Friday, October 11, 2024
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महाकवि डॉ. कुंवर बेचैन से डॉ. अल्पना सुहासिनी की विशेष बातचीत

दाएं से डॉ. अल्पना सुहासिनी, रमा सिंह, डॉ. कुंवर बेचैन एवं लखनऊ के एक आयोजक

पिछले दिनों कोरोना महामारी ने अज़ीम शायर, कवि और गीतकार डॉ. कुंवर बेचैन को हमसे छीन लिया। आज डॉ. अल्पना सुहासिनी द्वारा लिया गया उनका साक्षात्कार जो कि कुंवर जी का अंतिम साक्षात्कार है, हम पुरवाई के पाठकों से साझा कर रहे हैं – पुरवाई टीम

जब भी कभी शायरी की बात चलती है, या कविताओं की बात चलती है, गीत और ग़ज़लों की बात चलती है, तो एक नाम मुख्यतः ज़हन में उभरकर आता है और वह नाम है आदरणीय डॉ. कुँअर बेचैन जी का। आदरणीय डॉ. बेचैन जी एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने अदब की दुनिया में ऐसा नाम कमाया कि आने वाली पीढ़ियाँ उनकी ऋणी रहेंगी । डॉ बेचैन ने साहित्य को अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। निरंतर लेखन में लगे रहने के साथ-साथ मंचों पर भी उनकी सक्रियता देखते ही बनती है। आदरणीय डॉ.बेचैन को साहित्य-क्षेत्र के सुधीजन एक ‘साहित्य-संस्थान’ या’ साहित्य का विश्वविद्यालय’ कहते थे और वह इसलिए, क्योंकि बेचैन जी ने साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की है। वे एक ऐसे विराट व्यक्तित्व थे जिन्होंने 24 देशों के पचासियों शहरों में काव्य-पाठ करके साहित्यिक दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के मस्तक को गौरवान्वित किया, उनका नाम लेते ही मन श्रद्धा से पूरित हो उठता है. ऐसी शख्सियत के जीवन से जुड़े अनेक पहलुओं के बारे में जानने की जिज्ञासा आप सभी को होती होगी। तो आइये, हम लोग शामिल हों डॉ. अल्पना सुहासिनी के साथ डॉ. कुँअर बेचैन के इस महत्वपूर्ण साक्षात्कार में–
प्रश्न – डॉ. साहब जिस ऊँचाई पर आज आप हैं वहाँ रहकर भी जितने सरल और ज़मीन से जुड़े व्यक्तित्व आप हैं, यह अक्सर संभव नहीं होता क्योंकि सरल बने रहना सबसे कठिन कार्य है…कहा जाता है कि किसी भी रचनाकार की रचनाओं में उसी का अक्स होता है.।….जब भी आप सुनाते हैं —
“होके मायूस न यूँ शाम-से ढलते रहिए
ज़िन्दगी भोर है सूरज से निकलते रहिए ,
एक ही ठाँव पे ठहरेंगे तो तक जाएंगे,
धीरे धीरे ही सही राह पे चलते रहिए।”…
तो आपकी इन पंक्तियों में आपका एक ऐसा जुझारू व्यक्तित्व सामने आता है जो निरंतर आगे बढ़ने की ही प्रेरणा देता है …हम जानना चाहेंगे कि आपके साहित्य का और आपके जीवन का यह अंतर्संबंध कैसे बना
उत्तर – अल्पना जी, हम सब जानते हैं कि यदि हमें गुलाब के फूल चाहिए तो गुलाब के पौधे से हो मिलेंगे, चमेली के फूल चाहिए तो चमेली के पौधे से ही मिलेंगे । ऐसे ही हर कवि, हर रचनाकार एक पौधे की तरह ही है । जैसा वह होता है, जैसा उसका मूल व्यक्तित्व होता है उसकी रचनाएँ भी उसी का प्रतिफलन होती हैं । प्रारम्भ से ही मेरी ज़िन्दगी ऐसी रही जिसमें मुझे बहुत संघर्ष झेलना पड़ा और उसी संघर्ष की कहानी मेरी रचनाओं में देखने को मिलेगी।
प्रश्न – डॉ. साहब, हम आपके इस संघर्ष को जानना चाहेंगे। कृपया इसके बारे में कुछ बताएँ।
उत्तर – ज़रूर बताऊँगा। मेरा जन्म 1 जुलाई 1942 को उत्तर प्रदेश के जिला मुरादाबाद के काँठ नामक कस्बे के पास के ग्राम उमरी में हुआ । दुर्भाग्य से मेरे पिताश्री नारायण दास जी का देहावसान मेरे जन्म के दो महीने के बाद ही हो गया । पिताश्री की मृत्यु के पांच-सात दिनों बाद ही हमारे घर में डकैती पड़ गई जिसमें हमारे दादा-परदादा का खजाना जो लगभग 24–25 कलश चांदी के रुपयों तथा सोने-चाँदी के जेवरात के रूप में ज़मीन में गड़ा था, उसे डकैत खोदकर ले गए। मैं अपनी माँ गंगा देई की बगल में लेटा था। डकैतों ने मुझ पर चाकू रख दिया और माँ के सामने यह विकल्प रखा कि या तो वह खज़ाना कहाँ-कहाँ गड़ा है यह बता दे या फिर अपने बेटे यानि मेरी भेंट देने को तैयार रहे । माँ ने उनके हाथ में चाकू देखा तो जमीन में गड़े खज़ाने को उन्हें भेंट कर दिया और मुझे बचा लिया। मेरी दो बड़ी बहनें — चमन देई और प्रेमवती भी थीं। चमन देई लगभग पंद्रह वर्ष और प्रेमवती लगभग चौदह वर्ष की थी। मुझमें और मेरी बहनों के बीच आयु का इतना अंतराल इसलिए था क्योंकि बीच मे जो भाई-बहन हुए वे काल-कवलित हो गए। डकैती के बाद माँ डर गई और और हम लोगों को लेकर अपनी माँ के घर यानि हमारी ननिहाल में आ गईं । ननिहाल उत्तर प्रदेश के गजरौला नामक कस्बे के पास के गाँव शाहपुर में थी। नानी जी अकेली रहती थीं। नाना जी और मामा जी की मृत्यु हो चुकी थी। मैं , माँ, और दोनों बहनें नानी जी के पास डेढ़ वर्ष रहे। इसके पश्चात माँ मुझे और मेरी दोनों बहनों को अपनी छोटी बहन यानि मेरी मौसी जी के पास खास मुरादाबाद शहर में ले आई। हम छह महीने मौसी जी के पास रहे । मेरी बड़ी बहन चमन देई की शादी मेरे मौसाजी ने रामपुर के पास दुपैड़ा नाम गाँव के निवासी श्री घनश्याम दास सक्सेना से कर दी। बारात बैलगाड़ियों से आई थी।….
इसी समय एक और बड़ी घटना हुई। वह यह कि जब बहन की विदा हो रही थी तब मैं दो बरस का बालक भी दरवाज़े पर खड़ा था।अचानक एक व्यक्ति आया और मुझे किडनेपकरने के इरादे से मुझे गोदी में लेकर मौसी जी के घर के पास से गुजरती हुई रेलवे लाईन की ओर भागा। बाराती गाँव के थे उंन्होने उसका पीछा किया तो उसने मुझे रेलवे लाइन पर पटक दिया मगर उसे बारातियों ने पकड़ लिया। वह हमारे गाँव का हमारे परिवार से दुश्मनी रखने वालाथा।
प्रश्न- बड़ा दर्दनाक हादसा हुआ ये तो आपके साथ। फिर आगे क्या हुआ?
उत्तर – फिर माँ ने सोचा कि हम मुरादाबाद में सुरक्षित नहीं हैं ।…और उधर उस समय मुरादाबाद जिले के चंदौसी नामक कस्बे से लगभग 4 किलोमीटर दूर सिसरका नामक गाँव में हमारे खानदान की एक लड़की की शादी हुई थी, उसकी हमारी माँ से मुलाक़ात हुई तो उसने माँ से मेरी छोटी बहन प्रेमवती के विवाह का प्रस्ताव सिसरका गाँव में रहने वाले एक युवक जंगबहादुर सक्सेना से रखा। माँ इस गाँव में हम लोगों को ले गई। लड़का पसन्द आ गया। माँ ने पंडित जी को बुलाकर जंगबहादुर जी के साथ वहीं फेरे डलवा दिए। जंगबहादुर ग्राम सिसरका से 4 मील दूर चंदौसी नामक शहर में एक प्रिंटिंगप्रेस में मशीन मैन थे। वे रोजाना नौकरी के लिए चंदौसी आते-जाते थे और गाँव में खेती-बाड़ी भी थी। जंगबहादुर जी के भी माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। अतः उंन्होने माँ के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह भी अब कहीं न जाएँ और संरक्षिका बनकर उनके साथ ही रहें। उस समय की परिस्थितियों j नहीं रही। बहनोई साहेब और मैं, बस हम दोनों ही संघर्ष करने को रह गए …ढिबरी और लालटेन में पढ़ना, कच्चे मकान में रहना ख़ुद अपने हाथ से रोटी बनाना, कुएँ से पानी भरकर लाना ये सभी काम हम दोनों ही करते थे । इस तरह मेरा बचपन बड़ा संघर्षमय रहा। लेकिन मेरे इसी संघर्षमय जीवन ने मुझे संवेदनशील बनाया और मुझे सकारात्मक रचनाएँ करने को प्रेरित किया । मैं ये मानता हूँ कि कवि का और उसकी रचना का अंतर्संबंध भी बिल्कुल वैसा ही है जैसा बर्फ़ का और पानी का होता है । बर्फ़ जब पिघलती है तो पानी हो जाती है और पानी जब ठोस पदार्थ बनता है तो बर्फ़ हो जाता है । मेरे साथ भी यही हुआ।
प्रश्न – सही कहा आपने । सचमुच वही दर्द और वही तकलीफ़ आपकी रचनाओं में झाँकती हैं जो आपने अपने जीवन में झेलीं लेकिन आपकी सकारात्मक सोच निरंतर आपको आगे लेकर चलती रही । विपरीतताओं के बीच से भी अनुकूलता तलाश लेना, यह आपका सबसे बड़ा हुनर है । एक बार निराश होकर आपने कहा था– “वो देखो आ रहा है सामने से बाढ़ का पानी, मगर मैं पेड़ हूं मेरा मुकद्दर है खड़े रहना.’ .…..लेकिन फिर इसी शेर को आपने सकारात्मकता में बदल दिया था, इस बारे में हम ज़रूर जानना चाहेंगे।
उत्तर- बताता हूँ। एक बार मैं एक कवि सम्मेलन से लौट रहा था । उन दिनों मैं बहुत परेशानियों के दिनों से गुजर रहा था, तब ही मैंने ये दो पंक्तियाँ कहीं थीं । मेरे सामने जो व्यक्ति बैठे थे उन्हें लगा कि मैंने कुछ लिखा है तो उन्होंने मुझसे वह काग़ज़ मुझसे माँग लिया जिस पर ये यह पंक्तियाँ लिखी थीं . उन्होंने पढीं तो वे बहुत ख़ुश हुए और कहा कि पंक्तियाँ तो बहुत अच्छी हैं पर इसमें निराशा दिखाई दे रही है —
वो दौड़ा आ रहा है सामने से बाढ़ का पानी
मगर मैं पेड़ हूँ, मेरा मुकद्दर है खड़े रहना
मैंने इन पंक्तियों में खुद की तुलना एक ऐसे पेड़ से की थी जो बाढ़ के पानी में घिर जाता है किन्तु वह कुछ नहीं कर पाता. और सब तो भाग जाते हैं किंतु पेड़ के तो पाँव होते नहीं जो कहीं भाग जाए, वह तो सामने से आते हुए बाढ़ के पानी के सामने खड़े होने को विवश है. मेरी स्थिति उन दिनों ऐसी ही थी… उनके टोकने के बाद मैंने उसी समय इस शेर से नकारात्मक भाव निकालकर यूँ लिख दिया
कोई उस पेड़ से सीखे मुसीबत में अड़े रहना
कि जिसने बाढ़ के पानी में भी सीखा खड़े रहना बदले हुए शेर को पढ़कर वे सज्जन बहुत खुश हुए। यहाँ विवशता नहीं थी दृढ संकल्प था. अल्पना जी , दृष्टिकोण बदलते ही रचना का स्वरूप भी बदल जाता है ।…और एक यह बात भी मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि केवल कवि ही समाज और व्यक्ति को बदलने की सामर्थ्य नहीं रखता, वरन श्रोता और पाठक भी कवि की सोच को नई दिशा दे सकता है। जैसा इस घटना में मेरे साथ हुआ। अल्पना जी, इसी ग़ज़ल में एक शेर और हुआ और वह भी दुनिया भर में बहुत प्रसिद्ध हुआ। वह शेर यह है—
मैं कितने ही बड़े लोगों के छोटेपन से वाक़िफ हूँ
बहुत मुश्किल है दुनिया में बड़े बनकर बड़े रहना।
प्रश्न – विपरीतताओं में भी आपको यह सकारात्मक सोच कहाँ से मिला?…कृपया इस पर भी प्रकाश डालें।
उत्तर – इसका एक बड़ा कारण यह है कि मैं अपने बचपन में जिस मोहल्ले में रहा जिस, स्कूल में पढ़ा वहाँ के सब लोगों का ढेर सारा प्यार मुझे मिला । भले ही वो दया करके करते हों कि बिना माँ-बाप का बच्चा है, पढ़ने में तथा अन्य कामों में होशियार है। इस तरह मोहल्ले के लोगों में ही कोई दादा-दादी बन गये, कोई चाचा-चाची बन गये, कोई माँ-मौसी, कोई बहन बन गई उसने स्वेटर बुन दिया। मोहल्ले के लोग ही मेरे परिवार-जन बन गए। उनके प्यार और सहयोग ने ही मुझे सामाजिक सोच का उदार और सकारात्मक सोच का व्यक्ति बना दिया। मेरी यह पंक्तियाँ ही इस बात का उदाहरण हैं—
हो के मायूस न यूँ शाम-से ढलते रहिये
ज़िन्दगी भोर है सूरज-से निकलते रहिये
एक ही ठाँव पे ठहरेंगे तो थक जाएंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये
प्रश्न – ‘वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान. निकलकर नैनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान’….इन पंक्तियों में कविवर सुमित्रानन्दन पंत ने कविता के प्रेरक तत्व के रूप में वियोग को माना है।…लगता है कि कविवर पंत प्रेमी- प्रेमिकाओं के वियोग की बात कर रहे हैं । (हँसकर) डॉ. साहब, आप भी अपने वियोग के बारे में कुछ बतायेंगे ?
उत्तर – अल्पना जी, वियोग कोई प्रेमी-प्रेमिका का ही नहीं होता। जिससे बिछुड़ने पर हृदय तड़प उठे वह वियोग ही है । महाराज दशरथ ने तो राम के वियोग में अपने प्राण ही त्याग दिए थे। मैंने भी अपने जीवन में कितने वियोग देखे। बचपन में ही पिता से वियोग, माँ से वियोग, बहन से वियोग, ये वियोग क्या कम हृदय-विदारक है । जहाँ तक प्रेमी-प्रेमिका के वियोग का प्रश्न है, तो वह तो मेरे युवा होने के प्रारम्भ में ही, प्रेम की अनुभूतियों के उठते ही, युवावस्था में भी अपने जीवन-संघर्ष से उलझे रहने के कारण, अवसर ही नहीं पा सका। तरंगें उठते ही अपनी परिस्थितियों में विलीन हो गईं. युवावस्था में व्यक्तिगत प्रेम करने का अवसर ही कहाँ मिला। मैंने एक गीत में लिखा भी है–
        संघर्षों से बतियाने में
        उलझा था जब मेरा मन
        चला गया था आकर यौवन
        मुझको बिना बताये
        ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती
        किसी प्रेमिका के हाथों से
        आँधी में उड़ जाए।
प्रश्न- इसी भाव के अनुसार आपकी रचनाधर्मिता भी चली… लेकिन आपके इस दर्द से लोगों की, श्रोताओं की एकात्मकता हुई और खूब हुई इसका आप क्या कारण मानते हैं ।
उत्तर – असल में अल्पना जी जो कवि नहीं भी होते वो भी भीतर से संवेदनशील होते हैं. बेशक से स्वयं को अभिव्यक्त न कर पाते हों, लेकिन उनके अंदर भी वो कविता निवास करती है जो कवि के अंदर करती है. कवि के पास एक कौशल होता है काव्य को रचने का, इसलिए वो लिख देता है लेकिन जो नहीं लिख पाता है महसूस तो वो भी करता है. हमारा दुख जब दूसरों के पास जाता है तो वे भी हमारे दुख के साथ एकाकार हो जाते हैं. इसे ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने हृदय की रस-दशा और मुक्तावस्था कहा है, इसे ही साधारणीकरण की संज्ञा दी है. जब मैं अपनी कोई दर्दीली कविता सुनाता हूँ तो मैंने लोगों की आँखों से आँसू बहते हुए देखे हैं. अब मुझे ऋषि मुनियों के मन्त्रों पर अटूट विश्वास होने लगा है . मैं सोचता हूँ कि जब मैं साधारण-सा व्यक्ति भी अपने गीत से लोगों को रुला सकता हूँ तो ऋषि-मुनियों ने तो ये मन्त्र वर्षों की तपस्या से सिद्ध किये थे, तो वे असरदार क्यों नहीं होंगे. हमारी रचनाओं से लोग प्रभावित होते हैं इसका सबसे से बड़ा कारण शब्द-साधना और यही साधारणीकरण है.
प्रश्न – आज कवियों में मूलतः दो वर्ग दिखाई देते हैं ,एक मंचीय कवियों का वर्ग और दूसरा मंच से इतर कवियों का। सामान्यतः मंच पर न जाने वाले कवि एवं कुछ समालोचक भी मंच के कवियों को दूसरे दर्जे का कवि मानते है । क्या यह उचित है ?
उत्तर – अल्पना जी, मैं इन कवियों के दो नहीं, तीन वर्ग मानता हूँ। एक वर्ग शुद्ध उन कवियों का जो मंच को दृष्टि में रखकर लोकप्रिय होने के लिए कविताएँ लिखते हैं । भले ही कविता के मानकों की दृष्टि से उनकी कविता कमज़ोर हो, किन्तु वे अपने कंठ, आवाज़ और अपनी प्रस्तुति के बल पर पूरे श्रोता-समुदाय को आनन्दित करके, उनका भरपूर मनोरंजन करके खूब प्रशंसा,धन और नाम कमाते हैं। दूसरा उन कवियों का वर्ग है जो शुद्ध कवि हैं, जो मंचों के लिये नहीं लिखते, उन पर मंच पर कविता पढ़ने का उतना कौशल भी नहीं है जितना मंच के लिए आवश्यक है। अतः वे मंच पर नहीं हैं, पत्र-पत्रिकाओं तथा किताबों या अपनी डायरियों तक सीमित हैं। वे इतने लोकप्रिय नहीं हो पाते किन्तु साहित्यकारों के बीच प्रतिष्ठा पाते हैं। तीसरा वर्ग उन कवियों का है जो मंच पर रहकर लोकप्रिय भी रहे है और साहित्य की समझ रखने वाले मनीषियों के बीच भी प्रतिष्ठित हैं । सौभाग्य से उनका कंठ, उनकी प्रस्तुति एवं विषयवस्तु की दृष्टि से जनमानस तक पहुँचने की क्षमताएँ भरपूर हैं। साहित्यिक मानकों पर भी उनकी रचनाएँ उत्कृष्ट कोटि की हैं। वे सर्वमान्य हैं।
इसी प्रकार साहित्य-समीक्षकों और आलोचना के क्षेत्र के महारथियों के भी वर्ग हैं। एक वे जो किसी न किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध हैं। इनमें अधिकतर लेफ्टिस्ट विचारधारा के समीक्षक हैं जो कविता में विचार-तत्व को प्रमुख मानते हैं और हृदय से जुड़ी कविता को लिजलिजी भावुकता कहकर या गलद-अश्रु भावुकता कहकर खारिज़ कर देते हैं। वे गेय कविता को गलेबाज़ी का नाम देकर सम्मान नहीं देते, और अतुकांत शैली में लिखी कविता को ही वास्तविक कविता मानते हैं। यही वह वर्ग है जिसने मंच पर कविता पढ़ने वालों को दोयम दर्जे का कवि माना। या यूँ कहें कि उन्हें कवि ही नहीं माना, फिर चाहे उस कवि की कविता समस्त साहित्यिक मानकों पर कितनी ही खरी क्यों न उतरती हो। वे यह भूल जाते हैं कि बीसवीं शताब्दी के बड़े कवियोंमें महाप्राण निराला भी मंच पर जाते थे और अपनी ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी कठिन कविता को भी सामान्य से सामान्य श्रोता के सामने पढ़कर उसे रूपायित कर देते थे। वे साहित्य में भी उच्च स्थान-प्राप्त कवि थे। मेरी समझ में यह नहीं आता कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कविता भी मंच पर पढ़ी जाने के कारण आज छोटी कैसे मान ली जाती है। हर ज़माने में कविता मंच पर भी पढ़ी गई। हाँ, मंच के स्वरूप बदलते रहे। कबीर का मंच वो कोठरी थी जिसमें वह जुलाहे का कार्य करते हुए अपने शिष्यों और अन्य लोगों को ‘सन्तो, आई ज्ञान की आँधी’ गाते-गाते ज्ञान की शिक्षा दे देते थे। महाकवि सूरदास का मंच वह चबूतरा था जिस पर वह कृष्णभक्तो के सामने अपने इकतारे पर ‘ऊधो, मन नाहीं दस-बीस’ कहकर अपने पदों का गायन करते-करते भक्ति, प्रेम और ज्ञान की त्रिवेणी को प्रवाहित कर देते थे । मीरा का मंच वे गलियाँ और चबूतरे थे जिन पर वे अपने मंजीरों की खनक से निकलती हुई ‘ ए री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरो दरद न जाने कोय’ जैसे पद गाकर लोगों के हृदय में आसन जमा लेती थीं। तुलसी चित्रकूट के घाट पर चन्दन घिसते हुए रामचरितमानस की चौपाइयां गाने लगते थे. …..तो फिर मंचों पर गाये जाने के कारण मंच की कविता और मंच के कवि दोयम दर्जे के कैसे हो गए ? मेरी दृष्टि से मंच की वाचिक परंपरा के प्रति नकारात्मक रुझान रखकर कुछ समालोचकों ने मंच की सच्ची कविता और सच्चे कवियों के साथ बहुत अन्याय किया। मैं मानता हूँ कि कविता यदि उच्च कोटि की है तो वह चाहे मंच पर हो या काग़ज़ पर, वह उच्च कोटि की ही है। हाँ, अगर वह अच्छी नहीं है तो उसकी आलोचना होनी चाहिए। कुछ को बाद में यह बात समझ में आई कि गेय कविता भी गेय होने से छोटी नहीं हो जाती। जिन्होंने ‘गीत मर गया है’ यह घोषणा कर दी थी उन्हें बाद में ‘गीत वापस आ गया है’ यह भी कहना पड़ा। …वैसे उनके द्वारा की गई यह घोषणा भी ग़लत ही थी कि ‘गीत मर गया’ । क्योंकि गीत कभी मर ही नहीं सकता। सृष्टि के आदि से आज तक गीत की सत्ता मनुष्य के हृदय की धड़कनों के साथ रही है और आगे भी रहेगी .
प्रश्न – लेकिन डॉ बेचैन का हम जब भी नाम लेते हैं तो वे ऐसे शख्सियत हैं जो मंचों पर भी उतनी ही धमक के साथ उपस्थित हैं जितनी धमक के साथ पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में ।..आप लेखन मे भी समुद्र जैसी गहराई लिए हुए हैं …आपको मंच और मंच से इतर दोनो क्षेत्रों में पूरा स्नेह मिला है. आप समालोचकों की निगाह में भी आये और पूरे सम्मानपूर्वक आये। इसी कारण आपके साहित्य पर चौबीस से अधिक शोधार्थियों ने विभिन्न विश्वविद्यालयों से शोधकार्य करके पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर ली है। यही नहीं आपकी रचनाएँ देश-विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं बोर्डों के पाठ्यक्रमों में भी पढ़ाई जाती हैं। इस सफलता का राज़ क्या है?
उत्तर – अल्पना जी इसमें राज़ की कोई बात ही नहीं है . सच बात यह है कि मेरा जोर केवल लिखने पर ही रहता है. उनमें से वे गीत, गजलें एवं अन्य कविताएं, जो सरल भाषा में होती हैं, किन्तु जिनमें भावों की गहराई और विचारों की उदात्तत रहती है उनको मैं मंच के लिए चुन लेता हूँ . इन कविताओं को आम लोगों से लेकर ख़ास लोग तक पसंद कर लेते हैं . जो कविताएं थोड़ी ऐसी होती हैं जो मंच पर सुनाने में श्रोता को कम समझ में आयेगी, उन्हें मैं छपने के लिए रख लेता हूँ. उन्हें पत्रिकाओं में और किताबों में दे देता हूँ. इससे मैं उन लोगों के बीच भी रह पाता हूँ जिनका कवि सम्मेलनों से कोई वास्ता नहीं है और जिनकी रुचि पठन –पाठन में ही है. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पठन-पाठन और कविसम्मेलनों इन दोनों में ही रुचि रखते हैं उन तक भी मैं इस विधि से पहुँच जाता हूँ. लेखन में पूरी ईमानदारी रखता हूँ . बस यही राज़ है जिसके कारण मैं अधिक से अधिक पाठकों और श्रोताओं के बीच रह पाता हूँ.
प्रश्न – आपने गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं में लिखा लेकिन अधिकांश लोग आपको गीतकार कहकर ही पुकारते हैं डॉ कुंवर बेचैन स्वयं को क्या मानते हैं गीतकार या गज़लकार ?
उत्तर – देखिए अल्पना जी सही पूछें तो कुंअर बेचैन तो स्वयं को हमेशा ‘रचनाकार’ के रूप में ही स्वीकारता है। रचनाकार बड़ा शब्द है जिसमें कविता की समस्त विधाओं के रचयिता, लेखक, कथाकार आदि सब समाहित हो जाते हैं. जिसने जिस विधा में अधिक काम किया हो उसकी पहचान उसी रूप में की जाने लगती है. मैंने ग़ज़लें भी प्रचुर मात्रा में कही हैं और गीत भी प्रचुर मात्रा में लिखे हैं इसलिए मैं गीतकार भी हूँ और गज़लकार भी. सोलह गजल–संग्रह और नौ गीत-संग्रह इसके प्रमाण हैं. यूं तो मैंने दोहे, कवित्त-सवैये, कुण्डलियाँ, अतुकान्त कविताएँ, माहिए, जनक छंद, जापानी काव्य-शैली में हाइकु और ‘तांका’ भी लिखे हैं, किन्तु काव्य-विधा की दृष्टि से मैं स्वयं को गीतकार और गजलकार कहलवाना ही पसंद करूंगा. लेकिन मेरा मुख्य रूप गीतकार का है.
प्रश्न– एक और रूप आपका देखने में आया और वह है महाकवि का. आज के दौर में जहां हम क्षणिका वाले दौर में आ चुके हैं, क्योंकि आज किसी के पास समय ही नहीं है ठिठकने और ठहरने का , तो ऐसे दौर में महाकाव्य लिखना निश्चित ही एक बहुत बड़े जीवट का काम है. कृपया बताएँ ‘प्रतीक पांचाली’ का अस्तित्व में आना किस प्रकार संभव हुआ ?
उत्तर – आपने बहुत अच्छा और महत्वपूर्ण प्रश्न किया अल्पना जी, क्योंकि यह महाकाव्य मेरी चालीस वर्ष की साधना का प्रतिफलन है और मेरा सौभाग्य यह रहा कि हम सभी के प्यारे और बहुत ही अद्भुत व्यक्तित्व श्रद्धेय मोरारी बापू के हाथों लगभग दस हजार लोगों के सामने ग्वालियर में इस महाकाव्य का लोकार्पण हुआ जिसे लगभग 125 देशों में लाइव देखा गया। श्रद्धेय मुरारी बापू का स्नेहपूर्ण आशीर्वाद मुझे मिलता रहा है।
महाकाव्य की आधार भूमि कई बरस पहले तैयार हुई थी. सन 1977 की बात है, उन दिनों मैं नवगीतकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था और पाठक, श्रोता तथा समीक्षक मुझे प्रतीकों का और बिंबों का कवि कहते थे। एक बार मैं एक यात्रा में था और मैंने स्टेशन से एक पतली सी किताब खरीदी जो कि गीता प्रेस गोरखपुर की थी जिसका नाम था ‘सती द्रौपदी’, मैंने रास्ते में उसे पढ़ना शुरू किया और जब तक मेरा गंतव्य वाला स्टेशन आया तब तक मैंने वह पुस्तक पूरी की पूरी पढ़ ली। इस किताब को पढ़ते हुए मुझे अंदर ही अंदर यह लगा कि यह तो सिर्फ द्रौपदी की कहानी नहीं है बल्कि इसमें तो वर्तमान प्रतीक भी ढूंढे जा सकते हैं. उस किताब को पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसमें तो जिंदगी के लिए जो आवश्यक जीवन-मूल्य हैं, वे भी प्रतीक बन कर आ रहे हैं. द्रौपदी और उसके पांच पति—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, ये सब मुझे प्रतीक ही नज़र आये. द्रौपदी मुझे ज़िन्दगी का प्रतीक नज़र आई और उसके पाँचों पति जीवन को सम्पूर्णता के साथ और पुरुषार्थ के साथ जीने के लिए आवश्यक पांच तत्व नजर आये. मुझे युधिष्ठिर मानव-धर्म के, भीम शकित के, अर्जुन कर्म के, नकुल विज्ञान के तथा सहदेव कला के प्रतीक लगे. जीवन के लिए जिन पांच आवश्यक विशेषताओं की ज़रूरत है, इनमें वे नजर आईं. देखा जाय तो मनुष्य के लिए मानव-धर्म, शक्ति, कर्म, विज्ञान तथा कला की आवश्कता हमेशा ही रही है. मानव-धर्म सत्य, अहिंसा, प्रेम,एवं संवेदना और बुद्धि के तत्वों को समाहित रखता है.  शक्ति मानव की रक्षा के लिए बहुत ज़रूरी है. कर्म के बिना तो कुछ है ही नही.  विज्ञान के प्रयोग से कहीं न कहीं कार्य क्षमता बढ़ती ही है. इसलिए मैंने नकुल को विज्ञान का प्रतीक बनाया। सहदेव बहुत खूबसूरत थे और साथ ही कला-प्रेमी भी थे. इसलिए उन्हें कला का प्रतीक चुना.  .
प्रश्न – ये तो बड़े सुन्दर और सार्थक प्रतीक बने हैं, डॉ.साहब, एक बार मैं जब आपसे इस काव्य के बारे में चर्चा कर रही थी  तो आपने द्रौपदी को एक और प्रतीक के रूप में भी रखा है यह बताया था. वह दूसरा प्रतीक क्या है  कृपया बताएँ.
उत्तर – हाँ, मैंने द्रौपदी को एक और प्रतीक के रूप में भी देखा. द्रौपदी मुझे  किसी भी राष्ट्र की प्रजा का भी प्रतीक  नज़र आई. आप देखिए कि जब दुशासन द्रौपदी के बाल खींच रहा है और  चीर-हरण कर रहा है तो मुझे लगा कि दुशासन अर्थात खराब शासन प्रजा का चीर-हरण कर रहा है. सोचा जाए तो किसी भी देश की प्रजा और उस राष्ट्र को अधिक  मजबूत होने के लिए इन पांच शक्तियों – धर्म, शक्ति, कर्म, विज्ञान तथा कला की ही आवश्यकता होती है.   किसी भी देश के   समाज में हमेशा सर्वोच्च आसन मानव-धर्म का होता है, धर्म  अर्थात  जीवन- मूल्यों का होता है और जीवन-मूल्य नैतिकता अहिंसा, दया, प्रेम, करुणा, नारी का आदर  आदि सकारात्मक संस्कारों से जुड़े होते हैं .  किसी भी देश में तभी सुशासन आ सकता है जबकि वहां का शासन इन जीवन- मूल्यों को मानकर चलता हो . द्रौपदी अर्थात प्रजा तथा राष्ट्र की रक्षा के लिए शक्ति की भी आवश्यकता  होती है. अर्थात भीम  की आवश्यकता होती है. किसी भी देश की सेना के अंग यानि जल-सेना , वायु-सेना तथा थल-सेना जितनी ही पुष्ट होगी वह देश उतना ही सुरक्षित हो सकेगा.  फिर मुझे लगा कि राष्ट्र और  जनता के संदर्भ में कर्म भी बहुत जरूरी है अगर राष्ट्र की जनता के हाथों में काम नहीं होगा और रोजगार उपलब्ध नहीं होगा तो कोई राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता. अर्थात राष्ट्र के लिए कर्म अर्थात अर्जुन की भी आवश्कता है.  फिर मुझे लगा कि किसी भी राष्ट्र की उन्नति में विज्ञान का भी बहुत बड़ा हाथ होता है. उससे राष्ट्र की कार्यक्षमता बढती है  और अन्य देशों के साथ  क़दम से क़दम मिलाकर चलने का हौसला मिलता है.  इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्र के विकास के लिए विज्ञान के प्रतीक नकुल की  भी बहुत आवश्यकता है. इसी प्रकार कला हमारे जीवन में रस भरती रहती है. हमें संवेदनशील बनाती है अतः देश और प्रजा के बौद्धिक और  आत्मिक विकास के लिए कला का बड़ा योगदान होता है. सहदेव इसी कला के प्रतीक हैं. इसी नजरिए से अगर देखा जाए तो राष्ट्र और उसकी प्रजा  के विकास के लिए ये  जो द्रौपदी के  पांच पति हैं,  ये  सिर्फ पांच पति ही नहीं,  बल्कि किसी भी राष्ट्र की प्रजा और राष्ट्र की पांच महाशक्तियों के रूप में देखे जा सकते हैं.  एक और प्रमुख पात्र श्री कृष्ण हैं. कृष्ण को मैंने क्रान्ति का प्रतीक माना. जब द्रौपदी-रूपी  प्रजा दुशासन के हाथों निर्वस्त्र की जा रही होती है  तो कृष्ण ही उसकी रक्षा के लिए आते हैं. द्रौपदी चीरहरण के समय हर पति के पास जाकर अपनी रक्षा की याचना करती है किन्तु जुए में हार जाने के कारण उसके पाँचों पति निष्क्रिय हो जाते हैं तो कृष्ण आते हैं. मुझे लगा कि जब द्रौपदी-रूपी प्रजा  को दुशासन निवस्त्र कर  रहा होता है तब  भी उसके पाँचों पति  चुप रहते हैं यानि   धर्म चुप रहता है, शक्ति चुप रहती है, कर्म चुप रहता है, विज्ञान चुप रहता है कला चुप रहती है तो कृष्ण छठी शक्ति के रूप में उसे बचाने को आ जाते हैं. अर्थात क्रान्ति आ जाती है .
इस  महाकाव्य में लगभग पौने चार सौ पृष्ठ हैं और २१ सर्ग हैं. जहां तक इस कथा की घटनाओं का सवाल है तो मैंने उन्हीं घटनाओं को प्रतीक बनाया है जो सीधी द्रौपदी से जुड़ी हैं. द्रौपदी के जन्म की  कथा, स्वयंबर की कथा आदि. स्वयंवर मुझे चुनाव के रूप में दिखाई दिया जिसमें द्रौपदी-रूपी प्रजा ने  उस पुरुषार्थी अर्जुन को वरमाला पहनाई  है जिसके साथ मानव-धर्म है, ,शक्ति है,  विज्ञान है एवं कला भी है. जो अपने लक्ष्य के लिए सचेत है. जो स्नेह के कढाव में झांककर धरती की ओर निहार कर मछली रूपी चंचलता की आँख को बेधना जानता  है
द्रौपदी का यह  स्वयंवर नारी के उस स्वभाव का भी परिचायक है जिसमे नारी के पुरुष  के प्रति उन आकर्षण बिन्दुओं की  ओर इंगित किया गया है जो उसे पुरुष के प्रति आकर्षित करते हैं. नारी स्वभाव से उस पुरुष को पसंद करती है जिसमें यह पांचों तत्व हों अर्थात  जो युधिष्ठिर की तरह नीति-मर्मज्ञ और मानवीय जीवन-मूल्यों से सुसज्जित हो,  जो भीम की तरह शक्तिशाली हो, जो अर्जुन की तरह कर्मठ हो,  जो नकुल की तरह वैज्ञानिक सोच का हो और जो सहदेव की भांति कला-मर्मज्ञ और सुन्दर हो. अर्जुन इन सभी गुणों को अपने  साथ लिए हुए  हैं.  द्रोपदी ने अर्जुन को इसीलिए चुना . द्रौपदी को अगर हम जनता माने तो जनता भी ऐसे ही नेता को चाहती है जिसमें ये पाँचों  गुण  हों.
इस महाकाव्य में मैने अपनी पूरी साहित्यिक क्षमता को सामने लाने की  कोशिश की है.  भाव-पक्ष और कला- पक्ष दोनों का समन्वय बिठाने की कोशिश की है. जिन्होंने भी इस महाकाव्य को पढ़ा है उन्होंने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है. इन दिनों इस महाकाव्य पर सुश्री सोनिका जी गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से शोधकार्य कर रही हैं.
प्रश्न – बहुत ही अद्भुत व्याख्या की है आपने ‘प्रतीक पांचाली’ की . आपने साहित्य-जगत को अद्भुत महाकाव्य दिया. दिया और बहुत ही अद्भुत था और समाज ने भी इसे हाथों हाथ लिया,. लेकिन आपके लेखन का एक दूसरा पक्ष भी है और वह है गद्यकार का तो एक गद्यकार के पक्ष पर भी थोडा  प्रकाश डालें?
उत्तर- अल्पना जी आपने बिल्कुल सही बात कही और है वाकई मेरा भी यह मानना है कि मैं कवि के तौर पर मंचों पर जाता रहा और मेरी  काव्य-रचनाएँ  ही अधिकांशत सामने आती रहीं मेरा जो गद्यकार वाला स्वरूप है वह बहुत अधिक चर्चा में भी नहीं आ पाया . मैंने ‘मरकत द्वीप की नीलमणि’ नाम से एक ललित उपन्यास लिखा है,  जिस तरह से ललित निबंध होते हैं उस तरह का उपन्यास है यह. जब आप इसे पढ़ेंगे तो लगेगा कि मानो कोई कविता पढ़ रहे हैं.  इस पूरे उपन्यास में नायिका अपनी मां के चित्र के सामने अपनी  प्रेम-कथा सुना रही है. वह  किस से प्रेम करती है, कितना अधिक प्रेम करती है ये सब बातें बता रही होती है.  साथ ही वह अपने प्रिय के प्रेम को भी अलग-अलग रूपों में व्याख्यायित करती है.   इस उपन्यास में नायिका के मन की दुनिया का ही विश्लेष्ण है. बाहर की दुनिया तो केवल कुछ ही देर को आती है. ये उपन्यास  लगभग 100 पेज का एक छोटा सा उपन्यास है. यह पहले तो  मैंने खुद ही छपवाया था और बाद में राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली  ने पेपरबैक में  छापा.  जिसने भी इसे पढ़ा उसे काफी सराहा.  पाठकों के बीच खूब चर्चित हुआ.
दूसरा जो उपन्यास मैंने लिखा वह था ‘जी हां मैं ग़ज़ल हूं’ यह उपन्यास  मिर्ज़ा गालिब की ज़िन्दगी पर आधारित है। मैंने मिर्जा गालिब  से संबंधित बहुत सारी किताबें पढ़ी और फिर मुझे लगा कि मुझे मिर्जा गालिब के बारे में उपन्यास की  शैली में कुछ लिखना चाहिए।  200 पेज के करीब का यह उपन्यास है.   इसमें मैंने ग़ज़ल नाम का एक कल्पित पात्र तैयार किया । ग़ज़ल खुद मिर्जा गालिब से मिलती है। इसमें वे घटनाएं और दृश्य हैं जिससे ये पता चलता है कि मिर्जा गालिब क्या है, उनकी शायरी क्या है, किस तरह से उनका जीवन था,  किस तरह का  उनका रहन-सहन रहा होगा,ये सारी बातें  ग़ज़ल नामक पात्र के माध्यम से कहलवाई गई हैं. उनकी पुस्तकों के बारे में विवेचन, उनकी जिंदगी के बारे में विवेचन, उनकी तकलीफों के बारे में कहने का प्रयास, उनके साहित्य के बारे में क्या-क्या उनके साथ हुआ, वह सब कहने का प्रयास इसमें किया गया है.
इन उपन्यासों के अतिरिक्त मेरी बहुत सारी लघुकथाएं भी हैं जो  समय-समय पर बहुत सारी पत्रिकाओं और अखबारों में छपती रही हैं, जैसे कि सारिका, कादंबिनी, नवनीत आदि। अब मैं इन लघुकथाओं का संग्रह भी  छपवाने वाला हू.. इन के अतिरिक्त मैंने यू. के. के यात्रा-वृत्तांत पर भी एक पुस्तक डॉ.प्रवीण शुक्ल के साथ मिलकर लिखी. जिसका नाम है ‘बादलों का सफर’. इनके अतिरिक्त कुछ लेख भी अपने कवि-मित्रों पर लिखे. लगभग 350 किताबों की भूमिकाएं भी लिखीं हैं जो लगभग ढाई हज़ार पृष्ठों में है. अपनी आत्म कथा के कुछ अंश एवं अपनी गीत-यात्रा को भी गद्य में लिखा है. जिन कविसम्मेलनों में मैंने भाग लिया उनकी पर्सनल  रिपोर्टिंग भी कविसम्मेलन के इतिहास के रूप में सामने आएगी. जो लगभग १५ हजार पृष्ठों में समाहित हो पायेगी. इस प्रकार गद्य-लेखन भी मैंने खूब किया है.
प्रश्न- आदरणीय एक चिंता आज सुधि साहित्यकारों के मन- मस्तिष्क पर छाई हैं कि वर्तमान पीढ़ी साहित्य को पढ़ना नहीं चाहती, आपका इस बारे में क्या मानना है?
उत्तर – देखिए, ऐसा नहीं है कि आज की पीढी साहित्य को पढती नहीं है. पढ़ने का मंच बदल गया है. पहले लोग पुस्तकालयों में जाते थे, वहां किताबें और पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते थे,लेकिन अब लाइब्रेरी उनके घर में आ गई है. यानि कि लैपटॉप के जरिए या मोबाइल के माध्यम से किसी भी तकनीक का इस्तेमाल करके आज की पीढ़ी अपनी  मनपसंद सामग्री जुटा लेती है। लेकिन यह बात भी सही है कि आज की पीढी पढने में इतना समय नहीं लगाती जितना लिखने में और अधकचरा लेखन फेसबुक आदि पर पोस्ट करने में लगाती है . कितने लाइक आये, कितने कमेन्ट हुए युवा इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं. गम्भीर अध्ययन से विमुख हैं. मैं सबके लिए नहीं कह रहा. अनेक युवा ऐसे हैं जो खूब मेहनत कर  रहे हैं, लेकिन जैसे पहले उपन्यास आदि जिस शिद्दत के साथ पढ़े जाते थे, अब वैसा नहीं है. ,अपने आप को पढ़ना ज्यादा हो गया है कि मैंने क्या लिखा,  मैंने क्या कहा,  बस उसी में ही उलझे रहते हैं. कुछ ग्रुप भी बने रहते हैं जिनमें पठन-पाठन होता रहता है जैसे कुछ दोहे के ग्रुप बने हैं, कई ग़ज़लों के ग्रुप बने हुए हैं तो उनमें अक्सर चर्चाएं चलती रहती हैं और उसी बहाने अलग-अलग छंदों की जानकारियां दी जा रही हैं. क्या पढना है, क्या छोड़ना है, इसका विवेक ही नयी पीढी को सही रचनाशीलता और रचना-धर्मिता से जोड़ पायेगा. लेखन के लिए चिन्तन-मनन और विभिन्न विधाओं के सैद्धांतिक पहलुओं का भी ज्ञान पाना और देना भी बहुत ज़रूरी है. मैं  हमेशा यह बात कहता रहा हूँ  कि कला का कोई ‘शोर्ट-कट’ नहीं होता, वह तो सतत साधना है. जहां शीघ्रता के बजाय इंतज़ार और धैर्य की आवश्यकता अधिक है.
प्रश्न – जी सर,  आपने बिल्कुल सही कहा क्योंकि आज की जो पीढ़ी है वह दो-चार कविताएं लिख करके तुरंत किताब छपवाने की ओर उन्मुख हो जाती है और उसकी पहली कोशिश यह रहती है कि उस किताब में भूमिका किसी बड़े साहित्यकार की मिल जाए । ऐसे ही भूमिका लिखने का काम आपको भी लगातार करते रहना पड़ता है. आपका इस बारे में क्या कहना है?
उत्तर – देखिए अल्पना जी, इस बारे में, मैं यह कहना चाहूंगा कि भूमिका-लेखन का काम मैंने बहुत किया है. वरिष्ठ भी और युवा नवोदित प्रतिभाएं भी अक्सर मेरे पास भूमिका लेखन के लिए आते रहते हैं. पहली बात तो यह है कि जब भी मैं भूमिका लिखता हूं तो पहले पांडुलिपि को पढ़ता हूं और उस पांडुलिपि को पढ़ने के बाद अगर मुझे लगता है कि अभी इसमें बहुत सी कमियां हैं और यह लगता है कि इसमें संशोधन होना चाहिए  तो मैं भूमिका लिखने को मना कर  देता हूँ. और यह कहता हूं कि आप और मेहनत कीजिए, अभी  और लिखिए, तब किताब छपवाने के बारे में सोचें.  लेकिन यदि किसी रचनाकार की पांडुलिपि देख कर मुझे लगता है कि हां इसमें संभावनाएं हैं, हालांकि त्रुटियां भी है लेकिन संभावनाएं हैं तो मैं थोड़ा बहुत संशोधन का प्रयास करता हूं पुस्तक को  सही रूप देने का प्रयास करता हूं फिर भूमिका-लेखन का काम करता हूं। शुरूआती दौर में तो मैं पुस्तक में बहुत ज्यादा संशोधन करने में लग जाता था और  यह कार्य बहुत ज्यादा समय ले लेता था लेकिन अब मैं उतना नहीं कर पाता हूं .  कभी-कभी कोई नवोदित रचनाकार किताब पर आशीर्वाद लेने की  जिद ही पकड़ जाता है उस स्थिति में मैं एक ऐसा निर्णय लेता हूं कि जो किताब में अच्छी-अच्छी बातें हैं और जो भी उसकी खूबियाँ हैं उनको भूमिका में रेखांकित करता हूँ । भूमिका लिखते समय मुझे ध्यान रहता है कि मैं ‘भूमिका’ लिख रहा हूं लोग समझते हैं कि मैं ‘समीक्षा’ लिख रहा हूं .  वह पढ़ते समय सोचते हैं कि इसमें समीक्षा होनी चाहिए थी और मैं लिखते समय सोचता हूं कि यह भूमिका है । ‘भूमिका’ और ‘समीक्षा’ के बीच एक बहुत ही बारीक रेखा  है जिसके अंतर को पहचानना जरूरी है . भूमिका किसी पुस्तक पर ख़ास तौर से नवोदितों को एक आशीर्वादात्मक विचार है तथा समीक्षा उस किताब के छपने के बाद उसके गुण-दोषों का विश्लेष्ण है.
भूमिका-लेखन में मेरा उद्देश्य नए रचनाकार को प्रोत्साहित करना होता  है, ,यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि एक बार एक व्यक्ति ने बहुत आक्रामक होकर मुझसे इस बारे में पूछा था और संयोग से वह जो है खुद कवि-सम्मेलनों के संचालक भी थे तो मैंने उनसे यह कहा कि आप संचालक हैं और मान लीजिए मंच पर कोई नवोदित कवि बैठा है और उसे रचनापाठ को आमंत्रित करना है तो क्या आप उसको आमंत्रित करते हुए ऐसे बोलते है कि आइये आप ऐसे कवि को सुनिए जिसे न छंद ज्ञान है और न भाषा ज्ञान. वे बोले कि वह तो हम उसकी ‘भूमिका’ बना रहे होते हैं. मैंने तपाक से उत्तर दिया  यही तो  मैं करता हूँ, आप कविसम्मलेन में उसकी भूमिका बनाते हैं मैं पुस्तक में उनकी भूमिका लिखता हूँ. आप भी नवोदित की मंच पर तारीफ कर रहे होते हैं, मैं भी पुस्तक में नवोदित की तारीफ कर रहा होता हूँ. उनके मुंह से अचानक निकला ‘भूमिका’ शब्द मेरे बहुत काम आया और वे निरुत्तर हो गए. आज तक मैंने लगभग  350 पुस्तकों कि भूमिकाएँ लिखी हैं जो 2800 पृष्ठों में हैं. जिनके 4-5 वॉल्यूम आ सकते हैं अब वह आएंगे भी मैं तैयारी कर रहा हूं उसके लिए, क्योंकि भूमिकाओं में जो है वह सिर्फ कविताओं का ही जिक्र नहीं होता है बल्कि मेरे व्यक्तिगत विचार भी होते हैं तो इसलिए वह मेरे लिए  महत्वपूर्ण हो जाती है। भूमिका करते समय कविता के बारे में गीत के बारे में जो मेरे पैराग्राफ आ जाते हैं जो कि उसकी कविताओं से इतर बातचीत होती है, अलग तरह का विचार होता है उनको अगर संकलित किया जाए तो एक पुस्तक अलग से निकल कर आ सकती है.। भूमिका लिखते समय कहीं पर मैं रचनाकार की रचना से बात शुरू करता हूं कहीं पर मैं अपनी कोई नई कहानी बनाकर के बाद शुरु करता हूं कहीं पर मैं कोई उद्धरण देते हुए बात शुरू करता हूं तो इस तरह से बहुत सी ऐसी बातें जो है उस समय अनायास लिखते समय  भूमिका लेखन में आ जाती है जो इनमे जो मेरे मौलिक विचार होते हैं तो उनको भी किताब का रूप जो है वह दिया जा सकता है
प्रश्न- बिल्कुल सही कहा सर आपने वाकई प्रोत्साहन  व्यक्ति को क्या से क्या बना देता है और आपकी यह खूबी है कि आपने इतने नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहन दिया है कि  आज बहुत से रचनाकार आपके प्रोत्साहन के कारण ही शिखर तक पहुंचे हुए हैं. कई वर्ष पूर्व आप अपने घर में एक कार्यशाला भी करते थे  ,जिसके माध्यम से आप ने  अनेक रचनाकार तैयार किए थे जो आज  अलग-अलग विधाओं में जो है नाम कमा रहे हैं,उसके बारे में विस्तार से बताएं?
उत्तर – देखिए, मैं एक अध्यापक रहा हूं तो मुझे हमेशा यह लगता रहा है  कि जितना ज्ञान मैंने पाया है वह मैं अपने विद्यार्थियों को दे पाऊं. उस समय बहुत से ऐसे नए-पुराने रचनाकार  मेरे पास आ जाते थे जो अलग-अलग विधाओं में लिखते थे कविता लिख रहे हैं,ग़ज़ल लिख रहे हैं, गीत लिख रहे हैं,  संशोधन के लिए अक्सर मेरे पास अलग अलग समय पर आते थे, चूँकि  यह अलग-अलग समय होता था तो फिर मैंने यह निर्णय लिया कि उन्हें हफ्ते में एक दिन तय करके बुलाया जाए. जिनको भी सीखना है,जानना है, पूछना है, कुछ भी तो हमने बृहस्पतिवार का दिन तय किया और इस तरह से मैंने यह 3 साल तक  ‘ निशुल्क काव्य-कार्यशाला’ को चलाया.  बृहस्पतिवार को शाम को  5:00 बजे आरंभ हुई कार्यशाला रात के ग्यारह बारह  बजे तक समाप्त होती थी. जिसकी रचना अच्छी होती थी उसे ₹5 का पुरस्कार अवश्य देता था,आज भी  उनके पास यह ₹5 सुरक्षित रखे हुए हैं,अगली गोष्ठी में रचनाकार इस पुरस्कार की चाह में और बेहतर कार्य करते थे. इसी कार्यशाला के उस समय के नवोदित रचनाकार आज प्रतिष्टित रचनाकार हैं जैसे डॉ चेतन आनंद, अनिल असीम आदि जिनकी अनेक पुस्तकें  भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
प्रश्न – आदरणीय आपके विशद  लेखन पर अनेक शोध कार्य हुए,हमारी इच्छा है कि थोड़ा उस पर भी प्रकाश डालें. .
उत्तर – मेरे व्यक्तित्व पर, मेरी रचनाधर्मिता पर, मेरे लेखन पर अब तक विभिन्न विश्वविद्यालयों से 24 शोधार्थियों ने शोधकार्य सम्पन्न कर उपाधि हासिल की है और ८ इसे एनी शोधार्थी हैं जो मेरे साहित्य पर शोध कार्य कर रहे हैं .  पहला शोध कार्य सन   १९८४ में मेरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  डॉ सोहनलाल शीतल ने आगरा विश्वविध्याल से किया था. . इसके पश्चात् कानपूर विश्वविद्यालय , रूहेलखंड विश्वविद्यालय, मेरठ विश्वविद्यालय तथा  महाराष्ट्र के अनेक विश्विद्यालयों में शोध कार्य हुए. किसी ने मेरे साहित्य में संवेदना और शिल्प पर, किसी ने सौंदर्य शास्त्र की दृष्टि से, किसी ने कथ्य और शिल्प कि दृष्टि से, किसी ने बिम्ब विधान कि दृष्टि से, किसी ने नारी भावना, किसी ने श्रृंगार, किसी ने प प्रतीक विधान आदि कि दृष्टि से से ये शोध कार्य किए. कुछ ऐसे शोधकार्य भी हैं जो प्रकाशित भी हुए जिनमे डॉ. अंजु सुमन भटनागर द्वारा किया गया कविरत्न डॉ. कुंवर बेचैन के साहित्य में  प्रतीक विधान एवं डॉ पालीवाल ने “डॉ कुंवर बेचैन कि गजलों में साहित्य एव सौन्दर्य शास्त्रीय अध्ययन” पर कार्य किया. डॉ.पुष्पलता अधिवक्ता जी ने मेरे साहित्य में नारी भावना पर, डॉ ऋतु भटनागर जी ने बिम्ब विधान ने भी मेरे ऊपर कार्य किया. महाराष्ट्र में मेरे ग़ज़ल साहित्य पर कई कार्य हुए. कुछ छात्रों ने मेरे साहित्य पर एम फिल की डिग्री भी हासिल की.
प्रश्न – आपके निर्देशन में भी अनेक शोधकार्य हुए है उनके सम्बन्ध में भी बताएं ?
उत्तर – संयोग कि बात है कि मेरे निर्देशन में सबसे पहला शोध कार्य हिसार से आपके गुरुवर  डॉ. मधुसुदन पाटिल जी,जो बहुत बड़े व्यंग्यकार भी हैं उन्होंने किया और मेरे निर्देशन में अंतिम शोधार्थी आप स्वयम यानि अल्पना सुहासिनी रहीं. अप दोनों के आलावा २० अन्य शोधार्थियों ने मेरे निर्देशन में शोध कार्य किया है।
जिनमें विश्वप्रसिद्ध कवि और संचालक डॉ कुमार विश्वास भी हैं. इनके अतिरिक्त सुप्रसिद्ध कवि और संचालक डॉ. प्रवीण शुक्ल, प्रसिद्ध नवगीतकार डॉ. योगेंद्र्दत्त शर्मा, डॉ. श्याम निर्मम,प्रसिद्ध  कवयित्री डॉ.तारा गुप्ता, डॉ. पाल भसीन भी हैं.
प्रश्न- सर आपसे जानना चाहेंगे कि आपने कविता कब लिखनी शुरू की और  आपका उपनाम  नाम कैसे पड़ा?
उत्तर- एक बड़ी रोचक कथा है जब मैं नवी कक्षा में पढ़ता था 1955 में तो मैं कविताएं लिखने लग गया था। मैं जो भी कविताएं लिखता था वह क्लास में सुनाता था और मेरे जो टीचर थे पंडित  महेश्वर दयाल शर्मा जी वे कवि थे। उस समय नवी कक्षा में जब मैं 13 साल का था उन्होंने मुझे कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया  हर सप्ताह वहां पर एक डिबेट होती थी और उस डिबेट में मुझे बुलाया जाता था और यह कहा जाता था कि मुझे जो है उसमें कविता सुनानी है इस तरह से हर 15 दिन कविता लिखने की आदत हुई।  उस समय मैं कुंवर बहादुर सक्सेना नाम से लिखता था  लेकिन मेरा नाम जो है वह कुंवर बहादुर के नाम से अधिक प्रचलित था और बहादुर सक्सेना के नाम से नहीं। उन्हीं दिनों छोटी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कविताएं जो है वह प्रकाशित होने लगीं तो कुंवर बहादुर के नाम से प्रकाशित होती थी लेकिन मैं आपको बता दूं कि मैं कॉमर्स का विद्यार्थी रहा था साहित्य का विद्यार्थी नहीं था और 1963 में मैंने एमकॉम किया था और उसके बाद में  १९६५ हिंदी में एम ए किया और गाज़ियाबाद के एम् एम् एच  महाविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति हो गई.  पीएचडी १९७५  भी हिंदी में ही की  और हिंदी का ही अध्यापक भी रहा। मुझे यह पता था कि कविता लेखन में सभी अपना उपनाम जरूर रखते हैं जैसे नीरज जी, दिनकर जी, सुमन जी आदि। सभी के उपनाम सुन-सुनकर मुझे लगने लगा कि मुझे भी उपनाम रख लेना चाहिए।  चूंकि सभी लोग जो अपना उपनाम अपनी ज़िन्दगी से भी उठाते थे और मेरी ज़िन्दगी में बहुत तकलीफ थी,दर्द था तो मैंने उस समय अपना उपनाम रखा कुंवर बहादुर सक्सेना ‘अश्रु’ यह किसी को पता नहीं था कि मैंने अपना उपनाम ‘अश्रु’ रख लिया है यह सिर्फ मेरी डायरी को पता था क्योंकि मैं डायरी में लिखता था  अपना ,फिर मुझे लगा कि अश्रु बोलने में लोगों को थोड़ी सी असुविधा होती है तो मैंने उसे थोड़ा आसान किया और मैंने अपना नाम रख लिया ‘आंसू’।  तलाश में था कि कुछ अच्छा सा उपनाम मिल जाए।  1957 में जब मैं हाईस्कूल का छात्र  था तो उन दिनों में चतुष्पदी  लिखने लगा था  जिसे मुक्तक भी कहते हैं, एक दिन मैंने चतुष्पदी लिखी –
‘मुझे दिन-रात किसी वक़्त भी राहत न मिली,
मैं हूं बेचैन मुझे चैन की आदत न मिली,
मैं तो अपने लिए उस वक्त कुछ और कहता,
मगर चांद और सितारों की शहादत न मिली।
बाद में मैंने इस मुक्तक पर गौर किया और देखा कि दूसरी पंक्ति में अपने आप ही ‘बेचैन’ शब्द आ गया है तो मुझे ऐसा लगा मानों मां सरस्वती ने मुझे उपनाम दे दिया। उसके बाद मैंने कुंवर बहादुर सक्सेना बेचैन के नाम से लिखना शुरु कर दिया.  लेकिन जब लगा कि यह नाम जरा लंबा है तो मैंने सक्सेना हटा दिया और कुंवर बहादुर बेचैन के नाम से लिखने लगा, फिर लगा कि कुंवर बहादुर बेचैन भी जरा ज्यादा लंबा नाम है तो मैंने उसमें से बहादुर भी हटा दिया और कुंवर बेचैन नाम रख लिया और उसी नाम से मैं अपनी कविताएं पात्र-पत्रिकाओं में छपवाने लगा । चंदौसी में जब छुटियों में जाता तो अपने गुरुवर श्री गंगाशरण शर्मा शील जो वहां हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे उनसे मिला,तो उन्होंने मुझे कहा कि बेटा तुमने अपना नाम कुंवर बेचैन तो रख लिया है लेकिन तुम जिंदगी भर बेचैन ही रहोगे क्योंकि नाम का असर व्यक्ति के ऊपर आता है, इसलिए तुम अपना नाम रखो ‘कुंवर आनंद’ क्योंकि यह कुंवर आनंद रखने से जिंदगी  भर आनंद ही आनंद रहेगा लेकिन मुझे यह नाम जन्चा नहीं,क्यूंकि मैं कुंवर बेचैन के नाम से पात्र पत्रिकाओं में प्रसिद्ध हो चुका था. और आनंद शब्द मुझे अपने व्यक्तित्व से अलग नजर आ रहा था। मैंने कुंवर आनंद नाम तो नहीं रखा लेकिन मैंने फिर आनंद रखने की बनिस्बत बेचैन हटा दिया और सिर्फ कुंवर के नाम से कविताएं भेजना शुरू कर दिया तो लोगों के पत्र मेरे पास आने शुरू हुए कि भाई एक कुंवर नाम से व्यक्ति लिख रहा है और वह बिल्कुल आप की तरह ही लिखता है मुझे लगा कि लोगों को भ्रम हो रहा है और नाम को लेकर लोग पशोपेश की स्थिति में हैं तो ऐसे में मैंने फिर से अपना नाम जो है कुंवर बेचैन लिखना ही शुरु कर दिया।
 प्रश्न- बहुत ही अद्भुत रोचक प्रसंग सुनाए आपने जब ऐसे प्रसंग चल ही पड़े हैं तो कोई ऐसा प्रसंग सुनाइए जो आपको हमेशा याद रहता हो?
उत्तर- अल्पना जी, कवि सम्मेलनों से जुड़े यूँ तो अनेक प्रसंग हैं लेकिन एक रोचक प्रसंग आप सबको सुनाता हूं। यह बहुत पुरानी बात है लगभग कहा जा सकता है कि 50 साल पुरानी होगी। तब मैं नया-नया मंच पर आया था हरदोई जिले के पास एक छोटा सा गांव है, वहां पर कवि सम्मेलन था. उस कवि सम्मेलन में पंपलेट जो छपे थे उसमें शॉर्टकट में नाम लिखे गए थे तो मेरे नाम को लिखते समय उन्होंने कुंवर बेचैन की जगह शार्ट फॉर्म में ‘कु0 बेचैन’ कर दिया । सभी पोस्टरों में भी यही नाम लिखा हुआ था कु0 बेचैन । उस उस समय मेरी उम्र भी अभी 25 साल की ही थी और संचालक महोदय जो संचालन कर रहे थे वह एक-एक कर सभी कवियों को बुला रहे थे। संचालक महोदय ने यकायक बोला कि अभी तक हमने इतने कवियों को सुना तो आइए अब एक महिला स्वर भी सुनते हैं, मैं बुला रहा हूं एक ऐसी महिला आवाज को जो बहुत प्रसिद्ध है और जो मंच पर बहुत कामयाब है जिनके गीत और ग़ज़ल खूब सराहे जाते हैं, ग़ज़लकारा हैं, गीत कवयित्री हैं यानि कुमारी बेचैन, और मैं यह सोच रहा था कि शायद कुमारी बेचैन कोई और होगी ,मुझे लगा कि कोई नई कवियट्री होगी , इसलिए मैं चुपचाप बैठा रहा। संचालक भी सोच रहे थे कि कुमारी बेचैन तो आई नहीं । मेरे जानकार एक हरदोई के कवि थे जो वो दौड़कर आए और संचालक से बोले कि कुमारी बेचैन नहीं कुंवर बेचैन। यह सुनते ही संचालक सकपका गए और माफी मांगने लगे और बोले कि अरे अरे माफ कीजिएगा यह तो महिला नहीं है पुरुष है कुंवर बेचैन है। अब जब मैं मंच पर आया तो लोग ठहाके लगाने लगे बहुत बेतहाशा हंसने लगे फिर मैंने स्थिति संभालते हुए कहा कि शायद संचालक महोदय ने मेरा वह गीत सुना होगा कि ‘बिछुए जितनी दूर कुंवारे पांव से इतनी दूर पिया तुम मेरे गांव से” तो इन्हें लगा होगा कि पिया को तो एक प्रेमिका ही बुला सकती है तो शायद यह महिला ही होंगी इसलिए गलती हुई होगी,ये सुनकर श्रोता खूब हँसे. यह मेरी जिंदगी का बहुत रोचक संस्मरण है हमेशा याद आता है तो बहुत ही हंसी आती है।
प्रश्न- वाकई अद्भुत रोचक प्रसंग है ,आदरणीय मेरा मानना है कि कुछ व्यक्तियों का कद जो है वह सम्मान से बहुत ऊपर होता है और आप बिल्कुल ऐसी ही शख्सियत है जो सभी सम्मानों से बहुत ऊपर का कद रखते हैं यद्यपि आपको इतने अधिक सम्मान मिले हैं और पिछले दिनों पद्मश्री देने की बात भी उठ रही थी, सम्मानों को लेकर आपका क्या नजरिया है आप क्या सोचतेहैं।
उत्तर – बहुत सीधी सीधी बात है अल्पना जी, जब मैंने कविता शुरू की थी तो मैंने पैसे के लिए नहीं की थी लेकिन पैसा मिल गया,मेरा तो बस इतना ही मकसद था कि जो भीतर भाव उमड़ते- घुमड़ते रहते हैं वह शब्दों के माध्यम से प्रकट हो जाएं और वह लिखे भी गए। मंच पर भी आ गया मंच के माध्यम से भी बहुत स्नेह और प्यार लोगों का मिला और कब किताबें भी बहुत सारी प्रकाशित हुई लोगों के बीच तक पहुंची उन्हें भी बहुत स्नेह मिला। सम्मानों की अगर बात करें तो सम्मान भी मुझे बहुत मिले हैं अब तक देश-विदेश के करीब ढाई सौ के करीब सम्मान जो हैं वह मुझे मिल चुके हैं। उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से जो कि पूरे देश में एक व्यक्ति को मिलता है यानि हिंदी गौरव सम्मान वह भी मुझे मिल चुका है , हालांकि बहुत ज्यादा फर्क तो नहीं पड़ता पर कभी-कभी भीतर ही भीतर लगता है कि हां भाई अगर पाठक, श्रोता मुझे पद्मश्री दिए जाने की मांग कर रहे हैं, थोड़ा सा तो लगता है कभी-कभी कि हां कम से कम 23 देशों की यात्रा में कर चुका हूं, अब तक 35 किताबें लिख चुका हूं,शोध कार्य भी हो चुके हैं मेरे साहित्य पर , पाठ्यक्रमों में भी सम्मलित हूँ, फिल्मों में भी गीत लिखे हैं, काम किया है तो मिलना तो चाहिए हिंदी के प्रचार प्रसार में जो भी योगदान कर सकता था वह करने का प्रयास भी मेरा रहा है। हमारे मित्र-स्नेही जब कहते हैं कि पद्मश्री आपको मिलना चाहिए तो कभी-कभी लगता तो है हल्का सा कहीं भीतर, लेकिन मैं बहुत ईमानदारी से यह बात कहता हूं कि मेरी पद्मश्री तो आप लोग हैं , आप सबके हृदय में बैठा हुआ हूं, इतने कवि सम्मेलनों में जाता हूं, अबतक लगभग 5000 कवि सम्मेलन मैं कर चुका हूं तो आप लोगों का जो अगाध स्नेह मुझे मिलता है वह मेरे लिए बेशकीमती है मेरा पद्मश्री वही है, सम्मान मिल जाता पद्मश्री तो भी अच्छा लगता नहीं मिला तो भी कोई बात नहीं है लेकिन मेरे श्रोता और उनसे मिलता प्यार मेरे लिए असल पद्मश्री है।
प्रश्न – अक्सर हमने देखा है कि जब भी आप मंच पर बैठे होते हैं तो लगातार कुछ लिखते रहते हैं वह क्या है?
उत्तर- जब मैं शुरू में कवि सम्मेलनों में जाता था तो मैंने ऐसा कुछ ध्यान नहीं दिया था फिर मेरे मन में पता नहीं क्या शौक जगा और मैंने कवि सम्मेलन में बैठे बैठे उसकी पूरी की पूरी प्रक्रिया संकेत में लिखनी शुरू कर दी कि किस तरह से किस कौन-कौन कवि आए, किस ने क्या सुनाया। एक हिंट के तौर पर में कागज पर लिखने लगा बहुत दिन बीत जाने के बाद मुझे अचानक लगा कि यह तो अच्छा खासा कवि सम्मेलनों का इतिहास तैयार हो रहा है क्योंकि मैं प्रत्यक्षदर्शी हूं मैं उसका भी सम्मेलन का हिस्सा हूं मैं देख रहा हूं और जिस समय से मैं जा रहा हूं उसे लेकर आज तक का सफर है इसके तो कई संस्करण आ सकते हैं तो मैंने गंभीरता से लिखना शुरू किया। और ये वाचिक परम्परा का इतिहास तैयार हो सकता है। क्योंकि मैं वाचिक परम्परा को बहुत महत्त्व देता हूं। हालांकि कवि-सम्मेलनों के कारण मुझे अपने परिवार से बहुत बहुत दिन दूर रहना पड़ा जिसमें मेरी पत्नी संतोष कुंवर ने मेरा बहुत साथ दिया। वे रचनाधर्मिता की संवेदनशीलता समझती हैं उनकी भी दो पुस्तकें आ चुके हैं 1 बच्चों के लिए और एक हाइकु संग्रह जो है उनका आ चुका है ऐसे ही मेरी बिटिया वंदना कुंवर रायज़ादा वह भी बहुत अच्चा लिखती है , बहुत बढ़िया तरीके से प्रस्तुत भी करती हैं, उनके पति शरद बहुत सहयोगी हैं और एक बेटे की तरह मेरा ख्याल रखते हैं। मेरे बेटे प्रगीत कुंवर जो आस्ट्रेलिया में हैं उन्होंने भी बहुत अच्छा लेखन कार्य किया है, उसका भी दोहा संग्रह जो है वह आ चुका है प्रगीत की पत्नी भावना भी लिखती हैं। कवि सम्मेलनों की वजह से जितनी मैंने यात्राएं की और जितनी मैंने कवि सम्मेलनों में शिरकत की तो उन सभी को लिपि बद्घ करने की कोशिश मेरी है लगभग 18,000 पेजों का इतिहास तैयार हो सकता है जिसमे से ढाई हज़ार के करीब पेज टाइप कर भी चुका हूँ, और इसके यह एक किताब में तो आएगा नहीं तो सोच रहा हूं सभी वर्षों का अलग अलग संस्करण निकले. ,यह काम अगर हो जाता है तो मुझे लगेगा कि शायद मैं कुछ बड़ा काम जो है वह कर पाने में सक्षम हो पाऊंगा
प्रश्न – अपनी आत्मकथा लेखन के बारे में कुछ बताएं सर क्या उसके लिए भी आपने सोचा है
उत्तर – हां इस दिशा में मैंने सोचा तो है,लेकिन एक तो समय का अभाव और दूसरा उम्र के साथ-साथ क्षमता कम होती चली जाती हैं तो अब इतनी क्षमता काम कर पाने की भी नहीं है लेकिन फिर भी आत्मकथा अंश के रूप में मैं थोड़ा प्रयास करता हूं फेसबुक पर भी देता रहता हूं ज्यादातर और टुकड़ों टुकड़ों में मैं लिख रहा हूं क्योंकि सभी लोग पसन्द कर रहे हैं। उसमें ज्यादा समय नहीं दे पा रहा हूं फिर भी मेरी कोशिश है कि आत्मकथा अंश के तौर पर में जो है अपना जीवन के प्रेरणादाई पलों को आप सबके साथ साझा कर सकूं
प्रश्न – चलते-चलते आपसे यह भी जानना चाहेंगे कि आपने इतनी रचनाएं लिखी लेकिन आपको अपनी कौन सी रचना सर्वाधिक प्रियहै
उत्तर – किसी भी रचनाकार के सामने यह प्रश्न आते ही बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। यह प्रश्न पूछा तो बड़ी सहजता से जाता है लेकिन इसका जवाब उतना ही कठिन होता है क्योंकि रचनाकार को अपनी हर रचना प्यारी होती है और जब कोई मुझसे पूछता है तो कभी ग़ज़ल पर निगाह जाती है तो कभी गीतों पर जाती है तो समझ नहीं आता कि हैं कि किसे पसंदीदा कहूं। जीवन दर्शन मेरा पसंदीदा विषय रहा है, जीवन दर्शन की बातें मेरा ध्यान खींचती हैं। एक ऐसी रचना जो मेरे जीवन दर्शन से भी जुड़ी हुई है मेरी जिंदगी से भी जुड़ी हुई है वह है,
सूखी मिट्टी से कोई भी मूरत न कभी बन पाएगी,
जब हवा चलेगी ये मिटटी खुद अपनी धुल उड़ाएगी,
इसलिए, सजल बादल बनकर, बौछार के छींटे देता चल,
ये दुनिया सूखी मिटटी है तू प्यार के छीटें देता चल.
यह मुझे सर्वाधिक प्रिय है। असल में मेरी एक लघु कथा बहुत पहले छपी थी तो उसी से प्रेरित है। मेरा यह मानना है कि इंसान की जिंदगी में तीन ‘प’ बहुत जरूरी है पहला प्यार दूसरा परिश्रम और परोपकार। यह रचना वहीं से जन्मी थी। कथा कुछ यूं थी कि एक शिष्य अपने गुरु के पास गया और कहा कि गुरु जी आप पूरी दुनिया को प्यार का संदेश देते हैं,करुणा का संदेश देते हैं , परोपकार का संदेश देते हैं,मेहनत का संदेश देते हैं , इसका अभिप्राय क्या है,गुरु जी ने उसे कुछ जवाब नहीं दिया उसका हाथ पकड़ा और उसे अपने साथ ले चले और एक रेगिस्तानी जगह पर लेकर के गए वहां चारों तरफ सूखी मिटटी बिखरी पड़ी थी,दूर-दूर तक कहीं पानी नहीं था। गुरु ने उसे वही छोड़ा और कहा कि प्रियवर तुम कल तक इस सूखी मिट्टी से एक मूर्ति बना लो और मूरत बनाकर मेरे पास आओ तब तुम समझ जाओगे कि मैं ये सन्देश क्यूँ देता हूँ। शिष्य मिट्टी लेकर मूरत बनाने की कोशिश करने लगा लेकिन मूरत बन ही नहीं पा रही थी। जितना वह मिट्टी को उठाकर बांधने की कोशिश करता था उतनी बिखरती चले जाती थी। प्रयास करते-करते मेहनत से जब थक गया तो उसके माथे पर पसीने की बूंदें आईं और एक बूंद टप्प से उस माटी में गिर पड़ी तो मिट्टी थोड़ी गीली हुई, थोड़ी ही देर में उसके भीतर विवशता जनमी कि मैं नहीं कर पा रहा हूं तो उसकी आंखों से विवशता के आंसू वहीँ टपक गए जहाँ पसीने की बूंदे थी , बूंदें इकठ्ठी हुई और मिटटी कुछ और गीली हुई.फिर वह अपने गुरु से उत्तर पूछने नही गया बल्कि दुनिया के लोगो के पास गया और कहा कि हे दुनिया के लोगों! हम सब सूखी मिटटी की तरह से हैं, जब तक हमारी आँखों में करुणा का जल नहीं है,जब तक हमारे दिल में प्यार की छलकन नही है, जब तक माथे पर पसीने कि बूंदें नही हैं तब तक कोई भी मूरत नही बन सकती.
प्रश्न- सर हम आपसे जानना चाहेंगे कि एक पक्ष आपका जो है वह रचनाकार का अद्भुत रचनाकार का और सुरीले कवि का तो लोगों के सामने है लेकिन एक पक्ष और है वह है आपका चित्रकार का पक्ष भी लोगों के सामने नहीं आ पाया बहुत ज्यादा नहीं सामने आ पाया तो थोड़ा सा उस पर भी रोशनी डालिए, क्या आपने रेखांकन सीखा है कहीं से।
उत्तर- नहीं, सीखा तो नहीं है लेकिन पता नहीं क्या हुआ जब मैं मंच से कविता पाठ करके उतरता था तो लोग ऑटोग्राफ मांगते थे तो ऑटोग्राफ मेरा जो है जब मैं देता था, तो पहले रेखांकन बनाकर तब हस्ताक्षर करता था। एक बार ऑटोग्राफ का कॉन्पिटिशन भी हुआ था जिसमें सभी के उसमें मेरा हस्ताक्षर जो प्रथम आया था, क्योंकि वह हस्ताक्षर भी है और पूरा नाम भी पढ़ने में आता है तो इसलिए उसे प्रथम पुरस्कार मिला।
बाद में मैं हस्ताक्षर के साथ-साथ लोगों को रेखांकन करके भी देने लगा दो कि मुझे अकेले हस्ताक्षर देना अजीब लगता था ऑटोग्राफ देते हो तो मैं थोड़ा सा रेखांकन भी कर दिया करता था उसके बाद मुरादाबाद से मेरे दोस्त आए मैंने किताब दी तो किताब में हस्ताक्षर के साथ रेखांकन भी करके दिया मेरे मित्र चित्रकार थे प्रभावित हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारे रेखांकन तो बहुत कमाल का है तुम इसको थोड़ा सा और बढ़ाओ। चित्रकारी को अपना विस्तृत आयाम दो और प्रदर्शनी वगैरा लगाओ तो उन्होंने बाद में मुरादाबाद में मेरे रेखांकन जितने भी थे उनको एकत्र कर उनकी प्रदर्शनी भी लगाई । उन्होंने कहा कि अब थोड़ा-सा अपनी जिंदगी में रंग भी भरो और वाटर कलर वगैरह लेकर के चित्र बनाया करो तो मुझे एक बार अपने साथ दिल्ली ले कर के गए और वहां से वाटर कलर और तमाम जो चीजें चित्रकारी के लिए चाहिए होती है वह सब दिलवा करके लाए। ब्रश वगैरह भी दिलवाई और फिर मेरा एक विद्यार्थी था जिसने मेरे निर्देशन में पी एच डी की थी वह दिल्ली में है और चित्रकार है तो उसने मुझे बाकी के जो कैनवास वगैरह चाहिए थे वह सब दिलवाए इस प्रकार जब मेरे पास पूरा सामान हो गया फिर मैंने रंगों पर किताब पढ़कर कि किस रंग का क्या महत्व होता है कोई भी रंग क्या कहता है। उसके बाद में जब रंगों वाले चित्र बनाएं तो उनकी भी दो प्रदर्शनियां लगी और इतनी सराहे गए कि किसी एक व्यक्ति ने तो जिद पकड़ ली मेरा एक चित्र खरीदने की वह ₹200000 देने को तैयार था वह लेकिन मैंने बेचा नहीं।
प्रश्न- आदरणीय आपका गायन भी अद्भुत है और संगीत की जानकारी भी आपको है उस बारे में थोड़ा बताएं?
उत्तर – जी, मुझे गाने का भी शौक है तो मैंने अपनी एक एल्बम भी निकाली,जिसमें मैं खुद ही गा रहा हूं और मेरी ही कविताएं दर्ज है। एल्बम भी अच्छी चर्चित रही। इसके अलावा मेरे गीत जो है वह फिल्मों में भी आए हैं। बहुत पहले एक फिल्म आई थी ‘कोख’ उसमें मेरा गीत ‘जितनी दूर नयन से सपना जितनी दूर अधर से हंसना बिछुए जितनी दूर कुंवारे पांव से इतनी दूर पिया तुम मेरे गांव से’ गीत को हेमलता जी ने गाया है जगजीत सिंह का संगीत है। एक मराठी फिल्म है उसमें भी मेरा गाना लिया गया बेटियों पर लिखा हुआ गाना है वह उस में लिया गया ‘बेटियां शीतल हवाएं हैं। अमेरिका में एक फिल्म bhavishya the future नाम से तो उसमें भी मेरा एक गीत लिया गया। निखिल जी ने लिया ‘बदरी बाबुल के अंगना जाइयो,’ ब्रज के इधर जो है एक फिल्म बन रही है जिसके लिए दो-तीन लोग मेरे पास आए थे और उन्होंने मुझसे पांच गीत लिखवाए तो जब वह फिल्म आएगी तब वह गीत सामने आएंगे। 1965 के दौर में जब मैं कॉलेज में जाता था तो उस समय नवरंग फिल्म के जो गीतकार थे वह बहुत अच्छे साहित्यकार भी थे और मंच पर अध्यक्षता करते थे,आयोजनों में आते थे उन्होंने मुझे कई बार कहा कि देखो तुम फिल्म लाइन में आ जाओ और यहां अच्छे गीतकारों की बहुत जरूरत है क्योंकि बहुत अच्छे गीत लिखने वालों की जरूरत बनी रहती है हमेशा यहां पर,तो तुम्हें आना चाहिए लेकिन मैं तब तक शादी कर चुका था और नौकरी लग चुकी थी तो मुझे लगा कि नहीं अब संघर्ष करने का समय नहीं , मैं नौकरी छोड़ कर के और मुंबई जाकर के मैं संघर्ष करता तो इसलिए मैंने उन्हें मना कर दिया और और शायद उस समय में चला जाता तो मेरी अलग लाइन होती लेकिन फिर शायद मैंने जो आप काम की वह मैं नहीं कर पाता तो फिल्मी गीतकार बनने का कभी कोई मेरा रुझान रहा भी नहीं तो जो जिया जो किया बहुत अच्छा किया खुश हूं संतुष्ट हूं।
अल्पना सुहासिनी: बहुत बहुत आभार आदरणीय इतने बेहतरीन साक्षात्कार हेतु, अपने जीवन के कई अनछुए पहलुओं से अवगत करवाने के लिए, निश्चित ही ये साक्षात्कार युवा रचनाकारों के लिए प्रेरणा का काम करेगा आपसे बातचीत करके बहुत आनंद आया। आपका बहुत बहुत आभार इतना कीमती समय देने के लिए.. आभार आदरणीय
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