
दिव्या विजय हिंदी की चर्चित युवा कहानीकार हैं। देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रकाशित होती रहती हैं। ‘अलगोज़े की धुन पर’ और ‘सगबग मन’ नामक दो कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। हाल ही में उन्हें उनकी कहानी ‘समानांतर रेखाएं’ के लिए ‘पुरवाई कथा सम्मान-2019’ से सम्मानित भी किया गया। दिव्या के कहानी-संग्रह ‘सगबग मन’ की यह समीक्षा हमें ‘पुरवाई कथा सम्मान’ की घोषणा के पश्चात् प्राप्त हुई थी। तब हमने तय किया कि जब उन्हें सम्मान प्राप्त हो जाएगा उसके अगले अंक में हम इसे प्रकाशित करेंगे। अब मानपत्र उनतक पहुँच चुका है, अतः इसे हम प्रकाशित कर रहे हैं।
बेस्टसेलर का अंग्रेज़ी तमग़ा हासिल करने के लिए हिन्दी साहित्य में क्रमशः वही स्थिति उत्पन्न होती जा रही है जो चेतन भगत के बाद इंग्लिश में हुई। जैसे एक तय फ़ार्मूला हाथ लग गया है जो वेब सीरीज़ में आए मार्केट बूम को भी भुना लेना चाहता है इसलिए उसको भी लक्ष्य करके लेखन होने लगा है। एक साफ़ रेखा दो तरह के साहित्य के बीच खींची जा सकती है। गंभीर हिन्दी साहित्य, जिसे बुद्धिजीवियों के लिए लिखा जाता है और एक बेस्टसेलर वाला साहित्य जिसमें “सब मसाला चलता है” बोल के पाठक वर्ग को हिन्दी के कूल साहित्य के नाम पर बेचा जा रहा है। हिन्दी साहित्य में यह सब कितना कंटेंपरेरी है और कितना ज़रूरी वह फ़िलहाल मेरे इस लेख का विषय नहीं है वरन् मैं यहाँ एक कहानी संग्रह ‘सगबग मन” बात करने को प्रस्तुत हूँ जो इस रेखा पर खड़ा है। परन्तु न तो इसमें बेस्टसेलर वाला उथला मनोरंजन है और न ही यह किसी वैचारिकी को एजेंडे में रख कर लिखा गया है। लेखिका दिव्या विजय का यह दूसरा कहानी संग्रह है जो ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। इनका पहला कथा संग्रह ‘अलगोज़े की धुन पर’ मेरा पढ़ा हुआ है जो कि मुझे अच्छा लगा था, अतः इस संग्रह से उम्मीदें और ज़्यादा होनी ही थीं।
पिछले संग्रह की कहानियों में प्रेम केंद्रीय तत्त्व था और वह हिट भी रहा इसलिए लेखिका उससे इतर जा के कोई रिस्क लेंगी इसका अंदेशा नहीं था परन्तु ‘सगबग मन’ की पहली कहानी ‘काचर’ ने ही मुझे ग़लत साबित कर दिया। दूर ढाणियों में जीवन व्यतीत करने वाली एक अधेड़ औरत रतनी अपनी सहेलियों के साथ साप्ताहिक पैंठ में जाती है। रास्ते में ट्रेन के सफ़र की आपसी चुहल, परिवार की ज़िम्मेदारियों से दूर ये उन सबकी आज़ादी का दिन होता है। लेखिका ने ढाणियों में नारी जीवन को तमाम मुश्किलात के बीच सब्ज़ियों की खेती तथा सफ़र की शरारतों द्वारा ख़ुशियों के गाढ़े रंग से रंग दिया है। परन्तु एक दिन अकेले सब्ज़ियाँ बेचने जाती थकी-माँदी रतनी भिड़ जाती है एक थानेदार से। रतनी स्वयं भी अपनी अप्रत्याशित हिम्मत से चौंकती है, भीतर ही डरती भी है किन्तु डिगने से इंकार करती है। सत्ता कुचलने में मज़ा पाती है पर औरत और वह भी कृषक, सृजन में ही अपना विरोध जताने का माध्यम पाती है। कहानी का अन्त काचर की सुवास दे जाता है जो रतनी पर हुए ज़ुल्मों की खरोंच भुला देता है। एक दृढ़ चरित्र के साथ अन्तर प्रक्रिया के फलस्वरूप कहानी में जो रचनात्मक प्रभाव आता है वही इस कहानी में है और इसे पुनर्पठनीय बनाता है। लोकल भाषा और ढाणियों में जीवन के माइन्यूट ऑब्ज़र्वेशन से कहानी में प्रामाणिकता भी आई है तथा सम्वेदना भी। लोक जीवन का रस और गंध, सृजनात्मक उत्ताप से भरी रतनी कहानी का मुख्य आकर्षण हैं।
