आत्मा की कचहरी
मैंने कहा -“ वह मुक़दमा जीत गया ।”
उसने मेरी ओर व्यंग्यमयी नज़र से देखा और बोला -“ उसे जीतना ही था ।”
मैंने कारण पूछा ।
उसने कहा -“ जज भी उसका ,वकील भी उसके ।”
मैंने कहा -“मगर दो -चार सच्चे गवाह भी तो थे ।”
उसने फिर मेरी ओर देखा और मुस्कुराया ।मुझसे प्रश्न किया -“गवाह की क्या अहमियत ? वह भी आज के युग में ?”
मैंने पूछा -“ गवाहों ने कुछ तो कहा होगा ?”
उसने बताया -“ जज ने पहले ही एक -दो गवाहों को खरी -खोटी सुना दी थी ताकि वे उसके विरुद्ध कुछ न कह सकें ।”
मैंने फिर पूछा-“ दूसरे व्यक्ति ने अपना पक्ष रखा होगा ?”
उसने सिर हिलाया -“जज ने उसका पक्ष नहीं सुना ।”
मैंने प्रश्न किया -“ जज ने किसी को जवाब नहीं देना अपने निरपेक्ष होने का ?”
वह गुमसुम-सा बैठा रहा और चलते -चलते बोला -“आत्मा की कचहरी में जवाब देना होगा “
मुखौटा
मैं उसके घर पहुँची।वह उसी मुस्कान से मिली जिससे बरसों से मिलती आई है ।बहुत अपनापन ,बहुत स्नेह ,बहुत आत्मीयता,बहुत प्रेम ।एक हितैषी की तरह उसने बहुत -सी बातें की ।एक हमदर्द की तरह दुःख -सुख पूछे और हमेशा साथ देने का वादा भी किया ।वह बरसों से मेरी मित्र है ।
मैंने उससे अपनी ख़ुशी सांझी करते हुए बताया -“ बेटे की विदेश में नौकरी लग गई है और उसने कार ली है ।”
उसके चेहरे का रंग एकदम बदल गया ।उसपर ईर्ष्या का ज़हर साफ़ दिखाई देने लगा ।अपने भावों को छिपाने का प्रयास करते हुए उसने बस इतना ही कहा -“वहाँ तो सभी कार ले लेते हैं ,किश्तों पर ।मेरे बेटे ने भी ली थी ।”
वह मुबारकबाद देने की शालीनता भी भूल गई थी ।
मैं लौटने लगी तो देखा ।उसके प्रेम -प्यार का मुखौटा एक तरफ़ टूटा पड़ा था ।

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