1 

न हो कभी कोई तकरार, आखिर कब तक?

सिर्फ एकतरफा हो प्यार, आखिर कब तक?

सहनशीलता, भाईचारे और मेलजोल का

हम ही पर दारोमदार, आखिर कब तक?

बुरा-भला हम सब सुनें, पर कुछ न कहें

अपनाएं यही संस्कार, आखिर कब तक?

चोट करना निरंतर हमारी धार्मिक आस्था पर

अभिव्यक्ति का अधिकार, आखिर कब तक?

हम स्वधर्म का पालन करें तो सांप्रदायिकता

तुम करो,तुम्हारा अधिकार, आखिर कब तक?

अगवा किया, शील हरा, बलात धर्मपरिवर्तन

खबरों में ऐसे समाचार, आखिर कब तक?

सच को सच कह भर दो, तो दंगा करने को

तुम सदा ही रहते तैयार, आखिर कब तक?

2

हाथों में तिरंगा, दिल में पाकिस्तान रखते हो

खुलकर कहो, आखिर क्या अरमान रखते हो?

नारा लगाते फिरते हो, संविधान बचाने का,

पर ठेंगे पर हमेशा, तुम संविधान रखते हो।

जलाते हो ‘हिन्द’ को, बोलकर ‘जय हिन्द’ तुम

आखिर कैसे, तुम ये दोगली जुबान रखते हो?

लोकतान्त्रिक देश है ये, चलता संविधान से

लेकिन हर बात मे तुम नई दास्तान रखते हो।

हर फैसला करते सिर्फ मजहब के आधार पर

फिर क्यों धर्मनरपेक्षता का एहसान रखते हो?

3

देश की संपत्ति में आग लगाते क्यों हो?

देश अपना है तो इसे जलाते क्यों हों ?

जब माननी कभी उसकी है ही नहीं

तो संविधान की बात उठाते क्यों हों ?

अपनी थाली साझा की जिसने तुमसे

हर बात पर उसे ही सताते क्यों हों?

डर लगता है जब खुद के बारे में जानकर

तो जनाब घर मे आईना लगाते क्यों हो?

दुख बौना हुआ, अब तो क्रोध आने लगा

तुम आखिर देश को इतना रुलाते क्यों हो?

6 टिप्पणी

  1. शैलेश शुक्ल जी की रचनाएँ पढ़कर आनन्द गया। गूँगे के गुड़ की तरह अनिर्वचनीय सुख की प्राप्ति हुई। राष्ट्रीयता के स्वर से ओतप्रोत इस तरह की रचनाओं को अपनी पत्रिका में सम्मान देकर आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी ने बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया है। मैं रचनाकार और सम्पादक सहित पूरी चयन-समिति को साधुवाद देता हूँ।

    • हार्दिक आभार डॉ चंद्रशेखर तिवारी जी।
      आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी जी का संपादन कार्य निश्चित रूप से साहस और राष्ट्रवाद से परिपूर्ण है। अन्यथा सच प्रकाशित करने का साहस आजकल है ही कितने संपादकों के पास।

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