दूर, झुरमुट के बीच में जो खण्डहर दिखाई दे रहा है न, असल में वो खन्डहर नहीं है. पुरानी हवेली है. लेकिन लोग उसे खण्डहर ही कहते हैं. हवेली यानि बड़ा सा घर. बड़ा  सा बंगला. बहुत पुराना बंगला. लेकिन हमें इसे हवेली ही कहना है. आज फ़्लैट्स, मल्टी स्टोरीज़,  अधिक से अधिक डूप्लैक्स के ज़माने में इतने बड़े स्वतंत्र बंगले को हवेली ही कहा जाना चाहिये. और फिर कहा जाना चाहिये या नहीं इस बहस में हमें पड़ना ही नहीं है. पड़ने की ज़रूरत भी नहीं है. चूंकि इस खंडहर यानि हवेली में रहने वाले इसे हमेशा से हवेली कहते आये हैं सो हमें भी हवेली ही कहना होगा,  बिना किसी विवाद के.
तो साब ये जो खंडहर सी हवेली दिखाई दे रही है न, असल में ये खंडहर नहीं है. ये तो बस दूर से ऐसी दिखाई देती है. पास जाने पर इसके एक हिस्से में जीवन के लक्षण भी दिखाई देते हैं.  लेकिन केवल बाहर सूखते कपड़ों तक. या फिर  अखबार फ़ेंकते हॉकर तक. कभी-कभी एक छोटी वैन भी यहां आती है. असल में ये हवेली आम रिहायशी इलाके से इतना अलग हट के है, कि यहां कब क्या हो रहा, कौन आ-जा रहा कुछ पता ही नहीं चलता. बस भांय-भांय करता खंडहर ही दिखाई देता है. अपने इसी खंडहरपने के कारण इस हवेली का उपयोग केवल बच्चों को डराने, औरतों में दहशत फैलाने के लिये होता है. पूरे इलाके, अजी इलाके क्या पूरे शहर में इसे भुतहा हवेली के नाम से जाना जाता है. अब आप कहेंगे पूरे शहर में? ऐसा कैसे सम्भव है? तो हम कहेंगे कि साब, ये शहर है ही कितना बड़ा? इस हवेली के पूरब की ओर चार किलोमीटर, पश्चिम की ओर भी चार ही मान लीजिये, उत्तर की ओर तो दो किलोमीटर भी काफ़ी होगा और दक्षिण तो पक्का ढ़ाई किलोमीटर पर खत्म है. अब इत्ते नाप जोख वाले शहर को आप बड़ा कहेंगे क्या? अब तो आप इसे शायद कस्बा ही कह दें . लेकिन ये कस्बे से ऊपर की चीज़ है साब. बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरियां हैं, बड़ा सा रेल्वे जंक्शन है, मार्केट तो बहुत ही बड़ा है. लभगभ आधा शहर केवल मार्केट में तब्दील हो चुका है. तीन इंजीनियरिंग कॉलेज हैं, डिग्री कॉलेज, पीजी कॉलेज सब तो है इतने ही दायरे में सो एक छोटा शहर कहलाने की हैसियत तो रखता है भाई.
हां तो बात हवेली की हो रही थी. वैसे यदि यहां के लोगों की चर्चा नहीं की, तो आप कई जगह सवाल कर सकते हैं, आप कोई सवाल न करें, इसके लिये जरूरी है यहां के लोगों को जानना. अब लोगों का क्या कहें साब. अधशहर के लोगों की जैसी मानसिकता होती है वैसी ही है. आपके माथे पर बल क्यों पड़ गये? ओहो….. आप ’अधशहर’ में अटके हैं न? अरे भाई ये मैने अधकचरे की तर्ज़ पर ईज़ाद किया है. नया शब्द है, धीरे-धीरे चलन में आ जायेगा. वैसे भी छोटे शहरों में कोई भी नया शब्द बड़ी जल्दी चलन में आ जाता है. ठीक उसी तरह जैसे कोई भी बात तेज़ी से एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच जाती है.  और कोई  राज़फ़ाश करने वाली बात हुई, ऐसी बात जिसे किसी ने न बताने की हिदायत के साथ किसी के कान में बताया हो, उसे तो पर लग जाते हैं. पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक, ऐसी तेज़ी से पहुंचती है, कि राज़ बताने वाला पहला व्यक्ति अवाक हो जाता है इस त्वरित फ़ैलाइश पर. और मन ही मन खुश भी कि अपने उद्देश्य में कितनी जल्दी सफल हुआ वो. अरे भई अब फ़ैलाइश पर भृकुटि न सिकोड़िये. मेरी आदत तो  आप भी जान ही गये होंगे न? ये फिर वही है, नया प्रयोग. आजमाइश की तर्ज़ पर फैलाइश बनाया है भाई. आखिर शब्दकोष को समृद्ध करने की ज़िम्मेदारी भी तो हम और आप पर ही है न. लो जी… बात कर रहे थे लोगों की, और कहने लगे कुछ और. विषयान्तर की बड़ी बुरी लत है मुझे. अब क्या करें? होती है साब सबको कोई न कोई लत. हमें भी है विषयान्तर की.
लोगों का वर्णन फिर रह जाये उससे पहले झट से सुन ही लीजिये. यहां के लोग तीन की तेरह करने वाले लोग हैं. आप एक कहेंगे, लोग ग्यारह बनायेंगे. कभी-कभी लगता है कि ऐसी स्पीड से बैंक में रखा पैसा बढ़ता तो वारे-न्यारे हो जाते अपन के.  किसी अलाने ने यदि बताया कि फलां लड़की रोज़ बहुत देर से लौटती है घर, तो पक्का मानिये कि अब सुनने वाला फलाने, उस लड़की का पूरा चरित्र चित्रण पेश कर देगा, अगले के सामने , वो भी  उसके पूरे खानदान सहित. फलाने से सुने गये चरित्र चित्रण को कुछ और रहस्यमयी बनायेगा सुनने वाला अगला. और फिर ये खबर पूरे शहर में उसी तेज़ी से पहुंच जायेगी जैसी अभी मैने बतायी थी. तो साब जितना छोटा शहर है, उतनी ही छोटी मानसिकता के लोग हैं यहां. हर अगले व्यक्ति के लिये उल्टा सोचने वाले, हर बात में नुक्स निकालने वाले, हर काम को ग़लत और व्यक्ति को नाज़ायाज ठहराने वाले. ऐसे उड़न छू शहर में हवेली की कितनी कहानियां गढी गयी होंगीं आप समझ सकते हैं न? उस पर भी तब, जबकि हवेली का कोई व्यक्ति दिखाई ही न देता हो. लोगों ने तमाम अनदेखे , काल्पनिक चरित्र गढ़ लिये हैं. कोई कहता इस हवेली में भूतों का डेरा है, तो कोई कहता यहां धंधा करवाया जाता है. ’धंधा’ तो समझे न आप? अरे वही  जिसे बोलते हुए लोग एक आंख दबा के बोलते हैं. अब समझे न आप?  कोई कहता नशीले पदार्थ बेचने का अड्डा बन गयी है ये हवेली तो कोई  सारी बातों को नकार देता.
हवेली के बारे में इतनी अफ़वाहें और कहानियां गढ़ ली गयी थीं, कि अब उसका कोई खरीददार भी नहीं मिलता था. मालिकों ने उसे यूं ही खंडहर होने के लिये छोड़ दिया था  शायद. सोचा होगा, कि इतनी बड़ी हवेली को तुड़वाने में ही लाखों खर्च हो जायेंगे, सो बेहतर है अपने आप ही खत्म हो. जैसे किसी बेसहारे बूढ़े को अपने आप मरने के लिये छोड़ दिया जाता है.
हवेली को ले के जिज्ञासा तो मेरे मन में भी उठती थी, लेकिन मैं उसे दबा देता था कि फ़िजूल टाइम खोटी नईं करने का. इत्ता टाइम न है अपन के पास कि हवेली की चिंता करते बैठे रहें. वैसे भी अलाने, फलाने, ढ़िमाके सब कुछ न कुछ बता ही जाते थे. अपनी पैनी निगाहें भी रक्खे ही थे तो अपन को कायको परेशान होना? है कि नईं? वैसे इन सबकी पैनी निगाहें हवेली के मामले में भोथरी ही साबित हो रही थीं.  सो इनकी खिसियाहट भी जायज़ थी.
गरमी की उस भीषण तपती दोपहर में, जबकि पूरे इलाके  में सन्नाटा पसरा था, हर घर के  खिड़की दरवाज़े लू-लपट से बचने के लिये सख्ती से बन्द थे, ऐसी झुलसती दोपहर में , लू के थपेड़ों से बेपरवाह एक गेरुआ वस्त्रधारी युवा, जिसे साधु कहना चाहिये, क्योंकि  हमारे देश में हर गेरुआ वस्त्रधारी को साधु ही कहा जाता है, सड़क किनारे लगे हैंड पम्प से पानी लेने आया.  अब आप कहेंगे कि जब सबके दरवाज़े-खिड़कियां बन्द थे, तो मुझे कैसे पता चला उस साधु का वहां आना? तो भैया, ये तो आप भी जानते हैं कि हर मोहल्ले में चंद खोजी तत्व होते ही हैं. ऐसे खोजी तत्व, जो गुम्म-सुम्म दोपहर में भी  बन्द  खिड़की की पतली दरार में से बाहर की टोह लेते रहते हैं. ऐसे तत्वों को पूरा अन्देशा होता है कि ग़लत काम करने वाले इस सन्नाटे का फ़ायदा जरूर उठायेंगे. सो उनकी टोही नज़रें गरम हवा से बहने वाले आंसुओं की परवाह किये बिना, अपनी दोपहर की नींद हराम कर, बाहर लगी रहतीं हैं.
तो साब, उस साधु ने इत्मीनान से हैंड पम्प चलाया, रात भर पानी उगलने वाले इस हैंड पम्प को दोपहर में ही कुछ राहत मिलती है. कारण, एक तो कड़ी लू-धूप उस पर दोपहर में पानी का जल स्तर बहुत नीचे चला जाना. खैर.. हम बात साधु की कर रहे थे तो  उस साधु दिखने वाले युवक ने  अपने पीले रंग के प्लास्टिक के बड़े से डिब्बे में पानी भरा और धीरे-धीरे हवेली की ओर जा के झुरमुट में गुम हो गया. गप्पू की अम्मा, जो आज खाना खा के ज़रा देर आराम करने का मन बनाये थीं, हैंड पम्प की चीं-चां, चीं-चां सुन के उठ बैठीं. दौड़ के खिड़की की झिरी पर पहुंचीं, तो कुछ दिखाई न दिया, तुरत-फुरत उन्होंने खिड़की खोल डाली, तो सामने के मैदान से जो पगडंडी हवेली की तरफ़ गयी है, उस पर पीला डब्बा लिये साधु की पीठ दिखाई दी उन्हें. हें!! जे साधु कहां से आया??? मन्दिर में न तो भागवत चल रही न ही कोई और अनुष्ठान! फिर?? और अगर मन्दिर में ही आया होता तो यहां हैंड पम्प पर पानी लेने क्यों आता? वहां तो ट्यूब वेल है सो इफ़रात पानी है. उस पर भी ये कि पानी ले के साधु हवेली की तरफ़ क्यों जा रहा?  साधु तो साधु है हवेली वालों का नौकर तो है नहीं जो उनके लिये पानी ढोये!! तमाम सवाल गप्पू की अम्मा के ज़ेहन में तैरने लगे. खुराफ़ाती दिमाग़ पता नहीं कितनी कहानियां गढ गया. घड़ी देखी, अभी तो केवल साढे तीन बजे हैं. पड़ोसिनों की मजलिस तो छह बजे के बाद जुटती है , मन्दिर के चबूतरे पर. अब क्या हो? कैसे कटें ये ढाई घंटे?  आराम हराम हो गया गप्पू की अम्मा का.
                                                                                               किसी प्रकार घड़ी ने छह बजाये. गप्पू की अम्मा फुर्ती से पड़ोस में पहुंची. फिर अगले घर में फिर उसके भी अगले घर में. आज वे मजलिस जुटने का इन्तज़ार नहीं कर सकती थीं. थोड़ी ही देर में पूरे मोहल्ले में साधु की चर्चा हो रही थी. जाते हुए साधु का केवल पिछवाड़ा देखने वाली गप्पू की अम्मा ने जो नमक मिर्च लगा के बताया सो बताया, अगले सुनने वाले और अगलों तक इस बात को खूब मसालेदार बना के पेश कर रहे थे. चबूतरे पर मजलिस जुटने के बाद तय किया गया कि कैसे भी पता लगाना होगा कि ये साधु हवेली में ही रहता है क्या? क्या करता है? कहां से आया? हवेली में आखिर कैसे रहने लगा?
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“ कौन है बे? किससे बातें कर रहा लालू? “
“ दो लड़के आये हैं भैया. पूछ रहे महाराज हैं क्या?”
“महाराज!!!!! कौन महाराज?  जा कह दे यहां कोई महाराज नहीं रहते. “
“अबे रुक लालू… क्या पूछ रहे, महाराज?”
“हां भैया.”
“जा कह दे, महाराज अभी ध्यान कर रहे.”
 साधु यानि सत्यम का दिमाग तुरन्त चलने लगा था. समझ गया कि उस दोपहर जरूर किसी ने उसे पीली धोती पहन के पानी लाते देखा है. लालू  कुछ समझा, कुछ नहीं.  हवेली के बचे-खुचे हिस्से  की देख-रेख के लिये यहां रह रहे चौकीदार  ’तिवारी’ ने  गांव जाने के पहले  अपने भतीजे को यहां बुलाया था और खुद अपने गांव गया था, तीन चार महीनों के लिये. यही समय तो कटाई और फिर बारिश के बाद बुवाई का होता है, सो तिवारी अब अगस्त में ही लौटने वाला था.  भतीजा अपने साथ एक नौकरनुमा दोस्त भी ले आया था कि इत्ती बड़ी भुतहा हवेली में वो अकेला कैसे रहेगा? हवेली के कुंऎ का पानी बहुत नीचे चला गया था, देर सबेर नहाने वाले सत्यम  को अध नहाये ही पानी लेने निकलना पड़ा. पिताजी की पीली थोती और पीला गमछा जो उन्होंने मन्दिर में हो रहे किसी महायज्ञ के लिये खरीदे थे, सामने ही टंगे दिखे, सो उन्हें ही बदन और सिर पर लपेट के चल दिया था पानी लेने . अब बस्ती से आये  दो लड़कों द्वारा दिया गया “महाराज” सम्बोधन इस बेरोजगार युवक को भा गया.  आनन-फानन लालू  को उसने विश्वास में लिया. एक त्रिशूल और चिमटे का इंतज़ाम रातोंरात किया गया. ये इंतज़ाम बहुत मुश्किल नहीं था क्योंकि सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे कहीं भी शिव जी को बिठा देने की परम्परा है हमारे यहां. एक गोल बटइया को कहीं भी स्थापित किया जाता है, सामने त्रिशूल गाड़ दिया जाता है. बस हो गया शिव मन्दिर. सो त्रिशूल का मिलना मुश्किल नहीं था. चिमटा जरूर उन्हें दुकान से जुगाड़ना पड़ा.
अगले  दो दिन बाद ही,  हवेली की हवा बदली हुई थी. नज़ारा बदला हुआ था. हवेली के ढहते बरामदे के बीचोंबीच पुरानी ईंटों, जिनकी हवेली में कोई कमी न थी, और मिट्टी से हवन कुंड तैयार किया गया. हवन कुंड के सामने त्रिशूल गाड़ दिया गया. इस त्रिशूल पर मातारानी के रंग-बिरंगे कपड़े बंधे थे. हवन कुंड में सूखे गोबर को जला के इस आग में नये चिमटे  को तपा के पुराना किया जा रहा था. हवन कुंड के सामने ही एक पुरानी चटाई बिछी थी. बरामदे की दीवार पर ’ओम’, स्वस्तिक, और त्रिशूल के चित्र गेरू और गोबर मिला के बना दिये गये थे. कुल मिला के साधुई माहौल पैदा हो गया था. लालू  को हिदायत दी गयी थी कि कोई भी महाराज को पूछे तो बताया जाये कि महाराज एक महीने के एकान्तवास में हैं. असल में में सत्यम चाहता था कि उसकी दाढ़ी मूंछ ज़रा सम्मानजनक बढ़त पा जाये तो लोगों को दर्शन दिये जायें.
                                                           सुबह घंटा-घड़ियाल के अभाव में लालू  ने थाली ही बजानी शुरु कर दी. सबेरे-सबेरे क्रिकेट खेलने पहुंचे लड़कों ने भी आवाज़ें सुनी. हवेली की ओर से केवल  सन्नाटा सुनने वाले लड़कों को ये थाली बजाने की आवाज़ें हवेली तक खींच ले गयीं. लालू  यही तो चाहता था. सामने त्रिशूल, हवन कुंड, उसमें जलती आग, सिंदूर सब देख के लड़कों की बोलती बन्द हो गयी. लालू  ने जब थाली बजाना बन्द कर दिया तब लड़कों ने हथेली की चार उंगलियों को अंगूठे की तरफ़ बायें से दांये घुमाते हुए “ यहां क्या हो रहा है?” का इशारा किया. लालू  ने भी चुप रहने का इशारा किया. और कुछ इस तरह दबे पांव , लभगभ पंजे की उंगलियों पर चलता बच्चों को एक ओर ले गया, जैसे किसी के ध्यान में खलल न डालना चाहता हो. लड़कों को इन पहुंचे हुए संत/महाराज की जानकारी हो चुकी थी. वे कितने बड़े बाल ब्रह्मचारी हैं, ये लालू  ने हाथ को आसमान की तरफ़ पूरी ऊंचाई तक तानते हुए बता दिया था. कितने सिद्ध हैं ये भी त्रिशूल की तरफ़ इशारा कर बताया गया. बताया तो ये भी गया कि महाराज अभी एक महीने के एकान्तवास में हैं. रमता जोगी, बहता पानी हैं महाराज… हिमालय से आये हैं. ये स्थान उन्हें अच्छा लगा सो अपनी यात्रा यहां रोक दी. कितने दिनों के लिये, ये नहीं पता. महाराज की चरण रज अब यहां के लोगों को मिलेगी, ये तुम सब का सौभाग्य है. और ये भी कि  जब ये कल्प टूटेगा तब यहां भजन कीर्तन होगा. लालू  को ये कहने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि अपनी-अपनी मम्मियों को बता देना.
पूरा मोहल्ला अब एक महीना पूरा होने के इंतज़ार में था. बल्कि कुछ पुरुष, पुरुष इसलिये क्योंकि इस हवेली के बारे में जितनी तरह की कहानियां प्रचारित की गयी थीं, उनके चलते महिलाओं की हिम्मत, एकदम से अकेले पहुंच जाने की न थी. सो पुरुषों को भेजा गया. कुछ उत्साही  पुरुष पहुंचे भी. हवेली की टोह ली. बरामदे का शृंगार देखा. लालू  की ध्यान मुद्रा देखी, और तब तक चटाई  पर बैठे रहे, जब तक लालू  महाराज ने आंखें न खोल दीं. लालू महाराज भी इस नये काम को बड़ी दक्षता के साथ निभा रहे थे. लोगों को बैठा देख, होंठों  पर उंगली रख के चुप रहने का इशारा किया, सामने के बंद दरवाज़े की ओर इशारा किया, और इशारे में ही बताया कि इस बन्द कमरे में महाराज यानि बाल ब्रह्मचारी सत्यानन्द जी महाराज तपस्यारत हैं. फिर उठे और हवन कुंड की राख से सबको टीका लगाया, छोटे से लोटे में रखा चरणामृत सबको दिया. लोगों ने पूरी श्रद्धा के साथ जल को बायीं हथेली पर दांयीं हथेली रख, ओक बना के लिया और हाथों को माथे से छुआ के ग्रहण किया. भक्ति का माहौल तैयार हो चुका था.
पहले दिन जहां तीन पुरुष गये थे, वहीं दूसरे दिन छह और तीसरे दिन दस लोग गये. संख्या बढते ही लोगों ने भजन कीर्तन शुरु कर दिया. एक महोदय अपने घर से ढोलक ले आये तो दूसरे हारमोनियम. तीसरे ने मंजीरे जुगाड़ने का जिम्मा लिया. ताली बजाने को बच्चे भी जुटने लगे थे.  शामें  अब भक्तिमय होने लगीं. महिलायें,  महाराज की तपस्या भंग होने के इंतज़ार में थीं.
आखिर वो दिन भी आ ही गया. एक दिन पहले लालू महाराज द्वारा घोषणा की गयी कि महाराज कल एकान्तवास से बाहर आयेंगे और शाम सात बजे दर्शन देंगे.
अगले दिन पुरुष/महिलाओं/बच्चों का अपार जन समूह भुतहा हवेली के प्रांगण में इकट्ठा था. लोग अपनी दरियां, चटाइयां खुद ही ले के आये थे क्योंकि बाल ब्रह्मचारी सत्यानन्द जी महाराज कोई भी सामान इकट्ठा करने का आडम्बर नहीं करते.
ढोल-मंजीरे बज रहे हैं. हारमोनियम पर ’शिव बोल मेरी रसना घड़ी-घड़ी’ की धुन निकाली जा रही है. ढोलक की थाप सम पर आते ही भजन शुरु हो गया है. तभी बन्द दरवाज़ा खुलने की आहट हुई. ढोलक बन्द कर दिया गया है. मंजीरे भी थम गये हैं. हार्मोनियम पर केवल उंगलियां पड़ी हैं. बरामदे की तरफ़ से ज़ोरदार नारा गूंजा-
“बाल ब्रह्मचारी स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की…”
जय हो….. जय हो…. जय हो….
पूरा जन समुदाय जयकारे में डूब गया है. स्वामी जी का इतिहास, उनका महात्म्य जाने बिना जयकारे लग रहे हैं. लोग श्रद्धा से सिर झुका रहे हैं. स्वामी जी आशीर्वाद की मुद्रा में मुस्कुराते खड़े हैं. गेरुआ वस्त्र, माथे पर चन्दन का लेप, उस पर बना त्रिपुंड, हाथ में एक दंड, जिसे लोगों के सिर पर आशीर्वाद स्वरूप वे छुआ रहे हैं. जिन्हें उस दण्ड का प्रसाद मिल गया है वे अभिभूत हैं. अपने सारे कष्ट दूर जान पड़ रहे हैं उन्हें. लोगों को जैसे खेवनहार मिल गया. ढोलक पर ज़ोरदार थाप के साथ ही भजन फिर शुरु हो गया है. सब झूम रहे हैं. ताली बजा-बजा के गा रहे हैं और स्वामी जी मुस्कुराते हुए सबको आशीर्वाद देते जा रहे हैं…..
अब महाराज हवन कुंड के सामने रखे आसन पर विराजमान हो गये हैं. लोग उनके सामने भक्ति भाव से हाथ जोड़े बैठे हैं, कि शायद अब महाराज प्रवचन की रसधार बहायेंगे. लेकिन तभी लालू  ने घोषणा की कि –“एक महीने के मौन के बाद महाराज आज ही बाहर निकले हैं, सो फिलहाल एक हफ़्ते तक कोई प्रवचन न होगा. एक महीने तक निराहार, केवल पांच तुलसीदल ग्रहण करके उन्होंने अपनी तपस्या पूरी की है, सो अब उनका  अगला हफ़्ता केवल फलाहार  पर निकलेगा. वैसे भी ब्रह्मचारी जी की निगाहों में ही असीम ताकत है. वे आमतौर पर प्रवचन करते भी नहीं. कभी कभार ही किसी विषय पर  बोलते हैं.”
उपस्थित जनों ने लालू, जो अब ललितेश्वर थे, की  इस बात को भी पूरे श्रद्धा भाव से ग्रहण किया और महाराज के न बोलने को सौ प्रतिशत जायज़ ठहराते हुए जाने को तत्पर हुए.  जाते हुए लोग महाराज के चरणों पर  अपनी सामर्थ्य के अनुसार  पैसा चढा रहे हैं. दस रुपये, बीस रुपये पचास रुपये. सौ का नोट अभी नहीं दिखा. शायद कुछ दिनों बाद दिखे.
                                        डर के मारे रात को हवेली की तरफ़ नज़र भी न उठाने वाली महिलाएं अब रात के दस बजे, हवेली से निर्भय हो के लौट रही थीं. पुरुष बहुत संतुष्ट नहीं दिखे, लेकिन कुछ पुरुषों के चेहरे भी अपार श्रद्धा से  भरे दिखाई दिये. अगली शाम से ही अब  महिलाएं अधिक और पुरुष कम हो गये थे, लेकिन फिर भी दोनों की संख्या में बहुत अन्तर नहीं था. ये अलग बात है कि नौकरी-चाकरी के कारण पुरुष शाम को नियमित नहीं पहुंच सकते थे जबकि घरेलू महिलाओं के साथ ऐसी कोई दिक्कत न थी.  महाराज हफ़्ते भर फल-फूल पर रहेंगे, सो महिलाओं के हाथों में अब फल दिखाई देते चढावे में. संतरा, सेब, अंगूर, खरबूज जैसे मौसमी फलों का ढेर लग जाता. महाराज और उनके शिष्य सचमुच फलाहार पर उतर आये थे. आखिर पहली बार इतने फल एक साथ मिले थे उन्हें.
मन्दिर के चबूतरे पर मजलिस लगाने वाली महिलाओं को नयी जगह मिल गयी थी वो भी सालों से वर्जित स्थान. वर्जित फल खाने का मज़ा ही कुछ और होता है. महिलाएं अब हवेली के ढहे हुए हिस्सों का निरीक्षण भी करने लगीं थीं. महाराज कभी-कभार  बोल के आशीर्वाद देने लगे थे अब. कभी न बोलने वाले महाराज जब किसी को ’सौभाग्यवती भव’ कहते तो उस औरत के चारों ओर सौभाग्य नाचने लगता . दूसरी औरतें ईर्ष्या से उसे देखतीं.
किसी की ओर नज़र भी न उठा के देखने वाले महाराज को पूरे मोहल्ले के लोगों ने अघोषित चरित्र प्रमाण पत्र दे दिया था, वो भी “ वेरी गुड” टीप के साथ. ख्याति दूसरे मोहल्लों तक भी पहुंचने लगी थी. इसलिये भी, क्योंकि ये पूरा सरंजाम उस हवेली में हो रहा था जो अपने भुतहापने के कारण पहले ही ख्यात थी. लोग दर्शन करने आते थे उस बाल ब्रह्मचारी के, जो फिलहाल मौन धारण किये है. जो केवल  फलाहार पर रहता है इन दिनों. अद्भुत तपस्वी है. जो मुख से बोल दे, पूरा हुआ समझो. बीमार पर हाथ रख दे, तो ठीक हुआ समझो. सावित्री वाली घटना पूरे में फैल गयी थी. कई दिनों से सावित्री , अरे वही प्रेमप्रकाश की बीवी , बुखार आ रहा था उसे, अभी चार दिन पहले महाराज जी ने उसके सिर पर हाथ रखा, और थोड़ी देर में ही सावित्री को लगने लगा कि उसकी तबियत ठीक हो रही है. दो दिन बाद तो सचमुच ही उसका बुखार गायब हो गया था. तब से लोग बीमारों को लेकर आ रहे हैं महाराज के पास. लेकिन महाराज सबके सिर पर हाथ नहीं रखते. सिद्ध महाराज हैं न. भगवान का आदेश मानते हैं. जिस के लिये उन्हें ऊपर से आदेश मिलता है उसी के सिर पर हाथ रखते हैं.
हवेली गुलज़ार हो रही थी…..
आज महाराज को फलाहार छोड़ भोजन करना था. ललितेश्वर महाराज पहले ही सबको बता चुके थे कि महाराज जिसके सिर पर हाथ रख देंगे, वही उनकी रसोई बनायेगा. औरतों में ग़ज़ब खलबली थी. सब चाहती थीं, कि महाराज उनके सिर पर हाथ रखें. शाम पांच बजे से ही हवेली का बरामदा भरने लगा था. रात को महाराज भोजन करेंगे. छह बजे महाराज ने दर्शन दिये.
बोलो  बाल ब्रह्मचारी सत्यानन्द जी महाराज की…
जय   जय   जय
“शिव बोल मेरी रसना
घड़ी घड़ी….. घड़ी घड़ी……घड़ी घड़ी….
कीर्तन चरम पर है. महिलाएं झूम रही हैं. पुरुष भजन में स्वर को ऊंचा और ऊंचा उठाने की होड़ में हैं.
ललितेश्वर महाराज ने हाथ उठाया और कीर्तन बन्द हो गया. अब प्रणाम और प्रसाद वितरण. प्रणाम के दौरान चरण स्पर्श करती महिलाओं में से महाराज ने एक बुज़ुर्ग महिला के सिर पर हाथ रखा है. पूरा भक्त समुदाय प्रसन्न है. महाराज की युवावस्था को लेकर उन पर शक़ करने वालों की सोच पर ताला पड़ गया जैसे.  महाराज कितने पवित्र हैं!  चाहते तो किसी युवा स्त्री के सिर पर हाथ रख सकते थे. अब है शक़ करने जैसा कोई कारण?  जैसा कि आजकल के तमाम बाबाओं के बारे में सुनने को मिल रहा है, ये  महाराज उन सबसे एकदम अलग हैं. कृत-कृत्य हुए लोग घर की तरफ़ जा रहे हैं. बुज़ुर्ग महिला को हवेली में ही रुकना है भोजन बनाने तक. दूसरी औरतें उस बुज़ुर्ग महिला को हसरत से देखते हुए वापस लौट रही हैं.
लग रहा था जैसे सारा पुण्य , आज उस बुज़ुर्ग महिला के खाते में जमा होने वाला है…. पाप और पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाली महिलाओं का जत्था अतृप्त सा लौट रहा था.
अगले दिन फिर एक प्रौढ महिला के सिर पर हाथ रखा…
उसके अगले दिन फिर बुज़ुर्ग महिला के सिर पर….
लेकिन  पांच दिन बाद एक युवा महिला के सिर पर हाथ पड़ा.  उस युवा औरत का पति भी बाहर बरामदे में बैठा है. महाराज कमरे में बन्द हो गये हैं. ललितेश्वर महिला की मदद के लिये उपस्थित हैं. महाराज के कमरे में बंद  होते ही पति निश्चिन्त हुआ है.
अगले दिन महाराज आंख मूंद के सिर पर हाथ रखेंगे ताकि पक्षपात की कोई गुन्जाइश न रहे. हाथ फिर उसी युवा महिला के सिर पर पड़ा. प्रभु की माया!!!  पति आज दालान में है. कीर्तन खत्म होते ही महाराज कमरे में बन्द हो गये हैं, ये देखे बिना कि बाद तक कौन रुका, कौन गया. महाराज उबला/भुना ही खाते हैं. सो केवल टमाटर और आलू भूने जाते हैं. रोटियां सेंकीं जाती हैं.  लम्बा काम नहीं है. काम खत्म होते ही ललितेश्वर सादर उस महिला को हवेली के द्वार तक छोड़ने आते हैं.  ललितेश्वर कविता को बताते चल रहे हैं- “ महाराज एक जगह बहुत दिन नहीं टिकते. इस बार तो इस अन्जान हवेली में पता नहीं कैसे इतने दिन रुक गये. सब आप लोगों का सौभाग्य है. वे तो अपने रुकने तक की खबर किसी को नहीं होने देते. यहां तो समझो बहुत सार्वजनिक हो गये महाराज. कैसे तो अचानक इस हवेली पर नज़र पड़ी महाराज की  और उन्हें ईश्वर का आदेश हुआ यहीं रुकने का….”
. कविता, वही आज की रसोईदारिन. दोनों पति-पत्नी हैं. सात साल हुए शादी को, अभी तक निस्संतान है. इलाज विलाज सब हुआ. कोई फ़ायदा नहीं. झड़वाया भी है.  लेकिन अब तक गोद सूनी ही है. ऐसे पहुंचे हुए ईश्वर स्वरूप महाराज से अब इन दोनों को कुछ आस बंधी थी.  सो महाराज की रसोई बना के कविता बहुत खुश थी. चाहती थी, आगे भी बनाती रहे. शायद महाराज की कृपा बरसे और उसे लोगों के ताने सुनने से राहत मिले.
सत्यम उर्फ़ सत्यानन्द महाराज की निगाह पहले दिन से ही इस खूबसूरत युवती पर थी. कैसा  सुगठित शरीर है कविता का. लम्बी सी एक चोटी, माथे पर गोल बिन्दी और आंखों में काजल. अकेले में  महाराज “सनम रे सनम रे…तू मेरा  सनम हुआ रे… “ गुनगुना रहे थे. आंखों के सामने कविता की मूरत रहती. कल रात धुंएं से कैसा तो लाल मुंह हो गया था कविता का… दरवाज़े की झिरी से देख रहे थे बाल ब्रह्मचारी… कविता के सिर पर हाथ रखते हुए उनका मन हुआ था उसका गाल सहला दें…. ललितेश्वर ने कविता की पूरी वंशावली पता कर ली थी. उनकी परेशानियों और खुशियों के सबब भी मालूम थे उन्हें.
महाराज ने आज आंख खोल दी है. कविता और उसका पति कुछ पूछना जो चाहते थे. हाथ जोड़ के खड़े हैं दोनों. “महाराज कृपा हो जाये आपकी…हमारा सूना आंगन भर जाये महाराज….”
महाराज ने हाथ का दण्ड ऊपर उठा दिया है. ललितेश्वर इशारे को समझते हैं. लपकते हुए महाराज के पास पहुंचे. महाराज ने उनके कान में कुछ फुसफुसाया. ललितेश्वर ने घोषणा की- कल सुबह दस बजे आइये. महाराज बीजक यज्ञ करवायेंगे आप दोनों से. सात दिन तक. फल जरूर मिलेगा. यज्ञ के नियमानुसार इन सातों दिन महाराज की रसोई कविता ही पकायेगी. हवन सामग्री आज ही ले के रख लीजिये. शुद्ध घी भी लगेगा तीन  किलो. लाल गुड़हल के फूल, दूब, गाय का गोबर, आम की लकड़ियां, सब ले के आना है. ( कर्मकांडी ब्राहमण परिवार में जन्म लेने का फ़ायदा आज मिल रहा था महाराज को)   कविता खुश. उसे अभी से अपने पांव भारी लगने लगे. कभी कभी सोचती है कविता- ऐसा सुदर्शन युवक साधु क्यों हो गया होगा? फिर छोड़ देती है सोचना.
बीजक यज्ञ शुरु हो गया है. गुप्त यज्ञ है. महाराज मन ही मन मंत्र बुदबुदाते हैं और स्वाहा ज़ोर से बोलते हैं. पति=पत्नी आग में घी की आहुति डालते हैं हर स्वाहा पर. महाराज ने एक नारियल लाल कपड़े में लपेट के रख दिया है वेदी के सामने. यही बीज है. यज्ञ समाप्ति पर यही कविता के गर्भ में स्थापित होगा, अदृश्य रूप में. सांकेतिक बीज है ये. कविता के हाथ में पुष्प और अक्षत पकड़ा के , उसके दोनों हाथ अपनी हथेलियों में बन्द करके महाराज आंखें मूंदे बीजक  मंत्र पढ़ रहे हैं. कविता के स्निग्ध हाथों का स्पर्श बेचैन कर रहा है महाराज को… लेकिन वे हाथ छोड़ना नहीं चाहते, और संतानप्राप्ति के लिये कुछ भी कर गुज़रने की लालसा लिये कविता हाथ छुड़ाना नहीं चाहती.. मंत्र अधूरा न रह जाये कहीं……
तीन महीने चलेगा ये बीजक  यज्ञ. हर महीने में एक सप्ताह लगातार. गर्भ की स्थिति अत्यंत रुष्ट है. उसे पुनर्जीवित करना होगा. मनाना होगा. शुद्धिकरण करना होगा. तब कहीं जा के कुछ सकारात्मक परिणाम मिल सकेंगे. जहां इंतज़ार करते सात साल बीते, वहां तीन महीने कौन बड़ी चीज़?
अगले महीने से एक सप्ताह की जगह पन्द्रह दिन चलेगा यज्ञ. एक हफ़्ते पति-पत्नी दोनों का शुद्धिकरण एक साथ फिर तीन दिन पत्नी का शुद्धिकरण, तीन दिन पति का शुद्धिकरण, और अन्त में फिर दोनों का एक साथ शुद्धिकरण. पिछले जन्म में बहुत पाप किये थे पति ने, उसका खामियाज़ा भुगत रही थी पत्नी, और पति खुद. सो जब तक पूर्ण शुद्धि नहीं हो जाती, तब तक यज्ञ का कोई लाभ नहीं. ऐसा बताया महाराज ने. एकान्तिक शुद्धिकरण होगा अब. नारियल को फोड़ा जायेगा और उसके बीज को निकाला जायेगा. इस बीज को तीन दिन पति की बांह पर बंधा रहना है, चौथे दिन पत्नी के गर्भ में स्थापन की प्रक्रिया होगी.
एक लाल कपड़े में बीज को बांध के पोटली सी बना दी गयी है. पति अपनी बांह पर बांधे खुशी-खुशी घूम रहा है…. पति जानता है, डॉक्टर ने क्या कहा है, रिपोर्ट्स क्या कह रही हैं, सो खुश है कि उसकी कमी शायद छुपी रह जाये, महाराज की कृपा से…. वैसे भी अब उसे किसी चमत्कार का ही इंतज़ार था, वरना डॉक्टर तो…..
आज पत्नी का एकान्तिक शुद्धिकरण और बीज रोपण है….. पति को नहीं देखना है ये यज्ञ.
महाराज कविता को अपने कमरे में ले गये हैं…. ढही हुई हवेली के अब तक सुरक्षित बचे रहे कमरे में… जहां वे खुद एकांत साधना करते हैं, बिना किसी व्यवधान के…… पिछले जन्म के जो पाप पत्नी पर चढ गये हैं, उनको धोने का दिन है आज…. शुद्धिकरण का दिन…. बीज रोपण का दिन….
कमरे से बाहर  बदहवास सी आई है कविता…. ये कैसा शुद्धिकरण यज्ञ!!!!
अगले दिन फिर एकान्तिक शुद्धिकरण यज्ञ…… ये कैसा बीजरोपण यज्ञ !!!
किससे कहे कविता?? पति से? पति उसे ही दोषी मान लेगा. पड़ोसिन से? वे सब भी उसे ही दोषी मानेंगीं….
भक्ति में डूबे भक्त तो महाराज को भगवान की जगह बिठाये हैं…. भगवान के खिलाफ़ कौन सुनेगा??  उसे ही चरित्रहीन बता दिया जायेगा… लेकिन नहीं अब वो नहीं जायेगी महाराज के पास. यज्ञ पूरा हो न हो. वैसे यज्ञ की असलियत भी जान चुकी थी कविता… लेकिन तब भी महाराज ने पति के अनिष्ट का जो भय उसे दिखाया था उससे कहीं न कहीं डरा हुआ था मन उसका….
तीन महीने पूरे हो गये थे. भजन-कीर्तन, यज्ञ, और व्रतों के सिलसिले के. तिवारी के आने का समय हो चला था. आज भव्य कीर्तन होगा हवेली में. देर रात तक चलेगा कीर्तन और फिर महाराज एकान्त-मौन साधना में महीने भर को लीन हो जायेंगे. स्थान भी छोड़ने का वक्त है…. रमता जोगी, बहता पानी…. लोग दुखी हैं. परेशान हैं. अपने को अनाथ सा महसूस कर रहे हैं.  फिर भी आज आखिरी रात का कीर्तन चला देर रात तक… सुबह का तारा निकल आया तब तक…. आज महाराज विदा हो रहे हैं. अब हिमालय में वास होगा उनका. फल-फूल, वस्त्र, धन से लदे-फदे महाराज और उनका शिष्य पैदल ही जायेंगे शहर के आखिरी छोर तक… कई लोग साथ आये, फिर महाराज एक जगह खड़े हो गये और सबको लौट जाने का आदेश दिया. सब लौट आये हैं. महाराज अन्तर्ध्यान हो गये हैं.
कविता की रिपोर्ट पॉज़िटिव आई है. उनके घर में अब किलकारी गूंजेगी. पति महाराज के चरणों की फोटो के सामने लोट रहा है. कविता चुप है. चुप नहीं रहना चाहती कविता, लेकिन तब भी चुप है. बचपन से मां-बाप ने चुप रहना ही सिखाया है उसे, तो आज बोलने की हिम्मत कहां से लाये ?  उसके जैसी तमाम लड़कियां पता नहीं क्या-क्या सह के चुप हैं… बोलने की हिम्मत जुटाती भी है तो ससुराल के ताने याद आ जाते हैं.  बांझ होने का ठप्पा दिखाई देने लगता है. और दिखाई देने लगती है पति की दूसरी शादी, जिसका ज़िक्र कई बार ससुराल में उसे सुना के किया जा चुका है. निर्वंशी नहीं रहना चाहती उसकी ससुराल…
इस रिपोर्ट का सच या तो कविता जानती है, या हवेली की  दीवारें और ये भी पक्की बात है, कि इस सच को न कविता उजागर करेगी, न हवेली की दीवारें….. एक और ढोंगी बच निकलेगा कानून के हाथों से, केवल इसलिये, कि झूठे कर्मकांडों में लिपटे धृतराष्ट्र समाज ने कविता या उसके जैसी तमाम लड़कियों को सच बोलने का हौसला ही नहीं दिया है…..  !
हवेली की ओर से अब भी आवाज़ें गूंज रह रहीं थीं- शिव बोल मेर रसना घड़ी-घड़ी….. ये आवाज़ें कविता को कुछ कहने/करने को उकसा रही थीं….. शायद अब चुप नहीं रहेगी कविता…! घर के बन्द दरवाज़े खोल कविता बढ़ रही थी, कीर्तन करते हुज़ूम की तरफ़… किसी दृढ़ निश्चय के साथ.

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