मनु बैठे सोच रहे हैं मन में, ये कैसा भारत बन गया आज, मेरी प्रजाति हुई धर्म भ्रष्ट- फैला चहुँ जोर कुंठा का साम्राज्या| स्मृति का ले आधार, किया था मैंने मानव संस्कार, गुणों को देख, किया विभाजन कर्म का, धर्म बना सबका आधा| चार- वर्ण के लोग होते, सोलह उनके थे संस्कार| पुरूषार्थ चतुर्थ का किया निर्माण धर्म, अर्थ काम-मोक्ष इसमें बंधा पूरा मानव संसार, सबकी आधार शिला धर्म बनी मानवता मुस्काने लगी| बीता समय का लम्बा अन्तराल, वर्ण कब बदल गई जाति में, मचा समाज में घमासान, जाति का जहर फैला नस-नस में, अब न रहा मानव लिखी के बसके, मनु आज देख मनुज को, हो उठे हैरान|
2 – गाँव अब शहर बन गया
अब हम अकारण आम नहीं लगाते, महुआ और आँवला नहीं उगाते, हम सिर्फ फल खरीद कर खाते हैं, पर एक भी वृक्ष नहीं लगते हैं| एक ओ ज़माना था, कुछ फल लगाना था, आम, बेल, आँवला, बरगद और नीम सभी घर के द्वार के थे चिन्ह, पर अब दुआरे नहीं होती नीम, नहीं लगते पेड़ के नीचे चौपाल, नहीं बिछती खटिया चार, नहीं होते आपस में संवाद, अब तो बचा है, हर घर में विवाद, चबूतरे का विवाद, कुए का विवाद, आम के पेड़ो के वटवारे का विवाद, हर घर में चलती फौजदारी, नहीं बची आपस के नातेदारी, शहरों ने घेर लिया गाँव, जाने कहाँ गये, आम-महुआ के छाँव, न बचा पनघट, न आती गोरी, अवतो स्कूटी लिए निकलती गाँव की छोरी| बहुत कुछ बदल गया, गाँव अव शहर बन गया|
3 – कागज़ की नाव
कागज़ की नावों पर आज बह रहा समाज| नदियों ने बदल लिया, अपना मिज़ाज| वृक्षों के हालात भी बदले, पत्तियों ने शाख भी बदले, फुल और फलो मे आज होड़ है| कागज़ की नावों पर आज बह रहा समाज, तभी तो लग गयी है, चारों तरफ आग| पानी के बुलबुले सा, आज सुख हुआ है, मानव चकरघिन्नी सा मन की लालसाओं मे फँसा है| दंद-फंद के धागो मे, खुद उलझा दिन-रात, कागज़ की नावों परआज बह रहा समाज|
4 – वाह रे चुनाव
आज कैसा ये उजड़ा शहर, वाह रे चुनाव, तेरा कैसा असर| हवाओं मे आज घुलता मीठा जहर| अपने पराये मे आज बँटते घरौंदे| चेहरे भी रह-रहे, बदले मुखोटे, आज कैसा ये उजड़ा शहर , वाह रे राजा, वाह रे राजनीति, बेटा, बाप को सिखाये नीति, यह है चरित्र की अवनति| मंजिल का जिनको, खुद न पता हो, वे बताते हैं, जनता को रास्ते| वाह रे चुनाव, ये कैसा कहर है, बहरा है राजा, न्याय है अंधा| अब तो लगता नहीं कोई जिन्दा|