य ₹299 है
इस सत्य से अनभिज्ञ सम्भवतः कोई भी न होगा कि जो घटनाएं इतिहास की किताबों में स्थान पा गई हैं, यथार्थ में इतिहास का वितान उनसे कहीं अधिक विस्तृत है । ऐसी घटनाएं जिन्होंने मानवता के मायने और पाशविकता के दायरे बदल दिये ,पूर्वकाल में स्थान ले चुकी हैं , जिनके बारे में कभी चर्चा भी नहीं होती। जिनकी उग्रता एक संवेदनशील समाज पर कलंक से कम नहीं लेकिन आज अधिकांश उनसे अवगत नहीं। ऐसी ही एक घटना पर आधारित है विजय गौड़ जी का उपन्यास ” आलोकुठि” ।
आलोकुठि कहानी है विभाजन की पीड़ा की, विस्थापन के संताप और विभेदन की यंत्रणा की, दमन की कुटिलता, हौसलों की दृढ़ता और कुलांचे मारती जिजीविषा की । यह कहानी है रुक्मी बागची, रूपेन हलदार और उनके जैसे लाखों दलित हिन्दु शरणार्थियों की ।
उपन्यास का सशक्त कथानक पूर्वी पाकिस्तान के विभाजन तथा बांग्लादेश के निर्माण के कालचक्र में निर्वासित शरणार्थियों की सत्यघटनाओं पर आधारित है। बंगाल विभाजन का दंश एकाधिक बार झेल चुका है । 1905 में बंग-भंग कानून के तहत धर्म के आधार पर हिन्दु
और मुस्लिम बहुल इलाकों को अलग कर दिया गया था। प्रबल विरोध के चलते इसे 1911में रद्द कर दिया गया।
बंगाल में मुस्लिम लीग का ज़ोर था । बाबासाहेब अंबेडकर ने मुस्लिम लीग के साथ ” दलित मुस्लिम गठबंधन” स्थापित किया और चुनाव जीतकर संविधान सभा की सदस्यता ग्रहण की ।इस महत् कार्य में नामशूद्र जोगेन मंडल की अहम् भूमिका रही । चांडाल जाति का जोगेन मंडल भी अंबेडकर की तरह कानून पढ़कर स्वराज की लड़ाई में शामिल था और भद्रजनों की ऑंख की किरकिरी बन गया था। पाकिस्तान मॉंग की पक्षधर मुस्लिम लीग की जीत ने हिंसा की चिंगारी को सुलगाने का काम किया। भद्रमानुष इसके ख़िलाफ़ थे और चूंकि मुस्लिम लीग का दलितों के साथ गठबंधन था,तो नामशूद्रों के ख़िलाफ़ ख़ूब ज़हर उगला गया।
उपन्यास की केन्द्र चरित्र बानी के पिता नीरेन्द्रनाथ बागची धनाढ्य बारेन्दार ब्राह्मण या कहें भद्रमानुष थे और मॉं रुक्मी एक नामशूद्र , जिसके पिता बागची परिवार के खेत चास करते थे। नीरेन्द्रनाथ स्वराजी थे, इसलिए पहली पत्नी के स्वर्गवास के बाद अनाथ बच्चों की देखभाल के लिए उन्होंने परिवार के घोर विरोध के बावजूद रुक्मी चंडाल से विवाह किया था।
सम्भावित आज़ादी के युग में धार्मिक उन्माद के बीज फलने लगे थे। कलकत्ता की सड़कों पर एक मामूली से विवाद ने हिंसा का और उस हिंसा ने क़ौमी दंगों का रूप ले लिया था। खस्सी ( मॉंस ) का व्यापारी दीवानचंद्र चट्टोपाध्याय मुसलमानों से अपनी मित्रता को भुलाकर उनके विरोध में दंगे भड़काता रहा। मुस्लिम लीग के कार्यकर्ता भी सड़कों पर उतरे हुए थे। कलकत्ता के साथ पूरा बंगाल धार्मिक उन्माद की ज़द में आ गया था।
आज़ादी अपने साथ विभाजन की त्रासदी भी लेकर आई थी। हिंसा और लूटपाट का दौर शुरू हो गया था। पूर्वी बंगाल के धन-धान्य सम्पन्न भद्र मानुष अपनी सम्पत्ति को छुपाते-बचाते सुरक्षित स्थान तलाशने लगे थे।
जसौर, फरीदकोट और खुलना वाले कलकत्ता की ओर, सिलहट वाले आसाम की ओर, ढाका और कुमिल्ला वाले त्रिपुरा की ओर का रुख़ कर रहे थे। साधन सम्पन्न लोग वहां ज़मीन जायदाद खरीदने में जुटे हुए थे। जहॉं देश में इतना कुछ घट रहा था,वहीं रुक्मी ससुराल वालों के श्रष्ठताबोध के चलते उपेक्षापूर्ण दुर्व्यवहार सह रही थी।
कलकत्ता की सड़कों पर सन्नाटा पसरा था।अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। धार्मिक विद्वेष की आग साथ में बहुत कुछ जला रही थी।इधर विश्वयुद्ध के बाद महामारियों का दौर भी चल पड़ा था। लेकिन मनुष्यों का बॅंटवारा कहीं अधिक गंभीर समस्या थी।
जोगेन मंडल भू-भाग के विभाजन के साथ पाकिस्तानी हुक़ूमत का कानूनमंत्री बन गया था। नीरेन्द्रनाथ के बड़े भाई वकील सुबलनाथ बागची ढ़ाका कोर्ट में वकालत करते थे। वे अपनी तमाम सम्पत्ति बेचकर गॉंव चले आए । गॉंव में भी लूटपाट की घटनाओं से विचलित हो अपने पिता ठाकुरदा को सबकुछ बेच-बाचकर कलकत्ता जाने को मनाने लगे। बॅंटाईदार भी फसल में से अपने लिए हिस्सा ( तेभागा ) माॅंगने लगे थे । नीरेन्द्रनाथ की शह थी लेकिन ठाकुरदा के रौब ने उन्हें शांत कर दिया। इधर गॉंव से लोग चुपचाप पलायन कर रहे थे।
अकाल की मार से पीड़ित गरीब सेंधमारी पर उतर आया था ।बागची परिवार की बड़ोबाड़ी में जिस दिन सेंध पड़ी, निर्णय ले लिया गया कि सारी जायदाद बेचकर कलकत्ता में बसेरा किया जायेगा। रुक्मी यूं एकाएक सबकुछ छोड़कर जाने को तैयार नहीं हुई । तय हुआ कि नीरेन्द्रनाथ गॉंव में रहकर खेत वगैरह का सौदा करेगा। नीरेन्द्रनाथ का बेटा लटाई भी परिवार के साथ चल दिया।
इस बीच महात्मा गांधी की हत्या का समाचार आया और पूरे बारीसाल में हत्या, आगजनी, लूट-पाट और  बलात्कार का शोर गूॅंज उठा । धार्मिक विभेद का पाट और चौड़ा हो गया ।
राष्ट्रनिर्माण के बाद भाषाई विवाद गर्मा उठा। तभी ” इकशे फरवरी” का आग़ाज़ हुआ जब पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू को लागू करने के विरोध में संघर्ष शुरु किया गया। शासन की बागडोर फौज के हाथों में आ गई। दहशत के माहौल में कानून और श्रम कल्याण मंत्री, एक दलित हिन्दु जोगेन मंडल ने स्तीफा दे दिया।
तेभागा आन्दोलन को कुचलने के लिए भी पुलिस धर-पकड़ कर रही थी। इस श्रृंखला में स्वराजी नीरेन्द्रनाथ को भी खोजने निकली,जो किसी तरह जान बचाकर भाग निकले थे। रुक्मी की बीमार बेटी गुज़र गई । कुछ समय उपरांत नीरेन्द्रनाथ लौटे । बीरीशीरी के बागान का सौदा कर रकम लेकर कलकत्ता के लिए निकले तो पलटकर वापस नहीं आये । गर्भवती रुक्मी प्रतीक्षा करती रही । मौकापरस्त तालुकदार हज़ारी चालाकी से उनके खेत और बड़ोबाड़ी पर क़ब्ज़े की युगत करने लगा । रुक्मी अपनी बेटी बानी के साथ पति की तलाश में कलकत्ता पहुंच गई। वहां बीरीशीरी के रूपेन हलदार से उसकी भेंट हुई । रूपेन ” उदबास्तु उन्नयन समिति” का सदस्य था जो शरणार्थियों को दंडकारण्य की बंजर पथरीली धरती के स्थान पर अन्य स्थानों पर पुनर्स्थापित करने के प्रयोजन में संघर्षरत थी ।
दंडकारण्य ऐसी भूमि थी जिसके लिए कहते हैं कि 10%मिट्टी भी उपजाऊ नहीं है।
ऐसे में जब सत्ता पर वाममोर्चा स्थापित हुआ तो शरणार्थियों को लगा कि उनकी कष्टप्रद यात्रा का अंत सुखद होगा । वे रूपेन हलदार के नेतृत्व में गराल नदी के किनारे बसे सुंदरबन के द्वीपों की ओर चल पड़े। आलोकुठि ( मरीचझापी)को अपना आसरा बनाया।अल्पसमय में वहां स्कूल व अस्पताल तैयार हो गए और ज़रूरत का हर सामान बनने लगा । प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न करते हुए एक आदर्श स्थान तैयार हुआ। लेकिन, सोशलिस्ट पार्टी के फुल्लर मंडल की ईर्ष्या फलित , स्वार्थ निहित राजनीति ने काम करना शुरु कर दिया था। पर्यावरण चिन्तन की सरकारी दिशा बंगाल टाइगर की जान की हिफ़ाज़त की ओर थी। आलोकुठि को प्रतिबंधित वन क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया गया और वनक्षेत्र को घुसपैठियों से मुक्त कराने के लिए बेदखली अभियान चालू करने के प्रस्ताव रखे गये ।सरकारी हाकिम ने आलोकुठि के बाशिंदों को जंगल खाली करने का हुकुम सुना दिया । “टाइगर रिज़र्व फोरेस्ट” के नाम पर उदबास्तु और बास्तुहाराओं को आलोकुठि से ही नहीं बल्कि पूरे बंग क्षेत्र से बेदखल करने की मंशा की सम्भावना थी।
सुख की चाह में दंडकारण्य से यहां चले आए शरणार्थियों पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा।
पूरे द्वीप की नाकेबंदी कर दी गई। हमले की आशंका एक चुनौती थी, जिसकी तैयारी के लिए ज़हर बुझे तीरों के साथ मनोबल बढ़ाया जा रहा था। 26 जनवरी 1979 को पहला हमला हुआ जिसमें स्कूल के मास्टर को गोली मार दी गई और अंधाधुंध फायरिंग की गई।गॉंववालों ने भी जमकर मुकाबला किया।
पुलिस की ज़्यादतियाॅं बढ़ती जा रही थीं। दूसरे स्थानों से भोजन, औषध ,पीने का पानी हासिल करना दुष्कर हो गया ।पानी के एकमात्र स्रोत में विष घोल दिया गया। कई दिनों की घेराबंदी के बाद पुलिस वालों ने राजनैतिक प्रेरणा से हज़ारों दलित हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया। रुक्मी शहीद हुई। रूपेन किसी तरह बानी को बचाकर बाहर छोड़कर आने में सफल हुआ , लेकिन अंततः वह भी मृत्यु को प्राप्त हुआ।
आज बानी सरकारी कर्मचारी है… स्मृतियों की धारा अनवरत जारी है।
उपन्यास के सभी पात्र वास्तविकता के निकट हैं और बहुत निपुणता से कहानी को आगे लेकर जाते हैं। इतने सारे चरित्र, देश-काल के साथ विकसित करना मार्के का काम है , जो लेखक ने किया है। यद्यपि कहीं कहीं ऐसा लगा कि कुछ पात्रों का विवरण न भी होता तो कहानी के प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक पात्र का विवरण बस इतना ही था कि उसके डील-डौल और चलने बोलने के अंदाज़ में नीरेन्द्रनाथ की झलक आती थी । उसका जवान बानी को वासना भरी नज़रों से देखना और फुल्लर मंडल का उसे ” बागची साहब” कहकर संबोधित करना चौंका गया।आगे पाठकों की समझ पर छोड़ दिया गया कि वह पुलिस अधिकारी कौन था–लटाई अथवा बागची परिवार का कोई अन्य सदस्य! रुक्मी और रूपेन के आक्रोश को बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पात्रों के संवाद भी देश-काल और चरित्र के अनुसार उपयुक्त हैं। संवाद में बंगाली भाषा का पुट सरस लगता है। जब रुक्मी नाराज़ होकर ख़ामोशी की पनाह में चली जाती है, स्वराजी नीरेन्द्रनाथ का चिल्लाते हुए कहना , ” तुम इस वक़्त जो यह गांधी की तरह ब्योहार कर रही हो, ठीक नहीं है। यह क्रूर और हिंसक तरीका है।”__रोचक लगा।
राष्ट्रनिर्माण के बाद जो भाषाई विवाद खड़ा हुआ था, उसके संदर्भ में भी कुछ पंक्तियां/ संवाद कुशलतापूर्वक रखे गये ; बानगी देखिए…
” दुनियावी प्रपंच भी भाषा का निर्माण करते रहते हैं, सिर्फ़ ज़रूरत ही नहीं। प्रपंचों की भी अपनी ही तरह की रचनात्मकता होती है।”
” भाषा शब्दों का गुच्छा भर नहीं है, भूगोल है, संस्कृति है, समाज है। दंडकारण्य के जंगल और सुंदरबन का भूगोल वनस्पति की भिन्नता में ही नहीं बल्कि भाषा की भिन्नता में भी सॉंस लेता है ।”__रूपेन हलदार का यह यकीन कि ” जो विरोध कर रहा है , समझो उसमें वह सामाजिक सरोकार ज़्यादा घना है,जो वर्तमान को ज्यों का त्यों स्वीकारने से परहेज़ करता है”_ एक व्यापक सकारात्मक दृष्टिकोण उजागर करता है।
अनेक स्थानों पर लेखक ने अपनी बात को बेहतरीन बिम्बों के साथ रखा है….
” नदियां ड़ोलती हैं जैसे खाड़ी क्षेत्र में,लोग ड़ोल रहे थे वैसे ही । पूछते, भटकते। मॉं का हाथ छुड़ाकर भागती बच्चियों की तरह इच्छामति और चुरुनि ने कुलांचें भरने क्या शुरु कीं कि देखते ही देखते वे सारी की सारी बच्चियाॅं अपने खिलंदड़पन में आ गईं….”
शरणार्थी बच्चियों और नदियों, अन्य स्थान पर मॉं और धरती की समानताओं का प्रयोग करते हुए दृश्य का चित्रण मनहर बन पड़ा है ।
एक घटनाक्रम में सुरजू कहता है,” सत्ता के नुकीले उभारों का असर विवेकवान नहीं बने रहने देता। रीठा के भीतर की चमकीली कठोरता, रीठाफल के ऊपरी खोल की कोमल गोलाई को भी समतल कहॉं रहने देती है?”
” वृक्ष पक्षियों का रैन-बसेरा है। क्या खेती के लिए वृक्षों को ध्वस्त कर देना ज़रूरी है?” आपदाग्रस्त शरणार्थियों की पर्यावरण के प्रति जागरूकता मर्म स्पर्श कर गई ।
सन् 1905 से लेकर 1979 की वृहद् कालावधि की घटनाओं का समावेश इस उपन्यास में हैं , कालखण्ड़ों में तब्दीली की आवृत्ति कुछ स्थानों पर प्रवाह को बाधित करती प्रतीत होती है। अन्यथा उपन्यास पाठक को इतिहास की छानबीन करने को प्रेरित करता है ।लेखक का गहन शोधकर्म उपन्यास के कथानक, चरित्र चित्रण, संवादों एवं भाषा इत्यादि सभी क्षेत्रों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। अनकहे इतिहास से साक्षात्कार कराने के प्रयोजन से ऐसे लेखन की वर्तमान में बहुत आवश्यकता है।आलोकुठि के रूप में एक विचारोत्तेजक पठनीय सामग्री तैयार हुई है, इसके लिए विजय गौड़ जी बधाई के पात्र हैं ।

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