साहित्य संवेद समूह द्वारा चयनित लघुकथाएँ
1- किल्ला
समय बीतते देर नहीं लगती है मेरे ही जड़ से फूटे किसी किल्ले से जन्मे तुम आज मेरी ही तरह ऊँचे हो चले हो।
अब जन्मदाता हूँ तुम्हारा तो क़द काठी तो मेरी तरह ऊँची और लम्बी होनी ही थी।
शैशव अवस्था में तेज़ अंधी में तुम जब भी लड़खड़ाए मैंने ख़ुद की परवाह किए बिना तुम्हें सहारा दिया और देता भी क्यूँ नहीं आख़िर मेरा फ़र्ज़ था तुम्हारी रक्षा करना।
उस वक़्त मैं ऊँचाइयों को छू रहा था और तुम तरुण होने को बेताब थे।
उस वक़्त जब भी सूर्य का तेज़ तुम्हारे तन-बदन को झुलसाता मैं अपनी ऊँचाइयों पर लगी पत्तियों से तुम्हें जितनी छांव दे पता ज़रूर देता।
हाँ! ये भी सच है कि यह सब मैं अपनी ख़ुशी के लिए करता अपने अस्तित्व की छटा जो तुम में देखने का सुख मिलता था।
उसे तुम तब तक न समझोगे जब तक तुमसे कोई किल्ला न फूटेगा।
अब ये जो तुम मुझे अपनी कँटीली पत्तियों से रगड़ देते हो न ये इस ढलती उम्र में मुझसे बर्दाश्त नहीं होता है मैं जगह-जगह छिल जाता हूँ जो बहुत देर तक चुभता रहता है।
वह तेज़ी से झूमा और प्रतिवाद में सरसराहट करती उसकी पत्तियाँ बोल उठी।
आपको मुझे अपने इतने क़रीब नहीं रखना था अब क़रीब हूँ जवान हूँ तो जब भी झूमूँगा आपको तो रगड़ लगेगी ही और वह आपको पसंद नहीं आएगी आपका और मेरा वक़्त जो अलग है।
यह सुन वह क़रीब के सुख में छुपे दर्द से कराह उठा।
2 – वर्क फ़ार होम
शर्ट और जीन्स में वह दरवाज़ा खोलते ही झुक कर मेरे चरण स्पर्श कर बिना तकल्लुफ़ के अंदर घुस चुकी थी।
सोफ़े की ओर बढ़ मेरे पति को दोनो हाथ जोड़ नमस्ते और आप कैसे हैं भैया का सवाल करते हुए वह मुझे इतनी अमर्यादित लग रही थी की मेरे चेहरे को साफ़-साफ़ मेरे पति ने पढ़ लिया और वातावरण को निर्मल करने के उद्देश्य से अख़बार की ताज़ा ख़बर से रूबरू कराने लगे।
“चंद्र-यान ने मंगल-ग्रह की तस्वीरें भेजी जो इसरो ने साझा की हैं।
देखो तो ज़रा दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची जा रही है।”
मैं इनके इशारे को समझते हुए फिर से रसोई में जा बचे हुए काम निपटने लगी और अपने बीते वक़्त और व्यक्तित्व दोनो को उसके व्यवहार और वेषभूषा से मिलाते हुए सासुमाँ का साड़ी और पल्ले को ले कर दिये आदेश और टीका टिप्पणी को याद कर कुंठित हुई जाती थी।
वह सास के पास जा उनसे बातें करने लगी और मैं दाल में छौंक लगाने के लिये पैन को गर्माने लगी पता नहीं मैं क्या ज़्यादा गरमा रही थी पैन या संस्कार की आड़ में बिताई अपनी घुटन या आज का बदला हुआ वक़्त। तभी इनकी आवाज़ आई।
“अरे! एक चाय हो जाये तो मज़ा आ जाये क्यूँ क्या कहती हो?”
मैं समझ रही थी की ये बे-वक्त की चाय क्यूँ और किसे चाहिये मैंने अपने को संभालते हुए कहा।
“हाँ! वह भी तैयार हो जाये तो बनाती हूँ।”
तभी उसकी आवाज़ आई।
“बना लीजिए भाभी मैं पी लूँगी तैयार क्या होना?”
मैं फिर मन ही मन उबल पड़ी और चाय का पानी चढ़ा दिया।
चाय बनते बनते वह मेरे पास आ बोली।
“भाभी! बड़ी अच्छी खुसबू आ रही है क्या बनाया है आपने घर का खाना खाए कितना वक़्त हो गया।”
और वह डोंगे उठा उठा के देखने लगी मैं फिर अपने शरीर में कुछ नीम- नीम कुछ शहद- शहद सा महसूस करने लगी ख़ुद से ही कहने लगी ऐसी भगाती दौड़ती ज़िंदगी जीने से क्या फ़ायदा?
चाय के बीच में थोड़ी सी इधर-उधर की बातें हुईं जिसमें उसने कुछ दिलचस्पी दिखाई और चाय ख़त्म होने पर प्याली रसोई के सिंक तक पहुँचा आई और मुझे जेठानी होने पर थोड़ा सा ग़ुरूर करने का मौक़ा आख़िर उसने दे ही दिया।
बातों के बीच मेरे चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ देख यह बोले।
“यह घर परिवार तुम्हारा है तुमने इसे बहुत तरीक़े और प्यार से संभाला तुम्हारा वक़्त और था आज वक़्त और है मैंने देखा था माँ का वक़्त और था।उन्होंने तुम्हारे कल पर जितनी हुक़ूमत की थी उसकी तौल में आज को रख कर तुम दुःखी ही होगी।
न तो तुम किसी से कम हो न ही किसी से तुम्हारी तुलना की जा सकती है।आज माँ भी तो चुप चाप घूँघट को आधुनिक वस्त्रों में टटोल कर चुप रह जाती है।”
मैंने ख़ुद के घूँघट से सूट तक का पच्चीस वर्षों का सफ़र इनकी बातों में पाँच मिनट में तय कर लिया था।
वह लैपटॉप खोल वर्क फ्राम होम करने लगी और मैं वर्क फ़ार होम करने के लिये तवा चढ़ा रोटी सेंकने लगी ये अलग बात की अब सिर्फ़ तवा ही गरम था।