1
माँ पत्थर की मूर्त्ति नहीं होती
डरने लगी है वह
पल-पल रोती है
घबराती है
फिर से छिपा लेना चाहती है
अपने जायों को
ममता के गर्भ मे!
2
अधजले मकानों के भीतर से
वीरान सड़क की उजाड़ चुप्पी से
झाँकता है शहर का सच!
चौकता है आदमी
कि क्या पता
वह किसी की — पर खड़ा हो!
3
रोज रात को
मेरी यादों में रोती है कोई औरत
कहती है-बचाओ!बचाओ!!
चौंक कर उठता हूँ मैं
झाँकता हूँ मन की खिड़की से
उस आदिम जंगल को
जो अब मेरा शहर है!
4
किसी से कोई कुछ नहीं बोलता
हर चेहरे की पहचान मिटी हुई
रंग उतरे हुए
खुद में शर्मसार वक्त,
जहाँ रास्ते मिलते हैं और गलियाँ मुड़ती हैं,
सहसा घबरा कर लोग झुका लेते हैं
अपनी आँखें!
5
मेरी स्मृति में है एक भयानक तस्वीर
आँखों के आँसू को चीर कर
गिरती लहू की धार…
भेड़िये रोज नहीं आते आदमी की बस्ती में,
हाँ,जब भी आते हैं कुछ भी नहीं बच पाता है
उनके खूनी पंजों से!
6
स्मृति में चीखती है
अब भी वह रात…
जो कभी नहीं भूलती
नफरत की कोई हद नहीं होती
एक पूरी दुनिया न सही,
एक पूरा गुलशन
जला देते हैं लोग
बगैर यह जाने
कि कितना समय लगता है
बारूद से जली धरती को फिर से हरा होने में!
7
एक दिन
दुख की किसी भी स्मृति को पीछे धकेल
शहर के नामचीन लोग निकालते हैं
रात के अँधेरे में जुलूस/कैंडिल मार्च !
सुबह के अखबारों में पुत जाती है नई  स्याही!
इस तरह तारीख और तवारीख
दोनों बदल जाते हैं!
फिर होता है चुनाव
डाले जाते हैं वोट!
8
एक जंगलाती अतीत है मेरी स्मृति में
जहाँ कबीले में तब्दील हो जाते हैं लोग
वहींं शुरू होते हैं दंगे..
फिर कुछ नहीं होता
दशकों बीतने के बाद भी
हर तरफ प्रार्थना में एक पवित्र किताब
फड़फड़ाती है बेवा यादों की तरह
वक्त के दरवाजे पर उठता है
मीरासी बाजों का शोर!
9
कोई प्रार्थना काम नहीं आती है कहीं भी
न आदमी की दुनिया में
और न जंगल में जानवरों के बीच।
फिर भी मेरे लिए एक उम्मीद की तरह हैं
मेरी कविताएँ
इतिहास लिखे न लिखे,
मैंने लहू से पुते रास्तों को धोने के लिए
बादलों से कहा कि तुम बरसो
फूलों की झुलसी डारों से कहा तुम खिलो
ईश्वर आएँगे तो क्या कहेंगे!
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