उछलती,इठलाती भावनाओं के प्रवाह का असीम वेग लिए वो बहती जाती थी। मम्मी पापा की लाड़ली,भाइयों की दुलारी। सुबह से सांझ तक बस गीतों के राग में बहती रहती। माँ समझाती पैरों में नूपुर बाँध संगीत की सरगम पर थिरकना अब छोड़ दे बेटी। वो हँसती खिलखिलाती।  मुझे बंधन में मत बाँधो माँ।
“मैं तितली हूँ, सरगम हूँ साज हूँ । मैं उसके दिल की आवाज हूँ।
मैं सागर की नदी हूँ।
चिर काल तक उसी को चाहूँगी।  माँ मैं अपने सागर में मिल जाऊँगी। “
माँ की आँखों में चिन्ता की लहरें तैर जाती। कब आसान होता है चाहतों का पूरा होना। चाहतों के स्वर में डूबी उसकी भोली बेटी ये कैसा ख्वाब आँखों में पाल रही थी। राह में कितने कंकड़ कितने पर्वत आयेंगे।  कैसे पार करेगी वो ऐसे दुर्गम रास्ते?
तब नदी थी, पर्वत थे,पंछियों के गान थे। तब लड़कियाँ तितली सी उड़ती फिरती थीं। चिड़ियों सी चहचहाती थीं। नदियों सी बहती थी।  गाना नाचना उनका जीवन था। वो चंचल थी अलमस्त सुबह सी भोली। कलियों का राग थी। सुबह के कलरव के साथ उसके गीतों के स्वर गूँज उठते। पापा भाई उस पर बारी बारी जाते।
“एक काजल का टीका लगा दिया करो हमारी लाड़ली को। “माँ सिहर जाती। काजल सी किस्मत न लिखा लाई हो लाड़ली। उसके प्रेम के अस्वाद से माँ डर जाती। वो माँ के डर को परे धकेलती सखी सहेलियों में बैठ दिन रात सागर की बातों में डूबी रहती।
वो चंचल थी नादान थी, बाँसुरी की तान थी। हवा का झोंका थी। लहरों की रूनझुन थी। बादलों का गुबार थी। कलियों सी गुँथी थी। भंवरों का गुंजन थी। प्रेम से बनी थी, प्रेम में पली थी वो लहरों की सहेली,लहरों से बुनी थी।  वो सागर की नदी थी।
उसकी आँखों ने भी चुन लिया था प्रेम। सपनीला प्रेम, लजीला प्रेम।
प्रेम के कितने रुप होते हैं। आँखों की परतों में समाता झीना सा प्रेम।  रातों को जगाता मीठा सा प्रेम। समुद्र से सीपियाँ चुराता भोला सा प्रेम। उछलती बारिश की बूँदों को हथेलियों में सहेजता प्रेम। वो प्रेम की अनुभूति थी। चंचल उन्मुक्त बादलों के पार उड़ने को बेकरार।
वो निर्वाध गति से बहती जा रही थी। सखी सहेलियाँ हर रोज आ बैठ जाती पर्वत किनारे और सुना डालती रत्नाकर के अनगिनत किस्से। कितना विशाल ह्रदय है उसका। उसकी गोद में सैकड़ों रत्न हैं। बड़ी बड़ी मछलियाँ वहाँ इठलाती हैं। अनगिनत सीपियों ,शंखों को दामन में थामे हुए भी एकदम शान्त रहता है। कितने ही जीव उसके ह्रदय में पनाह पाते हैं लेकिन वो तो अपनी नदियों के लिए बेकरार रहता है। किस्से कहानियों में सागर की बातें सुन वो हर रात उसके सपने देखती। वो देखती सागर और उसकी बाँहों में सिमटी वो खुद।
लहरों के दुपट्टे को उंगलियों में लपेटती वो खुद से ही बातें करने लगती। चाँद रात है और खिड़की पर लटकता मेरा मन।  तुम आओ और उतार लाओ इसे आसमान की खूंटी से। पास बैठ कर बनायें हम प्रेम के निशान एक दूसरे के दिल पर। पर इतनी दूूर कैसे पहुँच पाती उसकी आवाज।
उच्चश्रंखल, चंचल नदी अब सूखने लगी। माँ ने उसका पीला पड़ता चेहरा देखा। वो न अब गाती थी न नाचती थी। माँ घबरा गई।  यह कैसा रोग लगा लिया उसकी बेटी ने?अनजाने अनदेखे की चाह ने उसकी लाड़ली के पर भिगो दिये। नदी अब बहती नहीं थी। मन में अनजाने ही उदासियों ने डेरा जमा लिया। वो सोचती रह जाती पर कारन न ढूँढ पाती। एक गहन उदासी ने खुद को ओढ़ लिया।  एक निसीम चुप्पी धरा पर पसर गई। कलकल के स्वर ठंडे पड़ गये। उसमें रहने वाली छोटी मछलियाँ,नन्हें जीव घबरा गये।  माँ उस को समझाती,तेरी नियति सागर में मिल जाना ही नहीं है। अपना अस्तित्व तलाश बेटी। प्रेम में डूबे पंछी कब अपना अस्तित्व तलाशते हैं। उसने भी दिमाग को परे ढकेल दिया। माँ की बातों को पल्लू में बाँध पानी में उछाल दिया। मछलियों की मनुहार और अपने दिल के तारों के राग पर वो वो चल दी अपने सागर में समाने। वो बरसात की एक सुहानी सुबह थी।  तेज बारिश का सिलसिला समेट अब बादलों ने तेज रिमझिम की ठान ली। नन्हीं नन्हीं बूँदों से हँसी ठिठोली करती घर से चुपचाप निकल वो चल पडी़। रास्ता बहुत लम्बा और दुर्गम था। मैदान में बहते काले पानी से बचते बचाते वो पहाड़ो की ऊँचाई को चूमने निकली थी। पत्थरों से कितनी बार उसका शरीर लहुलुहान हुआ। न जाने कितनी लम्बी दूरी तय करनी थी। वो कितनी ही बार मायूस हो जाती फिर सागर की बाँहों की चाह एक नई राह दिखा देती और वो फिर चल देती दुगने उत्साह से।
दुर्गम पथरीले पहाड़ों पर उसके पैर रिस रहे थे। उधर माँ रो रही थी। भाई परेशान था। सुबह का उजाला फैल रहा था मगर उनके दिलों में अँधेरा था। सखियाँ चुपचाप नजर नीची करके खड़ी थीं।  न जाने कहाँ होगी उसकी मासूम प्रिय सखी।  भाई ने तलाश में सूर्य के सातों घोड़े दौड़ा दिए।
अपनी तलाश में सूर्य के सातों घोड़ों को देख वो छुप गई। राह में कितनी भी दुश्वारियां हो वो अपने सागर के पास जा कर ही रहेगी।
सूर्य का सातों रश्मियाँ डूबने लगीं। चाँद रोने लगा, तारे मद्धिम हो गये, चाँदनी छिटक गई।  रात की रानी मुरझा गई पर वो न आई।
भाई थक कर बैठ गया। माँ रो रोकर उसके वापस आने की दुआएँ करती। पिता गुमसुम हो गए।  वो जो गई तो फिर न लौटी।
समय के तंतु बढ़ते रहे। एक युग बीत चला। चलते चलते उसके पैरों में छाले पड़ गये। वो मीलों की दूरी तय कर आई थी। न जाने सागर अभी कितनी दूर था। नन्हें पैरों में काँटे चुभ गये थे। उसकी आँखों से आँसुओं का रेला शुरू हो जाता। कितनी चुप चुप हो गई थी ये धरा। कितना सूना था गगन।
वो बहती जा रही थी बस बहती जा रही थी। न जाने कब मिलेगी अपने सागर में। कितने ही दिन बीत गये उसे घर से चले। माँ पापा भाई,सखियाँ सभी बहुत याद आते थे। उदासी चेहरे पर अपना कब्जा जमाती पर अगले की पल सागर से मिलन की चाह में वो मगन वो फिर चल देती। वो चली जा रही थी अनजानी राहों पर कि पानी का एक अबाध सोता उसके पास बहता हुआ चला आया। कल कल बहता शीतल जल। उसको देख नदी की चंचलता वापस आ गई। आस पास की जमीन पर हरियाली छा गई।  पेड़ पत्ते झूमने लगे। फूलों ने धरा का श्रंगार कर दिया। नदी ने अब गाना नाचना फिर शुरू कर दिया। प्रेम को जीवन मान उसने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। नदी पानी के सोते में घुल मिल गई। चकोर चाँद की परछाईं तक रहा था। दिन बीते, साल बीते।  नदी सबको भूल गई। सखी सहेलियाँ अब बीते दिनों की बातें थीं। उस बरस खूब बारिश हुई। नदी का प्रेम उफन उफन कर आ रहा था।  नन्हें तालाब भी भर गये। तलैयों में भी पानी का प्रवाह जोरों पर था। पानी का सोता उस ओर मुड़ गया। नदी सूखने लगी। धरती का श्रंगार मुरझा गया। फूलों ने हँसना बंद कर दिया। तितलियों उड़ना भूल गईं। पानी को सोता तालों के ठहरे हुये पानी में जा मिला। नदी ने नाले को सागर समझने की भूल कर डाली। नदी अब दिन रात रोती। नदी के मम्मी पापा भाई सब उसको हर दिन याद करके आँसू बहाते रहते। एक दिन दूर देस से बहती हुई हवा आई उनकी लाड़ली की उदासियों का संदेसा लेकर। मम्मी पापा भाई सब भागे अपनी लाड़ली के पास। बहुत देर हो चुकी थी। नदी बस एक पतली धारा सी रह गई थी। तभी से उनमुक्त चंचल धारा दो किनारों में बँध गई। और तब से आज तक बँधी ही चली आ रही है।

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