सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु ने मीडिया को दो धड़ों में बांट दिया है। एक तरफ़ वो मीडिया जो चिल्ला चिल्ला कर रीया चक्रवर्ती को दोषी घोषित कर चुका है। तो दूसरी तरफ़ वो मीडिया है जिसको देख कर साफ़ पता चलता है कि उन्होंने पैसे लेकर रिया को एक प्लैटफॉर्म देने का काम किया है। यदि अर्णव गोस्वामी पहले धड़े के नेता हैं तो राजदीप सरदेसाई दूसरे दल के सरगना।

राजनीतिक घोटालों को उजागर करने में पूरे विश्व में मीडिया ने एक अहम भूमिका निभाई है। भारत में अरुण शोरी जैसे खोजी पत्रकारों ने इस परम्परा की नींव को मज़बूती से तैयार किया। यदि मीडिया सक्रिय न होता तो अमरीका वाटरगेट काण्ड, भारत के सीमेण्ट घोटाला, बोफ़ोर्स घोटाला, चारा घोटाला, हर्षद मेहता घोटाला आदि दबे रह जाते। तो यह तो मानना पड़ता है कि मीडिया का रोल खोजी पत्रकारिता के रूप में महत्वपूर्ण है। 
मगर जब से भारत में 24 घन्टे के न्यूज़ चैनल शुरू हुए हैं हर चैनल का चिल्लाने का जैसे एक कम्पीटीशन सा शुरू हो गया है। चिल्ला-चिल्ली मीडिया का जनक शायद अर्णव गोस्वामी को माना जा सकता है। हैरानी इस बात की होती है कि इतना चिल्लाने का असर उनके गले पर नहीं होता और वो हर शाम को चिल्लाने के लिये पहुंच जाते हैं। उनको उनके ही खेल में हराने का भोण्डा प्रयास करते दिखाई देते हैं अमीश देवगन और दीपक चौरसिया। 
सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु ने मीडिया को दो धड़ों में बांट दिया है। एक तरफ़ वो मीडिया जो चिल्ला चिल्ला कर रीया चक्रवर्ती को दोषी घोषित कर चुका है। तो दूसरी तरफ़ वो मीडिया है जिसको देख कर साफ़ पता चलता है कि उन्होंने पैसे लेकर रिया को एक प्लैटफॉर्म देने का काम किया है। यदि अर्णव गोस्वामी पहले धड़े के नेता हैं तो राजदीप सरदेसाई दूसरे दल के सरगना। 
सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध हालात में मृत्यु हो जाती है।  मुंबई पुलिस बिना किसी जांच के सुशांत इस मृत्यु को आत्महत्या मान लेती है। 64 दिनों तक FIR दर्ज नहीं करती है। मुंबई पुलिस इसे नेपोटिज़्म का मामला बना कर उलझा देती है।
मीडिया इसे आत्महत्या मानने से इन्कार कर देता है और मुंबई पुलिस की जांच पर सवालिया निशान लगा देता है। शिवसेना के नेता बेवक़ूफ़ी भरे बयान दे कर मामले को और उलझा देते हैं। 
अंततः सुशांत का परिवार बिहार पुलिस के पास पटना में एफ़.आई.आर दर्ज करवाता है। बिहार के आई.पी.एस. अधिकारी को मुंबई में क्वारन्टीन कर दिया जाता है। मीडिया इस पर भी आपत्ति करता है। यहां तक भी जायज़ है। 
समस्या तब खड़ी होती है जब टी.वी. चैनल मीडिया के ज़रिये रिया चक्रवर्ती को अपराधी घोषित कर देती है। यदि मीडिया केवल और केवल अपने इकट्ठे किये सुबूत टी.वी. पर दिखाती रहती बिना रिया को सज़ा सुनाए तो यह मीडिया का सकारात्मक रूप होता। मगर यहां तो चिल्ला चिल्ला कर रिया और उसके परिवार को हत्यारा घोषित कर दिया गया। 
टी.आर.पी. के चक्कर में; ब्रेकिंग न्यूज़ के चक्कर में; और चैनल को नंबर-1 करने के चक्कर में मीडिया कर्मी हांफने लगे हैं। शोर, शोर और शोर… आठ लोगों का पैनल बना कर बैठा लेते हैं मगर बोलने किसी को नहीं देते। और ख़ास तौर पर अगर कोई उनकी विचारधारा के विपरीत बोल दे, तो उसकी तो चिल्ला चिल्ला कर बोलती बन्द कर देते हैं। 
पहले तो मीडिया राजनीतिक स्तर पर ही अपने समाचार बनाया करते थे। हमें पता होता था कि एन.डी.टी.वी. के लिये समाचार क्या है और टाइम्स नाऊ के लिये क्या है। एबीपी न्यूज़ क्या दिखाने वाला है तो आजतक क्या कहेगा। मगर अब तो सब गडमड्ड हे चुका है। 
आज की ब्रेकिंग न्यूज़ होती है – रिया चक्रवर्ती का ड्राइवर कार में बैठ चुका है। रिया चक्रवर्ती आज सफ़ेद शलवार कमीज़ पहने हैं। रिया चक्रवर्ती से दस घन्टे की बातचीत होगी। सी.बी.आई. ये दस सवाल पूछ सकती है।… आज रिया चक्रवर्ती ने अनानास का जूस पिया।… सैम्युअल मिरांडा के मुंह में रिपब्लिक टीवी का पत्रकार माइक घुसा कर सवाल पूछता है। 
इस बेहूदगी को बन्द करना होगा। यदि सरकार को इस बारे में कुछ सख़्त नियम बनाने पड़ें तो बनाने चाहियें। 
राजदीप सरदेसाई की तो समाचार को लेकर सोच ही अजब-गजब है। वह अपने चैनल पर थोड़ी थोड़ी देर में कहता है – न्यूज़ इस नॉट फ़ाउण्ड इन ब्लैक एण्ड व्हाइट, इट इज़ युज़ुअली फ़ाउण्ड इन दि शेड ऑफ़ ग्रे (समाचार ब्लैक अण्ड व्हाइट नहीं होता… आमतौर पर समाचार ग्रे शेड़ में मिलता है)। जिस एंकर का समाचार ही ग्रे है… उसकी पत्रकारिता का रंग क्या होगा?
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

3 टिप्पणी

  1. बहुत सही चित्र उकेरा है। मीडिया अब न्यूज़ नही, व्यूज़ देती है। सबकी अपनी अपनी लॉबी है, अपने अपने एजेंडे। रही बात राजदीप सरदेसाई की, तो उसे मैं कतई पत्रकार नहीं मानती। एक नौजवान की असमय मृत्यु को सभी ने trp का मैदान बना लिया है।

  2. माननीय संपादक महोदय जी ने इस लेख के माध्यम से मीडिया के मध्य तटस्थता का दिखाने का प्रयास किया है।
    यह मीडिया की चिल्लाहट की वजह से ही घाघ ड्रग्स माफिया को उजागर होने की संभावना है… पाकिस्तान का डी भारत में धुआं धुआं कर बिकता है…उसी धन से आतंकियों का मंसूबा बढ़ता है…

  3. यह उचित समय है जिसमें सरकार को मीडिया की आचार संहिता
    निर्धारित करनी होगी तभी समस्या का समाधान सम्भव है।
    सम्पादकीय में भी आप यही संकेत दे रहे हैं।
    शुक्रिया
    प्रभा मिश्र

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