कुछ उपन्यासों की सकारात्मक समीक्षा करने के बाद इस बार डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के उपन्यास कृतघ्न की भी बारी आयी। इससे पहले जितनी भी किताबों की समीक्षा की थी, किसी-न-किसी ऑनलाइन पत्रिका में अपनी पहुँच के हिसाब से छपवा दी थी। 2020 ई. में दिल्ली से यह किताब अपने साथ यूक्रेन लेकर आ गया था। आख़िरकार आज इस किताब की समीक्षा आपके सामने पेश कर रहा हूँ। मैं किसी भी किताब की नकारात्मक समीक्षा नहीं करता। मेरा मानना है कि हर किताब में कुछ-न-कुछ अच्छाई ज़रूर होती है और इनसान की तरह ही कोई भी किताब पूरी भी नहीं होती है। मैं उस पक्ष पर सकारात्मक होकर अपना ध्यान केंद्रित करता हूँ।
मैं उपन्यास में नये-नये अनछुए विषयों को तलाशने का आदी हूँ। पहली बार सोचा कि इस तरह के पारिवारिक उपन्यास बहुत बार पूरी दुनिया में लिखी जा चुकी हैं। पहले मैंने नये विषयों पर आधारित उपन्यास पूरे किये। जब यह उपन्यास पढ़ना शुरू किया तो दो अध्याय पढ़ने के बाद इस उपन्यास से जुड़ गया। फिर बेहिचक आगे की तरफ़ बढ़ता चला गया। इस उपन्यास का नायक उच्च कुल-खानदान से है और नायिका निम्न मध्यम वर्गीय परिवार है। जिसकी वजह से लेखक को शुरू-शुरू में नायक और नायिका के दरम्यान सामंजस्य बिठाने में दिक्कत होती है। जहाँ अंबुज एक राजा और ज़मीनदार परिवार से है, वहीं पूनम और सुकन्या जैसी पात्राएँ निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आकर इस उपन्यास में जगह पाते हैं।
उपन्यास में शुरू से लेकर आख़िर तक उच्च और मध्यम वर्गीय परिवार के अंतर्द्वंद्व को विस्तृत तरीक़े से दर्शाया गया है। पूनम और सुकन्या के बीच के अंतर्द्वंद्व पर भी बड़ी बारीकी से काम किया गया है। एक गौण पात्रा सुकन्या आख़िर में नायिका बन जाती है। एक पाठक के तौर पर उपन्यास के आख़िर में इस बात का बहुत अफ़सोस होता है कि पूनम इस उपन्यास की नायिका बनते-बनते असफल हो गयी। काश! वह ऐसा सुकर्म करती और उपन्यास की नायिका बन जाती है।
आख़िर पूनम कहाँ चुक गयी? अगर वह संयम से काम लेती, अपनी ज़िद्द पर नहीं अड़ती, नायक अंबुज पर ज़ोर-ज़बरदस्ती दबाव नहीं डालती तो शायद वह इस उपन्यास की नायिका ज़रूर बन जाती। वह दूसरे तरीक़े से भी तो उपन्यास में नायिका बन सकती थी। क्या सिर्फ़ जीवन-संगिनी बनकर ही कोई महिला उपन्यास की नायिका बन सकती है? आज के आधुनिक उपन्यास में नायक और नायिका की भूमिका भी कई बार धराशायी होती हुई प्रतीत होती है। पूनम की ग़लती का फ़ायदा सुकन्या को हुआ। वह आख़िर में बाज़ी मार गयी और उपन्यास की नायिका बन गयी। हठधर्मिता से इनसान का विनाश तय है। लेखक यह संवाद पाठकों तक पहुँचाने में सफल हुए हैं।
सुकन्या और पूनम एक पृष्ठभूमि से आती हैं। वे दोनों बचपन में अपने माता-पिता को गंवा चुकी हैं। दोनों की परवरिश भी बगैर माता-पिता के दूसरे परिजनों के हाथों होती है, फिर उपन्यास की बारीकी पर गौर करने पर पता चलता है कि पूनम की परवरिश में कुछ खामियाँ ज़रूर रह गयीं, जिसका ख़ामियाज़ा उसे आख़िर में भुगतना पड़ा। इस पृष्ठभूमि से सुकन्या भी आती है, लेकिन वह संयमी, सुशील और सौम्य है। कछुए की तरह मंद गति से चलती हुई अपनी मंज़िल पा लेती है। दूसरी तरफ़, पूनम अल्हड़ और हठधर्मी है। अपनी ज़िद्द पर अड़ी रहती है, जिसकी वजह से वह ख़ुशी का मुँह नहीं देख पाती है।
नायक अंबुज के चरित्र के बारे में गहराई से अवलोकन करने पर पता चलता है कि उच्च कुल-ख़ानदान में पैदा होते हुए भी अमीर लोगों को ग़रीब लोगों से हमदर्दी रहती है। असहाय, दिन-दुखियों की सेवा करने में वह कोई क़सर नहीं छोड़ता है। उसमें अभिमान नाम की कोई चीज़ नहीं है। ऊँचे-कुल-ख़ानदान में पैदा होने पर उसे कोई गर्व नहीं है। वह दूसरे के दुख-दर्द में सहायक बनकर जीना चाहता है। उपन्यास से गुज़रते वक़्त ये तो एहसास हो जाता है कि आप समाज में कितनों भी अच्छे काम कर लें, फिर भी हर कोई आपको मुहब्बत नहीं करेगा। इस समाज में नफ़रत करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। अंबुज के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है,
किंतु उपन्यास के अंत में हम महसूस करते हैं कि हर मुश्किल घड़ी से, हर संकट से निकलने का रास्ता भी हमें मिल जाता है, हम बस अच्छे काम करते चलें। जानकी और रामनाथ जी जैसे माता-पिता को पाकर भी अंबुज के सपने पूरे होते हैं। हर संकट में माता-पिता का साथ यह दिखता है कि माता-पिता विषम परिस्थिति में भी अपने बच्चे के साथ खड़े रहते हैं और अपनी संतान को मानसिक और शारीरिक तौर पर भी उभरने में मदद करते हैं। अंबुज की ख़ुशी में रामनाथ जी और जानकी की ख़ुशी छुपी हुई है।
इस उपन्यास का सबसे बेहतरीन हिस्सा नायिका बनने की कशमकश ही है। हम एक बार किसी धोखा खा जाते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि हर कोई ऐसा ही होगा। पूनम अंबुज के द्वारा किये गये उपकारों को भूल जाती है। अंबुज की कृपा से उसकी ज़िंदगी सुधर जाती है और शहर के अच्छे अस्पताल में नर्स भी बन जाती है। हादसे में अपनी पत्नी को खो देने के बाद अंबुज अंदर कितना टूट जाता है। किंतु जब पूनम मदद के लिए आती है तो वह अंबुज को अपने दिल में बसा लेती है और एक तरफ़ा प्यार की गिरफ़्त में फँस जाती है। आख़िर में वह लालची-मक्कार लोगों के जाल में फँसकर अपना सत्यानाश कर लेती है।
अंबुज को जेल और कोर्ट-कचहरी के फेरे लगाती है। अंबुज एक बार फिर मानसिक तौर पर टूट जाता है। किंतु सुकन्या जैसी सौम्य और सभ्य नायिका को पाकर वह ज़रूर आख़िर में विजयी हो जाता है। बचपन में दादी के द्वारा कही गयी बातों को याद करती रहती है- “मेरा सपनों का बड़ा महल होगा। मुझे राजकुमार मिलेंगे…..।“ और अंत धोखा खा जाती है कि अंबुज ही मेरा वह राजकुमार है। यह बचपन और जवानी के अंतर्विरोध आपस में टकराते हैं। यह अंतर्विरोध इस उपन्यास की विशेषता है।
समीक्षक- राकेश शंकर भारती (यूक्रेन)
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन
कुल पृष्ठ- 152
क़ीमत- 200 रूपये
संपादक महोदय को आभार व्यक्त करता हूँ।