प्रसाद का आविर्भाव काल उपन्यास विधा के उत्कर्ष का काल था । प्रसाद जी कवि होने के साथ ही एक मंझे हुए नाटककार और कथाकार थे। उनकी काव्य जनित मधुरिमा , नाटकीय कौशल , दार्शनिक , गंभीर चिंतन एवं व्यवहारिक दृष्टि उनके उपन्यासों में भी सहज द्रष्टव्य है। इनमें वे प्राचीन संस्कृति की अपेक्षा वर्तमान में अधिक रमें हैं । उनकी औपन्यासिक कृतियां हैं– कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण )
कंकाल ( 1929) चार खंडों में विभक्त उनकी प्रथम सामाजिक, वैचारिक, व्यंग्य प्रधान कृति है । इसमें उच्च मध्यवर्ग के आभिजात्य, प्रदर्शनप्रिय जीवन का जीवंत चित्रण लेखक ने किया है। अपनी कुलीनता के दर्प में आकंठ डूबे इस वर्ग के सभी व्यक्ति अत्यंत भ्रष्ट हैं। उनकी कुत्सित वृत्तियां बाह्य आडंबरों के आवरण से ढकी होने के कारण सबके सम्मुख उजागर नहीं होती। दूसरा वर्ग बौद्धिक व्यक्तियों , तीर्थयात्री, किसी विशिष्ट कामना की पूर्ति हेतु किसी प्रसिद्ध महात्मा के दर्शनार्थ आए गृहस्थ, यात्रियों की दया दृष्टि पर जीने वाले साधु का है जो अपनी कला का स्वयं प्रचार कर दूसरों की दृष्टि में सम्माननीय बनना चाहते हैं। तीसरा वर्ग स्कूलों की सेवा समिति के विद्यार्थियों, वेश्यालयों की कुट्टनियों, गिरजाघर के पादरियों का है । आर्य समाज तथा सनातन धर्मियों के परस्पर तर्क– वितर्क, खंडन– मंडन, ईसाई मिशनरियों द्वारा निस्सहाय भोले व्यक्तियों को फुसला कर अपने धर्म में दीक्षित करने के प्रयासों का चित्रण अत्यंत यथार्थ है। लेखक का व्यक्तिगत असंतोष एवं विद्रोही प्रतिक्रिया भी यत्र –तत्र व्यक्त हुई है । इस दृष्टि से विवेचन कृति यथार्थवादी परंपरा की प्रवर्तक कृति है किंतु कथा निर्माण की दृष्टि से भारतेंदु युगीन सुधारवादी , आदर्शपरक दृष्टिकोण प्रधान रचना प्रतीत होती है।
उपन्यास के चारों खंड अध्यायों में विभक्त हैं। प्रथम और तृतीय खंडों में सात, द्वितीय और चतुर्थ खंडों में क्रमशः आठ और दस अध्याय हैं । उपन्यास में दो कथाएं , दो कथा सूत्र तथा उनसे संबंधित प्रासंगिक घटनाएं समानांतर विकसित है । कथानक में घटना वैचित्र्य सरसता की सृष्टि करता है। कतिपय स्थलों पर घटनाएं अत्यंत त्वरा से घटित होती हैं किंतु सोद्देश्य होने के कारण कथाविकास में गतिरोध उपस्थित नहीं करती। किशोरी और श्रीचन्द्र की कथा मुख्य है जिसका पूर्वाभास कराने के लिए किशोरी एवं निरंजन की बाल मित्रता तथा निरंजन के माता–पिता द्वारा उसे हरिद्वार के उस महात्मा के चरणों में अर्पित करने जिनकी कृपा से उसका जन्म हुआ था का प्रसंग है। महात्मा के संरक्षण में रहते हुए देव निरंजन अट्ठारह –उन्नीस वर्ष की अल्पायु में एक सुविख्यात सिद्ध मठाधीश बनता है । किशोरी का विवाह अमृतसर के धनाढ्य कपास व्यापारी श्रीचंद्र से होता है। संतान –सुख से वंचित श्रीचंद्र – किशोरी संतान की आशा से प्रयाग के ख्याति प्राप्त देव निरंजन के संपर्क में आते है । देव निरंजन अपनी बाल सखी किशोरी के तीव्र आकर्षण से स्वंय को संयमित करने के लिए हरिद्वार चला जाता है । श्रीचंद्र पत्नी को हरिद्वार ले जाते हैं और उसे नौकर के साथ वहीं छोड़ खुद अमृतसर चले जाते हैं । हरिद्वार में निरंजन साधु समाज से छिपकर किशोरी से अवैध संबंध स्थापित करता है। बरेली से आई विधवा रामा भी (जो किशोरी के संरक्षण में रहती है) निरंजन की वासना तृप्ति का साधन बनती है। दोनों गर्भवती हो जाती हैं। नौकर का पत्र पाकर श्री चंद्र किशोरी को अमृतसर ले जाते हैं किंतु रामा वहीं रह जाती है। किशोरी छ: महीने पश्चात ही निरंजन की अवैध संतान विजय तथा रामा तारा को जन्म देती हैं। वस्तुत: लेखक द्वारा चित्रित भौतिकतावादी समाज प्रचलित धर्म ,पाखंड , वासना , और अर्थलोलुपता का पर्याय था। धर्म का मुखौटा ओढ़ कर धर्म ध्वजी अपनी वासना पुष्टि के लिए अंधविश्वासी स्त्रियों को वासना के पंक में घसीट लेते हैं। अर्थ की प्रधानता ने दांपत्य जीवन की पवित्रता और प्रेम भावना को नष्ट कर उसे मात्र संवेदनहीन समझौता बना दिया है। भारतीय संस्कृति की मान्यता अनुसार पति –पत्नी के परस्पर रागात्मक प्रेमपूर्ण संबंध से स्वस्थ संतान की उत्पत्ति होती है । ‘कंकाल ‘ में अर्थ की प्रमुखता के कारण यह परिकल्पना अपनी पवित्रता खो चुकी है ।
पंद्रह वर्ष उपरांत कथा का सूत्र मंगल देव और तारा की कथा से जुड़ता है। रामा निरंजन के मठ के भंडारी जी की विवाहिता है। तारा अपने अभिभावकों के साथ ग्रहण के मेले में उनसे बिछुड़ जाती है। स्वयंसेवक मंगल उसकी रक्षा करता है। एक कुट्टनी तारा को उसकी मां से मिलाने का झूठा आश्वासन दे अपने साथ ले जाती है तथा वेश्यावृत्ति में धकेल देती है। प्रसाद जी संयोग का प्रयोग करते हुए मंगल को उसके साथी के साथ उसी कोठे पर पहुंचा देते है । मंगल गुलनार (तारा) को पहचानकर वहां से मुक्त कराता है। रेल में भंडारी जी ( तारा के पिता ) से उनकी भेंट होती है । भंडारी तारा को अस्वीकार कर देते हैं फलत: मंगल तारा को अपने घर ले आता है । वे पति–पत्नी की भांति रहने लगते हैं । कथाकार को कथा को इतनी शीघ्र और सपाट ढंग से समाप्त करना अभिप्रेत नहीं था अतः तारा की विवाह से पूर्व तारा की चाची मंगल को तारा की मां की वास्तविकता से परिचित कराती हैं -” तारा की मां ही कौन कहीं की भंडारी जी की ब्याही धर्मपत्नी थी! मंगल!तुम इसकी चिन्ता न करो,ब्याह शीध्र कर लो, फिर कोई न बोलेगा। खोजने में ऐसों की संख्या भी संसार में कम न होगी। ” (1) मंगल स्वयं अवैध संतान था किंतु तारा को एक दुराचारी की संतान जान कर ठीक विवाह के दिन उसे छोड़कर काशी चला जाता है । निराश्रित तारा द्वारा किया गया आत्महत्या का प्रयास निष्फल होता है। अस्पताल में वह पुत्र को जन्म देती है किंतु उसे पंद्रह दिन का छोड़कर काशी जाती है। भूखी, जर्जर फटी साड़ी पहने भटकते हुए किशोरी के घर के सामने एकत्र भिखमंगो के मध्य मूर्छित होकर गिर जाती है । किशोरी उसे अपने घर में संरक्षण देती है ।
द्वितीय खंड की कथा आठ अध्यायों में विकसित है। सारी घटनाओं का केंद्र काशी , मथुरा, वृंदावन है। यमुना (तारा) की चारित्रिक दृढ़ता को व्यक्त करने के लिए लेखक ने उसे मंगल से मिलाया है किंतु इसके लिए किशोरी के पुत्र विजय से मंगल की मैत्री तथा रुग्णावस्था में किशोरी के यहां आना जैसे प्रसंगों की नियोजना करनी पड़ी। यमुना विजय द्वारा किए गए विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है । वस्तुत: यमुना और विजय एक ही पिता किन्तु भिन्न माताओं से जन्मे भाई –बहन है और इस सत्य से पूर्णत: अनवगत हैं। कालांतर में विजय विधवा घंटी के प्रति आकृष्ट होता है। मथुरा के मार्ग में विजय और घंटी पर गुंडों का आक्रमण होता है। दोनों जिस घर में शरण लेते हैं वह गिरजे के पादरी बाथम का है। वह ऐतिहासिक चित्रों की प्रतिलिपि को मूल चित्र बताकर महंगे दामों पर बेचता है। बाथम घंटी पर ईसाई धर्म स्वीकारने का दबाव डालता है । इस खंड में मंगल के एक सोने के यंत्र का उल्लेख हुआ है जिसे उसने (मंगल) विजय को बेचने के लिए दिया था। कालांतर में यही यंत्र मंगल की पहचान बनता है। यंत्र कैसा था ? किसने कब मंगल को दिया था? उसका क्या हुआ ? आदि प्रश्न पाठक के मन में घूमते रहते हैं।
कंकाल का तीसरा खंड सात अध्यायों में विभक्त है। किशोरी, निरंजन तथा श्री चंद्र , विजय एवं घंटी तथा मंगल की कथाओं के साथ ही गुर्जर डाकू बदन तथा उसकी पालित पुत्री गाला की स्फुट कथा इस खंड में है। विजय–घंटी से विवाह करने में सफल न होने पर स्वतंत्र जीवन भोग करते हुए अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों को संतुष्ट करता है । नवाब तांगेवाला और उसके साथी घंटी का अपहरण करने का प्रयास करते हैं। विजय तांगे वाले की हत्या कर देता है । संयोग से यमुना घटनास्थल पर उपस्थित होती हैं। वह विजय को वहां से भगाकर स्वयं शव के पास बैठ जाती है तथा पुलिस के आने पर विजय का अभियोग स्वयं लेकर जेल चली जाती है। मंगल सीकरी में बच्चों के लिए पाठशाला खोलता है । यहीं से गुर्जर दस्यु वदन और गाला की स्फुट कथा प्रारंभ होती है। लेखक ने गाला की माता शबनम की आत्मकथा द्वारा गाला के पूर्वजीवन पर प्रकाश डाला है। मंगल के आश्रम की व्यवस्था से प्रभावित होकर गाला वहां स्त्रियों को पढ़ाने की इच्छा व्यक्त करती है जिससे क्षुब्ध होकर वदन उसे त्याग देता है। नए द्वारा वदन के घायल होकर मृत्यु शैया पर पड़े होने की सूचना पाकर वह पुनः वहां जाती है। वदन मृत्यु से पूर्व अपनी सारी सम्पत्ति उसे सौंपता है।
दस छोटे– छोटे अध्यायों में विभक्त चतुर्थ खंड पूर्व खंडों में फैले कथानक को समेटता है । पात्रों की वास्तविकता धीरे –धीरे खुलती है। श्रीचंद्र और किशोरी विदेश से लौट कर मोहन नामक बालक को चाची से (जो वास्तव में नन्दो है तथा जो यमुना के पुत्र मोहन को अस्पताल से लेकर पालती है ) गोद लेते हैं । नन्दो ही घंटी की मां है। मंगल सरला का पुत्र है जिसे वह एक पंडे के साथ हरिद्वार जाते समय अंधे रामदेव को अनाथालय में देने के लिए सौंप गई थी। वह ‘नए‘ द्वारा दिए गए ताबीज से मंगल को पहचानती है । अंधा रामदेव कालांतर में नन्दो, घंटी , सरला, मंगल आदि का रहस्य खोलने के पश्चात सरयू में जल समाधि ले लेता है। गोस्वामी श्रीकृष्ण तथा मंगल के प्रयासों से यमुना अभियोग से बरी होकर पुनः किशोरी के यहां इसलिए दासी बनती है क्योंकि उसका पुत्र मोहन वहां पल रहा था । मंगल और गाला का विवाह हो जाता है। विजय काशी में दशाश्वमेध घाट पर रहने लगता है। मंगल और निरंजन गोस्वामी श्री कृष्ण के सहयोग से भारत संघ की स्थापना करते हैं तथा लतिका अपनी सारी संपत्ति संघ को दे देती है ।किशोरी की मृत्यु हो जाती है। संघ की उपदेशिका, धात्री , धर्म प्रचारिणी एवं सहचारिणी घंटी जहां व्याख्यान देती हैं वहीं भिक्षुकों के मध्य निरंतर भूख– प्यास से जर्जर कंकाल मात्र मृत विजय का शव पड़ा होता है। मोहन को मेले में लेकर आई यमुना शव को पहचान श्री चंद्र से दस रुपए उधार लेकर स्वयंसेवकों को विजय का संस्कार करने के लिए देती है । उपन्यास दुखान्त थे किंतु विजय की दुर्दशा को जानने के पश्चात पाठक उसकी मृत्यु को उसकी मुक्ति समझता है।
‘कंकाल‘ की पात्र सृष्टि उसके कथ्य के अनुरूप गृहस्थ, तीर्थयात्री ,पंडित , ठाकुर , गुंडे, डाकू , वेश्याएं -उन्नीस पात्र हैं जिनमें दस स्त्री और नौ पुरुष हैं। सभी भ्रष्ट हैं तथा दलित समाज के जीते –जागते प्राणी हैं। अधिकांश पात्र( विजय , मंगल, तारा , गाला , घंटी , मोहन )अवैध संताने हैं । निरंजन, महंत की कृपा से जन्मा और उसी को सौंप दिया गया मठाधीश है। वह किशोरी और विधवा रामा से रागात्मक संबंध बनाता है जिससे क्रमशः विजय और तारा का जन्म होता है। स्वयंसेवक के रूप में तारा की रक्षा करने तथा उसे वेश्यालय से मुक्त कराने वाला मंगल कालांतर में उससे अपनी प्राकृतिक भूख को शांत करता है जिससे वह विवाह से पूर्व गर्भवती हो जाती है। रामदेव अंधा ढोंगी है जो लड़की को लड़का बनाने का दंभकर सरला जैसी अंधविश्वासी स्त्रियों को ठगता है। गिरजे का विशप बाथम संस्कारहीन, अर्थ लोलुप और कामुक व्यक्ति है। वह प्राचीन चित्रों की प्रतिलिपि कराकर लोगों को ठगता है। लतिका का धर्म परिवर्तन करा, ईसाई बनाकर उससे विवाह करता है और घंटी पर आसक्त हो उसे भी ईसाई बना विवाह करना चाहता है। भंडारी भ्रष्ट व्यक्ति हैं। वह निरंजन से अवैध संबंध रखने वाली रामा को बिन ब्याही पत्नी के रूप में स्वीकारता है परंतु अपनी ही पुत्री तारा को स्वीकार नहीं करता।
स्त्री पात्रों में नन्दो अपनी पालित पुत्री घंटी को छोड़ हरिद्वार चली जाती है। वहां तारा की चाची बनकर मंगल को तारा के विरुद्ध उकसाती है। वह तारा के सारे सामान को हथिया लेती है और उसे गर्भपात कराकर किसी अन्य से विवाह करने की सम्मति देती है। अपने षड़यंत्र में असफल होने पर वह तारा को घर से निकाल देती है। सरला अंधविश्वासी है। वह पुत्र की चाह में अपनी पुत्री को लड़का बनाने के लिए अंधे रामदेव को सौंप देती है और उसके द्वारा लाए लड़के को ले लेती है। कुछ पात्र वारिस पाने के लिए अनुचित मार्ग अपनाते हैं। निरंजन के माता–पिता भी महंत की कृपा से पुत्र की प्राप्ति करते हैं। किशोरी अपनी संपत्ति के लिए वारिस चाहती हैं इसलिए निरंजन से अवैध संबंध स्थापित करती है। वह धनलोलुप है अतः पति और निरंजन द्वारा प्राप्त धन से काशी में जायदाद खरीदती है और धार्मिक होने का ढोंग करती है । ‘कंकाल‘ में प्राय: सभी पात्र द्वंद ग्रस्त हैं। किशोरी निरंजन के दुर्व्यवहार एवं रुक्षता से तथा विजय को अपने विरुद्ध देखकर द्वंद ग्रस्त होती है। यमुना मंगल के ब्रह्मचारी रूप तथा अपने साथ विश्वासघात की तुलना करके द्वंद में जीती है । मंगल तारा के प्रति अपने प्रेम और चाची द्वारा तारा को दुराचारिणी की संतान बताए जाने पर द्वंद ग्रस्त है। उपन्यास के उत्तरांश में निरंजन द्वारा किशोरी को लिखा पत्र उसके द्वंद को व्यक्त करता है। गाला मंगल के आश्रम में रहते हुए स्त्रियों को शिक्षित करने के अपने निर्णय और वदन की अप्रसन्नता को लेकर दुविधा ग्रस्त होती है। लेखक ने ऐसे पात्रों को मानवीय परिवेश में रखने के लिए उनके चरित्रों में परिवर्तन किए हैं । गोस्वामी श्री कृष्ण के सान्निध्य में आने पर मंगल और निरंजन बदल जाते हैं। निरंजन मंगल के साथ तथा गोस्वामी श्री कृष्ण के सहयोग से ‘भारत संघ ‘ की स्थापना करता है। मंगल गाला से विवाह करता है। वह यमुना (तारा ( को अभियोग मुक्त करा जेल से मुक्त कराने के लिए भरपूर प्रयास करता है जो संभवत उसके द्वारा अपने दोषों का प्रायश्चित माना जा सकता है।
उपन्यास के सभी पात्र दुश्चरित्र नहीं हैं। यमुना ( तारा) एक आदर्श चरित्र है। लेखक ने उसके द्वन्द की समाज सापेक्ष व्यंजना कराने के साथ ही उसके सौंदर्य और पीड़ा को भी व्यक्त किया है । मेले में मां–बाप से बिछड़ने के पश्चात वह अपने सौंदर्य के कारण ही कुट्टनी द्वारा कोठे पर पहुंचा दी जाती है जहां गुलनार के रूप में अम्मा के नियंत्रण में घुटती रहती है। पिता द्वारा किया गया अस्वीकार और माता की मृत्यु की सूचना उसे तोड़ती है किंतु मंगल के साथ व्यतीत किया गया समय उसे राहत देता है । मंगल द्वारा ठीक विवाह के अवसर पर त्यागा जाना उसे मृत्युवत यंत्रणा दे जाता है। वह निराशा एवं निस्सहायता की चरम सीमा पर आत्महत्या का प्रयास करती है पर नियति को इतनी शीघ्र उसकी यंत्रणा से मुक्ति स्वीकार नहीं थी अतः वह बचा ली जाती है। एक कुंवारी मां तथा निर्धन होने के कारण अस्पताल में भी उसे परिचारिकाओं की निर्दयता सहनी पड़ती है। पन्द्रह दिन के अबोध बालक को अस्पताल वालों तथा भाग्य के भरोसे छोड़कर स्वयं अनजानी डगर पर चल पड़ती है। यह उसके लिए कितना कष्टप्रद रहा होगा इसका पाठक अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि पूरे उपन्यास में वह अपने बच्चे का ही स्मरण करती रहती है। अंत में अपने पुत्र को श्रीचंद्र के दत्तक पुत्र के रूप में पलते देख वह उनके घर में अपने ही पुत्र की दासी बनकर रहती है। वह भटकते हुए काशी पहुंचती है और किशोरी के घर के सामने भंडारे के उच्छिष्ट के लिए लड़ते झगड़ते भिक्षुकों के मध्य भूख से अचेत होकर गिर पड़ती है । उसे किशोरी के यहां शरण तो मिलती है किंतु वहां भी निरंजन द्वारा तिरस्कृत की जाती है। वह अत्यंत सहनशीला और दृढ़ प्रकृति की है। मंगल द्वारा पहचाने जाने पर कहती है-“क्या मुझे अपनी विपत्ति के दिन भी किसी तरह न काटने दोगे। तारा मर गई, मैं उसकी प्रेतात्मा यमुना हूं।“(3) विजय द्वारा किए गए विवाह के प्रस्ताव को वह अत्यंत दृढ़ता से ठुकरा देती है “किसी के हृदय की शीतलता और किसी के यौवन की उष्णता – मैं सब झेल चुकी हूं ! उसमें सफल नहीं हुई , उसकी साध भी नहीं रही । विजय बाबू ! मैं दया की पात्री एक बहन होना चाहती हूं– है किसी के पास इतनी नि:स्वार्थ स्नेह सम्मत्ति जो मुझे दे सकें?(4) लेखक ने उसका नियोजन गलित समाज को पुनर्जीवित करने के लिए किया है। वह विजय को घंटी से दूर रखने का भरसक प्रयास करती है और इसलिए दोनों के विवाह में व्यवधान डालती है। वह विजय की हर स्थिति में रक्षा करती है। उसके द्वारा की गई नवाब की हत्या का अभियोग स्वयं लेकर उसे घटनास्थल से भगा देती है। विजय के आवारा भिक्षुकों में मिल जाने पर उसे नित्य प्रति रोटी पहुंचाती है और मृत्यु शैया पर पड़ी मां से मिलाने के लिए ले जाती है । उसका अंतिम संस्कार भी वही कराती है। उसने विजय से बहनापा मांगा था और एक बहन के रूप में वह अंत तक अपने कर्तव्य का पालन करती है। पूरे उपन्यास में एक वही सबसे उदात्त चरित्र है। गोस्वामी श्री कृष्ण भी यमुना के चरित्र से प्रभावित होते हैं। वे उसे सर्वथा निर्दोष मानते हैं तथा उसे अभियोग मुक्त कराने में पूरा सहयोग देते हैं।
किशोरी सनाढ्य व्यापारी श्रीचंद्र की पत्नी है। वह अपनी निस्संतानता से दुखी है । अपने वारिस रूप में एक पुत्र की कामना से मठाधीश निरंजन के संपर्क में आती है और पुत्र विजय को जन्म देती है। पति द्वारा काशी में पृथक रहने की व्यवस्था भी उसे विचलित नहीं करती । वह पति तथा निरंजन द्वारा भेजे धन से वहां जायदाद खरीदती है । वहां भी निरंजन उसके साथ रहता है अतः वह दान , भंडारा, तीर्थ, यात्रा आदि का आयोजन कर अपनी पतिव्रता तथा धार्मिकता का ढोंग करती है । ” वह एक स्वार्थ से भरी चतुर स्त्री थी। स्वतंत्रता से रहा चाहती थी , इसलिए लड़के को भी स्वतंत्र होने में सहायता देती थी। कभी–कभी यमुना की धार्मिकता उसे असह्य हो जाती है ; परंतु अपना गौरव बनाए रखने के लिए वह उसका खंडन न करती , क्योंकि बाह्य धर्माचरण दिखलाना ही उसके दुर्बल चरित्र का आवरण था।” (5) वह अपने अभिजात्य एवं धनी होने का पूर्ण प्रदर्शन करती है। अंत में निरंजन की रुक्षता और स्वार्थपरता उसे आत्मग्लानि से भर देती है । जिस निरंजन के कारण वह अपने पुत्र से हाथ धो बैठती है वही उसे छोड़कर गोस्वामी श्री कृष्ण की टेकरी में चला जाता है। लेखक ने उसके चरित्र को ऊंचा उठाने के लिए उपन्यास के अंत में श्रीचंद्र से क्षमा याचना कराई है। दत्तक पुत्र के रूप में मोहन का आना उसमें पुत्र के अभाव को गहराता है।
बाल विधवा , सुन्दर, चंचल , सरल और पवित्र हृदय घंटी नंदो की पुत्री थी जिसे गोविंदी चौबाईन ने पाला था। वह ब्रज की गलियों में घूमती रहती थी। लोग उसे पागल समझते थे। किशोरी के यहां आते रहने के कारण वह विजय से हिल– मिल जाती है। वह परिहास करने में अत्यंत निर्दय थी । विजय तथा यमुना को लेकर किए गए उसके परिहास यमुना को दुखी करते थे। वह एक विलक्षण चरित्र थी जो विजय के विषय में सब कुछ जानने के पश्चात भी विचलित नहीं होती और उसकी महत्वाकांक्षा की पुष्टि के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने को तैयार हो जाती है । घंटी स्वाभिमानी थी इसलिए अपने जीवन में किसी का अनावश्यक हस्तक्षेप उसे स्वीकार नहीं था। जीवन की यंत्रणाएं उसे विचलित नहीं कर पातीं। अंत में बाथम के दबाव में आकर ईसाई धर्म अपनाती है किंतु उससे विवाह नहीं करती। वह ‘भारत संघ‘ के प्रचार– प्रसार के लिए स्वयं को समर्पित कर देती है । लेखक ने मानव की आत्मा की निर्मलता , स्वच्छता तथा दुर्दम्य आनंद वृत्ति के उद्घाटन के लिए उसका नियोजन किया है। अन्य स्त्री पात्रों में लतिका, सरला,नंदो आदि हैं जो मुख्य पात्रों के चरित्रोद्घाटन में सहायक हैं ।
पुरुष पात्रों में निरंजन पाखंडी ,भ्रष्ट , स्वार्थी और स्वच्छंद प्रकृति का मठाधीश है जो किशोरी तथा उसके संरक्षण में रहने वाली विधवा रामा से अवैध संबंध स्थापित करता है। वह एक गतिशील चरित्र है। गोस्वामी कृष्ण के संपर्क में आने पर वह उनसे प्रभावित होता है । मंगल के सहयोग से ‘भारत संघ‘ की स्थापना करता है । मंगल स्वयं सेवक के रूप में एक सात्विक– कर्तव्यपरायण , अध्ययन अध्यापन प्रिय, कान का कच्चा और अंधविश्वासी युवक है । वह मेले में अभिभावकों से बिछड़ी तारा की सहायता करता है और बाद में उसे कोठे पर से मुक्त कराता है । उसके पिता के उसे अपनाने से मना करने पर उसे भटकने के लिए छोड़ता नहीं वरन् अपने साथ रखता है। उसके प्रति उसका प्रेम सच्चा है । चाची के बहकावे में आकर उसे छोड़कर काशी चला जाता है। वह निर्दयता पूर्वक उसकी तथा उसके होने वाले शिशु की कोई खोज खबर नहीं लेता । वह पाली प्राकृत का अध्ययन करता है तथा ब्रह्मचारियो और निर्धन बच्चों को पढ़ाने के लिए आश्रम की स्थापना करता है। परिश्रमी और सहनशील होने के कारण आश्रम की स्थापना के लिए कठोर परिश्रम करता है तथा अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करता है। मंगल शंकालु प्रवृत्ति का है इसलिए यमुना को विजय की रुग्णावस्था में मनोयोग पूर्वक सेवा करते देख उनके संबंधों को शंका की दृष्टि से देखता है। यमुना से क्षमा याचना करता है किंतु उसकी दृढ़ता को अपने प्रति विरक्ति समझ उससे दूर हो जाता है । गोस्वामी श्री कृष्ण का सानिध्य उसे भी परिवर्तित करता है। वह निरंजन के साथ मिलकर ‘भारत संघ ‘ की स्थापना करता है तथा गाला से विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। वस्तुत: मंगल नन्दो का पुत्र है जिसे अंधा रामदेव सरला को उसकी पुत्री के बदले देता है। सरला उसे अनाथालय में भेजकर स्वयं एक पंडे के साथ हरिद्वार चली जाती है। अपने गले के ताबीज दर्शाया ही पुनः उसकी पहचान उजागर होती है।
किशोरी और निरंजन का अवैध पुत्र विजय है। समाज में व्याप्त नैतिक और भावात्मक मृत्यु से क्षुब्ध होकर वह वर्ग , जाति , वैशिष्ट्य वाद , अभिजात्य वाद तथा धर्म के खोखले रूप की घोर भर्त्सना करता है। वह निरंजन तथा अपनी मां किशोरी के द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों का विरोध करता है तथा उनमें सम्मिलित नहीं होता। वह बौद्धिक है अतः धर्म के कर्मकांड और पाखंड युक्त रूप को मानव के स्वस्थ विकास में बाधक समझता है और मंगल के तर्कों का खुलकर विरोध करता है। वह ऐसे लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जिनके गुणों का समाज में आदर नहीं होता अतः वे स्वयं अपनी कलात्मक अभिरुचियों का प्रसार करने के लिए बाध्य होते हैं । विजय अस्थिर मनोवृत्ति का है। वह यमुना से प्रेम करता और विवाह करना चाहता है किंतु उसमें सफल ना होने पर घंटी के प्रति आकृष्ट हो उससे विवाह करने को तत्पर होता है । वह मदिरापान करता है । यमुना द्वारा विवाह में व्यवधान डालने पर वह अविवाहित रहते हुए घंटी के साथ सुखपभोग करना चाहता है। वह नारी के प्रति सम्मान दृष्टि रखता है।” कुछ बातों के न करने से ही यह प्राचीन धर्म सम्पादित हो जाता है….छुओ मत, खाओ मत, ब्याहो मत, इत्यादि इत्यादि। कुछ भी दायित्व लेना नहीं चाहते, और बात बात में शास्त्र तुम्हारे प्रमाणस्वरूप हैं। बुद्धिवाद का कोई उपाय नहीं।” (6) घंटी को गुंडों से बचाते हुए स्वयं नवाब की हत्या कर बैठता है और यमुना के कहने पर वहां से भाग जाता है। उसका जीवन भी यंत्रणाओं से भरा है। ‘ नए ‘ के रूप में वह गुर्जर वदन के यहां नौकरी करता है। वदन द्वारा निकाले जाने पर भिक्षा मांग कर अपना और अपने पालतू कुत्ते भालू का पेट भरता है । वही गाला को उसके मरणासन्न पिता वदन से मिलाता है तथा अपने द्वारा सुरक्षित रखे ताबीज़ को देखकर सरला को मंगल से मिलाता है। वह बौद्धिक है तथा ‘भारत संघ ‘ की स्थापना का हिमायती है किंतु उसकी विधिवत स्थापना तथा प्रचार के पूर्व ही भिक्षुक हो प्राण त्याग देता है। वह एक नितांत असफल चरित्र है जिसे ना माता–पिता की अतुल संपत्ति ही मिलती है ना सामाजिक सम्मान। योग्य होते हुए भी भिक्षुक रूप में वह अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत करता है और अपने अंतिम संस्कार के लिए उसे यमुना के उधार लिए दस रुपए पर निर्भर रहना पड़ा ।
श्रीचंद्र कपास का धनी व्यापारी था किंतु धर्म लिप्सु है ।पत्नी को नौकर के साथ हरिद्वार में छोड़कर व्यापार को देखने अमृतसर वापस चला जाता है । पत्नी द्वारा अवैध संतान को जन्म देने पर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए एक झूठी कहानी गढ़ काशी भेज देता है । वह चरित्र हीन है। एक धनी विधवा चन्दा से संबंध रखता है। वह विजय से चन्दा की पुत्री का विवाह कराकर उसकी सारी संपत्ति का मालिक बनने की योजना बनाता है वह स्त्रैण प्रकृति का होने के कारण यह जानकर भी शांत रहता है कि निरंजन किशोरी के यहां रहता है। लेखक ने किशोरी के चरित्र में परिवर्तन लाने के साथ ही श्रीचंद्र के चरित्र में भी परिवर्तन किया है। वह किशोरी को क्षमा कर देता है तथा उसके साथ विदेश भ्रमण के लिए जाता है। वह मोहन को दत्तक पुत्र के रूप में अपनाता है। बाथम मथुरा के एक गिरजाघर का विशप है। वह लतिका ( मारग्रेट) का ईसाई धर्म में परिवर्तन करा उससे विवाह करता है। बाहर यूरोपीय ढंग से रहता है पर घर में हिंदू आचार व्यवहार करता है । अपनी गंभीरता से साधु साहब कहलाता है। बाथम सभ्यता और नम्रता का मुखौटा ओढ़े एक अर्थ लोलुप दुर्बल चरित्र है । विवाहित होते हुए भी घंटी पर आसक्त हो उससे विवाह करना चाहता है । देव निरंजन मठाधीश है। वह एक सिद्ध महात्मा के रूप में विख्यात है। साधना एवं उपासना उसकी दिनचर्या थी । वह मठ में आने वाली दान की धनराशि का सदुपयोग करता है। अपनी बालसखी किशोरी को देखकर उसका संयम समाप्त होने लगता है। वह बल पूर्वक अपने चित्त को संयमित करता है तथा प्रयाग से हरिद्वार चला जाता है । किशोरी के वहां भी पहुंचने पर संयमित नहीं रह पाता । एक बार संयम टूटने पर उसकी कामवासना बलवती हो जाती है और वह विधवा रामा से भी संबंध स्थापित कर लेता है। अपना अधिकांश समय वह काशी में किशोरी के यहां व्यतीत करता है और धार्मिक आयोजनों व कर्मकांडों के कारण वहां के समाज में अपनी धाक जमा लेता है। गोस्वामी श्री कृष्ण का सानिध्य उसे परिवर्तित करता है । वह किशोरी को पत्र लिखकर अपनी भूलों के लिए क्षमा याचना करता है तथा ‘भारत संघ ‘ की स्थापना में मंगल को पूरा सहयोग देता है।
प्रसाद जी ने पात्रों के उद्घाटन के लिए प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों प्रविधियों का प्रयोग किया है । उन्होंने उनके कार्य व्यवहार द्वारा उनके चरित्रों को प्रकाशित होने दिया है । कहीं –कहीं स्वयं भी उनका चरित्रोद्घाटन किया है यथा किशोरी तथा घंटी का चरित्र । अपने आदर्शवादी दृष्टि कोण के अनुरूप उन्होंने सभी पात्रों को अंत में सच्चरित्र बना दिया है। वे एक दूसरे से क्षमा याचना कर सन्मार्ग पर अग्रसर होते हैं। अधिकांश पात्र ‘भारत संघ‘ में सम्मिलित हो जाते हैं। विवेच्य उपन्यास की घटनाएं प्रयाग, हरिद्वार , काशी, मथुरा, वृंदावन आदि तीर्थ स्थानों में घटित होती हैं । ऐतिहासिक महत्व वाले लखनऊ का भी उपन्यास में उल्लेख हुआ है। प्रसाद जी का जन्म तथा जीवन काशी में व्यतीत हुआ था अतः वहां के रीति–रिवाजों , धार्मिक मान्यताओं से वे पूरी तरह परिचित थे अतः उपन्यास में उसका वर्णन अधिक हुआ है । उपन्यास में सनातन हिंदू धर्म , सुधारवादी आर्य समाज , ईसाई मिशनरियों के संसार के साथ विलासिता में आकंठ डूबे समृद्ध व्यक्तियों के ढोंग और पाखंड से भरे जीवन तथा इसके तीव्र विरोध में निर्धनों , भूखों, शिक्षकों की नंगी भूखी दुनिया का अत्यंत मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। विजय ,किशोरी , घंटी तथा गोस्वामी श्री कृष्ण प्रेम एवं सहयोग द्वारा सांसारिक –सामाजिक समरसता लाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं ।
प्रसाद छायावाद के अग्रणी कवि एवं सर्वाधिक सशक्त स्तंभ थे । प्रकृति के प्रति उनका स्वाभाविक आकर्षण था । विवेच्य कृति में भी उनकी यह आसक्ति स्थान– स्थान पर व्यक्त हुई है । कहीं अध्याय के प्रारंभ में तो अन्यत्र मध्य या अंत में उन्होंने प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य के चित्र अंकित किए हैं। उपन्यास का प्रारंभ ही प्रयाग के गंगा तट के मनोरम दृश्य से हुआ है। ” प्रतिष्ठान के खंडहर में और गंगा तट की सिकता –भूमि में अनेक शिविर और फूस के झोपड़े खड़े हैं। माघ की अमावस्या की गोधूलि में प्रयाग में बांध पर प्रभात का – सा जनरव और कोलाहल तथा धर्म लूटने की धूम कम हो गई है ; परंतु बहुत – से घायल और कुचले हुए अर्धमृतकों की आर्त्त ध्वनि उस पावन प्रदेश को आशीर्वाद दे रही है । स्वयं– सेवक उन्हें सहायता पहुंचाने में व्यस्त हैं। “।(7 ) प्रकृति का रम्य मनोहर रुप ही प्रसाद जी को काम्य था। उन्होंने उसके रौद्र रूप का चित्रण कहीं नहीं किया है।
प्रसाद की भाषा शुद्ध संस्कृत तत्सम शब्दमयी है। उनके सभी पात्र चाहें किसी भी वर्ग या संयंत्र के हों शुद्ध भाषा का ही प्रयोग करते हैं । यमुना , घंटी, सरला, नन्दों आदि अशिक्षित पात्रों द्वारा इस प्रकार की भाषा का प्रयोग खटकता है। दासी के रूप में यमुना की भाषा में तथा अपनी जगह के लिए परस्पर झगड़ते भिक्षुकों की भाषा में क्रमशः नम्रता या अखंडता अवश्य आ गई है। गहन अर्थ से समन्वित सूक्तियों ने भाषा को अर्थवत्ता प्रदान की है ।जैसे-1.” त्याग पूर्ण थोथी दार्शनिकता जब किसी ज्ञानाभास को स्वीकार कर लेती है, तब उसका धक्का सम्हालना मनुष्य का काम नहीं।“(8) ‘ मर पच जाना‘, मुहावरे तथा ‘गौरी रूठे अपना सुहाग ले‘ लोकोक्ति का प्रयोग यथा स्थान हुआ है किंतु विवेच्य कृति में ये अत्यल्प हैं। विजय के अनुरोध पर घंटी द्वारा गाया गया गीत ब्रज की गोपियों का स्मरण दिलाता है। इससे लेखक के कवि और संगीत प्रेमी हृदय का परिचय मिलता है । कहीं –कहीं निरंजन, मंगल तथा गोस्वामी श्री कृष्ण के वक्तव्य विषयानुरुप लम्बे हो गए हैं किंतु वे केवल कथाविकास के लिए न होकर लेखक के प्रखर चिंतन के परिणाम हैं। उनके कारण कहीं भी अस्पष्टता या दुर्बोधता नहीं आई है। भाषा का प्रवाह भी अजस्त्र बना रहता है। अलंकारिकता प्रसाद की भाषा का वैशिष्ट्य है। प्रकृति के चित्रणों में उपमा का सहज संयोजन द्रष्टव्य है। उनके द्वारा प्रयुक्त उपमाएं सार्थक एवं सुंदर हैं।
कंकाल प्रसाद जी की सोद्देश्य रचना है। उनमें अपने युग और समाज के दोषों व दुर्बलताओं को देखने की तलस्पर्शी सूक्ष्म दृष्टि एवं अचूक शक्ति थी। उनका तदयुगीन समाज अंधविश्वासी और भ्रष्ट था। वे स्वयं बुद्धिवाद के समर्थक थे। समाज का कोई भी अनिष्ट कारी रुप उन्हें स्वीकार्य नहीं था। वे मानते थे कि मनुष्य अपनी अदम्य शक्ति से समाज के ढांचे को बदल सकता है। केवल प्राकृतिक नियमों का अनुसरण करने पर उसे किसी के शासन की अपेक्षा नहीं होगी । उसे अपनी सामर्थ्य का आंकलन करने में सक्षम होना चाहिए। धार्मिक, सामाजिक, नकारवाद के फंदे से बचते हुए अपनी अंतरात्मा की आवाज़ के अनुसार कर्म में प्रवृत्त होना होगा। कुलीनता और धार्मिकता ऐसे आवरण है जिन्हें ओढ़कर दंभी अभिजात्य वर्ग अपनी प्राकृतिक मानवता खो कर वासना का पुतला बन जाता है। लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि प्राचीन मनीषियों द्वारा संकल्पित वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था दुहरी थी। आश्रम की व्यवस्था मनुष्य के निजी व्यक्तित्व के लिए और वर्ण व्यवस्था सामाजिक जीवन को सही रूपाकार देने के लिए थी। यह व्यवस्था स्वस्थकर नहीं थी क्योंकि उक्त दोनों स्थितियों की अपेक्षाओं की पूर्ति करते –करते व्यक्ति और उसका सामाजिक जीवन वास्तविक संभावनाओं से रहित कंकाल मात्र रह जाता था । मनुष्य के चार पुरुषार्थों में से कभी एक तो कभी दूसरा महत्वपूर्ण हो मनुष्य जीवन को नियंत्रित करने लगता था । श्री रमेशचंद्र शाह के मतानुसार “जोड़ने वाला सूत्र भंग हो जाने से कालांतर में मानव जीवन के चार पुरुषार्थो में से कभी एक पर , कभी दूसरे पर अनावश्यक और अतिरिक्त बल दिया जाने लगा । कभी ‘मोक्ष ‘ का अतिरेक हावी हो गया तो कभी अवरुद्ध जीवन– प्रवाह में गढ़े हुए धर्म की रुढ़ियों को ही अधिकाधिक कसते चले जाने की ज़िद ज़ोर पकड़ गई। कभी इन दोनों की उपेक्षा करके ‘ अर्थ ‘ और ‘काम ‘ के ही अतिरेक की नौबत आई। हमारे बदहवास युगों की ये दोनों ही अतियां जीवन की उन संपूर्णता की धारणा और उपलब्धि को छिन्न–भिन्न करने वाली सिद्ध हुई।“(9) तदयुगीन धार्मिक मान्यताओं में भी परस्पर टकराव की स्थिति थी। मंगलदेव तथा गोस्वामी श्रीकृष्ण मुसलमानों की प्रार्थना विषयक नियमबद्धता तथा आर्य समाज की पाखंडहीनता के प्रशंसक थे किंतु विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों को भी अनिवार्य मानते थे जिनका तीव्र विरोध विजय अपनी बौद्धिक तर्क शीलता से करता है । यह ध्यात्व्य है कि लेखक का बुद्धिवादद कोरा सिद्धांत ना होकर मानव चरित्र और कार्य व्यवहार में पूर्णता पाता है। विजय रुढ़ियों और जर्जर परंपराओं का विरोधी है किंतु उनसे उबर नहीं पाता और सामाजिक प्रतिबंधों की जकड़न में फंसकर असफल होता है । उपन्यास के अंत में उसका कंकालवत शरीर दाह–संस्कार के लिए दूसरों की दया का पात्र रहता है। उसके माध्यम से लेखक द्वारा उठाई गई मानव मुक्ति की आवाज भी प्रतिकूल परिस्थितियों में घुट जाती है। वस्तुत: विवेच्य उपन्यास इस दृष्टि से कोरी बौद्धिकता का साहित्यिक निरुपण मात्र नहीं है वरन् घटनाओं के अविरल प्रवाह से युक्त एक सजीव मानव आख्यान है ।
कृति में लेखक ने किसी पूर्ण आदर्शवादी पात्र की परिकल्पना नहीं की है। वे मानते थे कि मानव स्थापित संस्थाओं का वर्चस्व उसके शुद्ध हृदय से दिए गए योगदान पर निर्भर करता है। समाज के दोष व्यक्ति के और व्यक्ति के दोष समाज के दोष होते हैं अतः उनमें संतुलन होना अनिवार्य है। सामाजिक संस्थाओं की जड़ताओं और कुरीतियों का प्रतिकार कर सचेत, सुशिक्षित व्यक्तित्व के निर्माण के लिए उन्होंने सनातन धर्म तथा आर्य समाज दोनों के विरुद्ध आवाज़ उठाई है। वे कृत्रिमता, पाखंड के खिलाफ थे । सात्विक, प्रेम युक्त , उत्कृष्ट , दंभ रहित जीवन तथा सशक्त , सतत क्रियामाणता ही उन्हें अभिप्रेत थी। ‘ कंकाल‘ उपन्यास में उन्होंने तदनुरूप प्राकृति प्रत्यक्ष यथार्थ तथा सहज स्वाभाविक वातावरण की सृष्टि की है। सैद्धांतिक विवेचन उनका काम्य नहीं था। तदयुगीन विभेदकारी सामाजिक प्रतिबंधों की जकड़न से निष्क्रिय और गतिहीन हुए मनुष्यों को ऊपर उठाना ही उनका ध्येय था। कुलीनता के थोथे दंभ , अशिक्षाजन्य धर्मांधता , राजनीतिक परतंत्रता से मृतप्राय मानव जीवन को पुनः गति प्रदान करना था । इसके लिए जिस विद्रोह की आवश्यकता थी वह प्रारंभ में व्यक्तिगत प्रयास के रूप में प्रारंभ होकर धीरे–धीरे व्यापक होकर बहुमत और राजकीय शक्ति प्राप्त करता है । ‘भारत संघ‘ की स्थापना इसका एक मात्र विकल्प था। इसमें सर्वदिक स्वाधीनता के साथ ही कर्तव्य पालन में आने वाले व्यवधानों को अविचल रहकर सहते हुए उद्देश्योन्मुख रहना अनिवार्य था । अपूर्ण मनुष्य की अपूर्ण उपलब्धियां प्रसाद जी को स्वीकार नहीं थीं। वे आस्थावादी थे और मानते थे कि मनुष्य अपनी शुद्ध मूल प्रवृत्तियों को अक्षुण्ण रखते हुए लोक– शिक्षण तथा सेवा भाव को अपनाकर सहज ही पूर्णता प्राप्त कर सकता है। मंगल , निरंजन और गोस्वामी जी के सहयोग से ‘भारत संघ‘ की स्थापना करता है जो प्रकारांतर से उसकी दुर्बलताओं का प्रायश्चित है । वह लोक शिक्षण को अपनाता है तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे छोड़ता नहीं है। लतिका , घंटी आदि स्त्रियां भी उसमें पूर्ण भागीदारी निभाती हैं । श्री रमेशचंद्र शाह की तद्विषयक स्थापना है -” इस उपन्यास का ‘ भारत संघ ‘ समाज के सर्वोत्कृष्ट को – उसकी प्रगतिशील शक्तियों को, और उसके माध्यम से समाज में जो बची– खुची अंतरात्मा की विवेक– चेतना है , उसको – एकाग्र और फलीभूत करने का स्वप्न देखता है“।(10)
समाहारत: कह सकते हैं कि कालिमा का वृहद अंकन कर मनुष्य में उसके प्रति विद्रोह उत्पन्न करना ही प्रसाद जी का लक्ष्य था जिससे सर्वत्र उज्जवलता और मानवता का विकास हो ।
संदर्भ–
1.कंकाल जयशंकर प्रसाद पृष्ठ 32-33
2.जयशंकर प्रसाद, रमेश चंद्र शाह , भारतीय साहित्य के निर्माता, साहित्य अकादमी, पृष्ठ 54
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कंकाल, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 54
4 कंकाल, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 68
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कंकाल, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 61
6 कंकाल, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 105
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कंकाल, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 74-75
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कंकाल, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 11
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कंकाल, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 55-56