• तेजस पूनिया

अक्टूबर जंक्शन एक ऐसी किताब है जिसका सुरूर आपके दिल और दिमाग में धीरे-धीरे चढ़ता है। ठीक गांजा और मदिरा की तरह और जब यह सुरूर एक बार चढ़ना शुरू होता है तो आप भी इस सुरूर में हिलोरें खाते हुए ऊपर-नीचे होते जाते हैं। हालांकि किताब के शुरूआती आठ-दस पन्ने आपको बाँध पाने में पूरी तरह से विफल होते हैं। किन्तु धैर्य के साथ यदि आप किताब के एक-एक पन्ने को फरोलते जाएं तो यह आपको अंत तक जाते जाते निराश नहीं करती और लगता है कि अपने अपना समय वाजिब जगह पर गंवाया है। किताब की कहानी में एक लड़का सुदीप है और उसकी एक दोस्त चित्रा है। सुदीप ‘बुक माई ट्रिप’ नाम से कम्पनी बनाता है और उसे नंबर वन कम्पनी बनते हुए देखना चाहता है। 12वीं क्लास तक पढ़ा यह लड़का अपने घर से भी चला जाता है। घर में माँ और पिता नाराज हैं। माँ के मरने पर भी वह घर नहीं आता। कायदे से इस बारे में लेखक ने सही से बात नहीं की है। लेकिन किसी फिल्म की तरह इसमें इतने सारे वन-लाइनर हैं कि उन्हें आप अपने जेहन में ही नहीं बल्कि डायरी में भी सहेजना चाहेंगे। ताकि कभी जरूरत पड़ने पर सामने वाले पर प्रभाव इन वन-लाइनर से जमाया जा सके। इसके अलावा उपन्यास की पूरी कहानी 10 अक्टूबर एक एक दिन पर केन्द्रित है। इस दिन सुदीप और चित्रा मिलते हैं। पूरे साल भर उनकी कोई बात नहीं होती मगर यह दिन दोनों के लिए ख़ास है कि उस दिन वे कहीं भी हों मिलेंगे जरुर। इसके अलावा 10 अक्टूबर 2020 से शुरू हुई यह कहानी 10 साल पीछे जाती है और पूरे घटनाक्रम को सहज, सरल शब्दों में व्यक्त करती हुई पुन: 2020 पर लौटती है। इन दस सालों में पीछे लौटना और फिर से वहीं आना इतना सारा दुःख और सुख आपके भीतर भरता है जिसे पढ़कर आप लेखक के उन हाथों को चूम सकते हैं जिन्होंने इस कहानी को सलीके से गढ़ा है। उपन्यास की संक्षिप्त सी कहानी में सुदीप और चित्रा का मिलना, सुदीप की गर्लफ्रेंड, चित्रा के दूसरे लड़कों से शारीरिक संबंध बनाना, इधर सुदीप का भी नई-नई लड़कियों से मिलते रहने के संकेत, बी० एच० यू० , पिज्जेरिया कैफ़े, अस्सी घाट, मणिकर्णिका घाट का दृश्य, पगलेट सा बाबा और उसका जीवन-मृत्यु को लेकर गीत गाना, सुदीप का कोर्ट केस और फिर उस केस को जीतना, चित्रा से मानसिक प्रेम, एन० जी० ओ को केस में जीती हुई राशि दान करना आदि कई घटनाएँ आपको एक तरह से पूरा साहित्यिक मसाला परोसती है।   
इसके अलावा किताब की प्रस्तावना की शुरुआती लाइन और किताब के खत्म होने पर फिर से प्रस्तावना लिखना एक नया और जोखिम भरा काम है। इससे साधारण पाठक को लगता है कि जैसे लेखक कोई सफ़ाई पेश करना चाहता है। लेकिन साहित्य के गम्भीर तथा सुधि पाठक इस प्रस्तावना को दो बार क्यों लिखा गया यह भलीभांति जान पाएंगे।  “हमारे पास हर कहानी के दो वर्जन होते हैं। एकदूसरे को सुनाने के लिए और दूसरा, अपने-आपको समझाने के लिए। जिस दिन हमारी कहानी के दोनों वर्जन एक हो जाते हैं उस दिन लेखक अपनी किताब के पहले पन्ने पर लिख देता है, “इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। इनका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से लेना-देना नहीं है। यह अदना-सा झूठ पूरी कहानी को सच्चा बना देता है।”
किताब के वन-लाइनर मसलन
  • हर अधूरी मुलाक़ात एक पूरी मुलाक़ात की उम्मीद लेकर आती है। हर पूरी मुलाक़ात अगली पूरी मुलाक़ात से पहले की अधूरी मुलाक़ात बनाकर रह जाती है।
  • एक अधूरी उम्मीद ही तो है जिसके सहारे हम बूढ़े होकर भी बूढ़े नहीं होते। किसी बूढ़े आशिक़ ने मरने से ठीक पहले कहा था कि एक छंटांक भर उम्मीद पर साली इतनी बड़ी दुनिया टिक सकती है तो मरने के बाद दूसरी दुनिया में उसकी उम्मीद बांधकर तो मर ही सकता हूँ। बूढों की उम्मीद भरी बातों को सुनना चाहिए।
  • उनके पैर गंगा की गीली रेत को छू रहे थे। जितना हिस्सा गीला हो रहा था उतना हिस्सा नदी होता जा रहा था।
  • नदी और जिंदगी दोनों बहती हैं और दोनों ही धीरे-धीरे सूखती रहती हैं।
  • हर आदमी में एक औरत और हर औरत में एक आदमी होता है। हर आदमी अपने अंदर की अधूरी औरत को जिंदगी भर बाहर ढूँढता रहता है लेकिन वो औरत बड़ी मुश्किल से मिलती है। वैसे ही हर औरत अपने अंदर का अधूरा आदमी ढूँढती रहती है लेकिन वो अधूरा आदमी बड़ी मुश्किल से मिलता है। और कई बार वो अधूरा मिलता ही नहीं। लेकिन अगर एक बार अधूरा हिस्सा मिल जाए तो आदमी मरकर भी नहीं खोता। तू ध्यान से देख वो कहीं नहीं गया तेरे अंदर है। आधी तू आधा वो।
  • सुन पाना इस दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। लोग बीच में समझाने लगते हैं। उससे ही सब बात खराब हो जाती है।
  • आसपास देखकर पता ही नहीं चलता कौन कितने आँसू लेकर भटक रहा है।  
  • यह जानते हुए कि यहाँ हमेशा नहीं रहना ऐसे में अपना घर बनाना और घर होना इस दुनिया का सबसे बड़ा धोखा है।
  • किसी के साथ बैठकर चुप हो जाना और इस दुनिया को रत्ती भर भी बदलने की कोई भी कोशिश न करना ही तो प्यार है!
  • हमारी दो जिंदगियाँ होती हैं। एक जो हम हर दिन जीते हैं। दूसरी जो हम हर दिन जीना चाहते हैं।
इन वन लाइनर के बीच में चित्रा और सुदीप के ऐसे मोमेंट भी हैं जिनसे आप प्रेम की सच्ची परिभाषाएँ सीख सकते हैं। हर आठ-दस पेज के बाद एक कहानी का खत्म सा हो जाना और एक साल पीछे लौट जाना ऐसा एहसास करवाता है कि जैसे ये कोई उपन्यास नहीं बल्कि दस कहानियाँ हों। एक जैसे पात्रों की दस कहानियाँ इस तरह आपस में गुँथी हुई की आप भी उसमें इस कदर गूंथते चले जाते हैं कि उपन्यास को एक शिफ्ट में पढ़ जाते हैं। किसी भी रचनाकार की यही खासियत उसे विशेष बनाती है की वह अपने पाठक को कितना बाँध कर रख सकता है। नई वाली हिंदी के नाम पर यह उपन्यास काबिलेतारीफ और एक बार अवश्य पढ़े जाने योग्य है। किसी नए लेखक को पढ़ना इतना सुखकर होगा। सोचा न था।

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