अपनी बुढ़ी काया और थरथराते हाथों से मिट्टी की खुदाई करता मनिराम बीच बीच में सर उठाकर उस मुर्ति को देख लेता. शहर की सीमा जहाँ समाप्त होती है, वहीं से माधव की गाथा शुरु होती है.
एक वीर सिपाही ..मातृभूमि की खातिर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. माधव की आदमकद प्रतिमा लगी थी.. चेहरे पर कैसा तेज रहता था, देशसेवा का जुनून उसकी बातों में हरदम दिखता.
कहता बापू ..दुश्मन को टिकने नही दूंगा. सच कहा था बेटा, सीने पर गोलियां खाकर भी हैंड ग्रेनेड से छक्के छुड़ा दिये थे तुमने.
देश को फक्र तो तुम जैसों जांबाज़ से ही है पर आये दिन ये सफेद कबूतर तुम्हारी आस्तीन को गंदा कर देते हैं.
तुम्हारे नाम पर उस पुलिया का शिलान्यास करते हैं, जिसके उपर से पानी बहता रहता है.
खास दिनों में मेरा मोल लगाते है पर मैं बिकता नहीं..दूर से ही खदेड़ देता हूं.
अच्छी लघुकथा। पर वर्तनी की अशुद्धियों से बचने की जरूरत है।
अंतिम एक-दो वाक्य के बिना भी मुक्कमल है।