मन में संदेह तो उठता ही है कि क्या ये विश्व भर के धर्मगुरू कोरोना के बाद एक बार फिर लोगों के मनों में आस्था की भावना जगा पाएंगे… या फिर दूसरी तरफ़ कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि कोरोना काल के बाद आस्था का एक ज्वार उमड़ पड़े और सब अपने अपने भगवान की शरण भागने लगें।
कोरोना वायरस ने डर, दहशत और ख़ौफ़ का माहौल तो बना ही दिया वहीं भगवान के अस्तित्व पर भी एक सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। 
आज के हालात ने एक बात साफ़ कर दी है कि वायरस इन्सान ने बनाया, इन्सान ने फैलाया (चाहे अन्जाने में और चाहे जानते बूझते), इन्सान ही मर रहा है और इन्सान ही बचा रहा है। इस सारी प्रक्रिया में भगवान का कोई रोल है ही नहीं। 
कोरोना ने हर देश की हर इंडस्ट्री में तालाबन्दी करवा दी है। लोगों के रोज़गार छिन रहे हैं या कम हो रहे हैं। खेल के मैदान ख़ाली पड़े हैं; स्कूल कॉलेज सब बन्द हैं; सिनेमा हॉल, थियेटर, मॉल सभी सूने पड़े हैं। दिहाड़ी मज़दूर भूख से लड़ाई लड़ रहे हैं।
मगर सबसे बड़ा नुक़्सान मुल्ला, पादरियों, पुजारियों और ग्रंथियों का हुआ है। ये लोग आस्था की दुकानें सजाए हुए थे और इन्सान की कमज़ोर भावनाओं का लाभ उठा रहे थे। मगर आज मक्का, मदीना, वैटिकन, शिवालय, देवालय, गुरूद्वारे सब बन्द् हैं। जिन मज़हबों में सवाल पूछने की स्वतन्त्रता है उसे मानने वालों के दिमाग़ में सवाल कुलबुलाने लगे हैं… कुछ वैसे ही सवाल जो कभी स्वामी दयानन्द के दिमाग़ में उठे थे। 
सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जो भगवान अपने मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरूद्वारे की रक्षा करने में अक्षम है, वो भला इन्सान की रक्षा कैसे करेगा
एक बात तो तय है कि ये सभी धार्मिक स्थल इन्सानों ने ही बनाए थे और इन्सानों ने ही बन्द किये हैं। उन धार्मिक स्थलों में भगवान रहते हैं, यह अफ़वाह भी इन्सानों ने ही फैला रखी थी। बल्कि हर मज़हब में कुछ ख़ास महीने ऐसे होते हैं जब श्रद्धालुजन किसी ना किसी प्रकार के तीर्थ पर निकलते हैं और धार्मिक स्थलों की लम्बी चौड़ी कमाई हो जाती है। 
परमात्मा का कोई कन्सेप्ट उभरा होगा कभी, मगर इन्सान ने उसकी मार्केटिंग करते हुए पूरा धंधा बना डाला। ऐसा दबाव डाला गया कि इन्सान के लिये मज़हब होने के स्थान पर इन्सान को मज़हब का ग़ुलाम बना दिया गया। धन, दौलत, ज़ेवर, चादरें, मोमबत्ती ना जाने क्या क्या चढ़ावे के रूप में अपने अपने भगवान को अर्पित करने की परम्परा शुरू कर दी गयी। अधिकांश मज़हबों का परमात्मा दूसरे मज़हबों के लिये जगह नहीं छोड़ता। इकबाल जब कहते हैं कि ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’, वे शायद सदी का सबसे बड़ा झूठ बोलते हैं। मज़हब के नाम पर सदियों  से लड़ाइयां होती रही हैं, देश बरबाद होते रहे हैं, लाखों लोगों के प्राणों की आहुति चढ़ती रही है।
मन में संदेह तो उठता ही है कि क्या ये विश्व भर के धर्मगुरू कोरोना के बाद एक बार फिर लोगों के मनों में आस्था की भावना जगा पाएंगे… या फिर दूसरी तरफ़ कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि कोरोना काल के बाद आस्था का एक ज्वार उमड़ पड़े और सब अपने अपने भगवान की शरण भागने लगें। 
ज़ाहिर है कि पूरे विश्व के सामने अब एक चुनोती तो है ही। विश्व महसूस करेगा कि कोरोना से पहले और कोरोना के बाद का युग एकदम अलग विश्व है। अब लोग शायद गले नहीं मिलेंगे। यह जो हर इन्सान में छः फ़ुट की दूरी खड़ी कर दी गयी है, वो आसानी से हटने वाली नहीं है। गंगाजल, आब-ए-ज़मज़म, होली वॉटर और अमृत छकने की परंपरा क्या वापिस अपनी जड़ें जमा पाएगी? मित्रों मैं ना तो नास्तिक हूं और ना ही आस्तिक। मगर जो स्थितियां मैं लिख रहा हूं वो वास्तविक हैं। 
यदि कोरोना में हरिशंकर परसाईं की सोच होगी तो वो एक खेल ज़रूर खेलेगा। कोरोना काल के बाद सभी मुसलमान ईसाइयों की तरह सोचने लगेंगे। सभी ईसाई हिन्दुओं की तरह सोचने लगेंगे, सभी हिन्दू यहूदियों की तरह और सभी यहूदी मुसलमानों की तरह… सबके भगवान कन्फ़्यूज़ हो जाएंगे….
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

7 टिप्पणी

  1. आशा पर आकाश टिका है भाई। अच्छा संपादकीय, हमेशा की तरह। आपकी चिंता वाजिब है और उम्मीद एक संवेदनशील लेखक के अनुरूप।

  2. आप का यह नवीनतम लेख इतना कटु है कि सच में आप पर फतवा जारी कर देंगे ये धार्मिक कठमुल्ले !

  3. आपका संपादकीय लेख उत्तम है। धर्म का पता नही बाद में कया होगा। अभी हर घर में बिना पंडितों के पूजा ज़ोरों से है। डर से या आध्यात्मिक जागरण के लिये,या मन की शान्ति के लिये।मै ख़ुद
    भी इसी राह पर चल पढ़ी हू । कया आप जानते है। तुलसीदास के रामायण में इस बिमारी की बात है।दोहा नम्बर १२० सब के निन्दा जे जड़ करही । ते चमगादड़ होइ अवतरही।सुनु तब मानस रोगा।
    जिन्हें ते दुख पाली सब लोग।मोह सकल वयाधिनह कर मूला।चिन्ह ते उपजती बहू सूला।कामनाये कफ लोभ अपरा।क्रोध पित नित छाती ज़ारा। लम्बा है। मतलब धरती पर पाप बड़ जायेंगे तब चमगादड़
    अवतरित होगे चारों ओर उनसे सम्बंधित बिमारी फैलेगी,बहुत लोग मर जाएँगे ।उसकी एक ही दवा है भगवान का नाम और समाधि रहना। यानी लौकडाउन। हो सके तो इसे प्बलिश करे। मैने खोज कर
    लिखा है। जो सब आज हो रहा है ,सब लिखा गया,आर्थिक समस्या ,व्यवसाय का नुक़सान ,ग़रीबी ,वग़ैरह।

  4. आपके समपादकीय ने धार्मिक ठेकेदारों के व्यापार को चुनौती दे दी है मगर ये लोग भी. ढीठ होते हैं कोइ ना कोई राह ढूंढ लेंगे। ये समय है कि हम पुराणों के द्वारा और सारी अच्छी बातें सीखें पर धर्मों की ठेकेदारी को प्रोत्साहित ना करें। आपके इस सम्पादकीय
    ने हम सबको सोचने पर मजबूर कर दिया है कि करोना के बाद सोच समझ कर आगे बढ़ना है अंधविश्वास से दामन बचाना है।
    आपको बधाई।

  5. हरिशंकर परसाई की सोच का जो चलते-चलते छौंक लगाया है, वह बहुत रोचक है।

  6. भारत में धार्मिक/आध्यात्मिक आस्था अत्यंत सशक्त है- रामायण, महाभारत की टीआरपी देखिए।अभी सब आध्यात्मिक कार्यक्रम ऑन-लाइन ,टीवी स्क्रीन पर चल रहे हैं, पहले से अधिक विस्तार हो गया है-पहले से अधिक लोग ये कार्यक्रम देख रहे हैं-INDIA!☺️

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