इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत रही कि दो साल के बाद इसने सिनेमा हाल के दर्शन करा दिये।
कुछ दिनों से ये फिल्म चर्चा में थी, खास कर सोशल मीडिया पर कि ये फ़िल्म बिना किसी खास प्रचार के रिलीज हो रही है, इसे जरूर देखा जाए। मैं बस नाम और इस मौखिक प्रचार से चली गई देखने। आज पहला ही दिन था, कल रात ऑनलाइन टिकट बुक करने चले तो पता चला कि ये कुछ ही स्क्रीन पर है और लगभग सभी सीट बुक हैं, बमुश्किल दो सीट मिली एक हाल में।
ये फ़िल्म वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितों के दुखद नरसंहार (सिर्फ़ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है, परत दर परत बीते वक़्त की निर्मम सच्चाइयों की सीवन उधेड़ती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ-साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है। एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिंब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्त के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है।
बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई।
अनुपम खेर की अदाकारी कमाल की है, पल्लवी जोशी को देखना सुखद था। सह-अभिनेताओं में असल कश्मीरियों का होना फिल्म को असलियत का जामा पहनाती है। बैक-ग्राउन्ड में कश्मीरी लोक गीत कर्णप्रिय हैं। फिल्म हिन्दी और अंग्रेजी दो तरह की सब टाइटल्स में अलग-अलग स्क्रीन पर चल रहे हैं।
हर भारतीय को “कश्मीर फाइल्स” देखनी चाहिए।
इसे देखें ताकि आगे भी गंभीर मुद्दों पर भी हिन्दी सिनेमा बनती रहे, नाच-गाने और कॉमेडी के लिए तो बहुत सारे चैनल्स हैं ही।
तीन दिनों के बाद-
‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शो कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उलटा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शो सोमवार को हो गए।