ब्रिटेन के कई कस्बों और गांवों के लिए फोन बॉक्स समुदाय के इतिहास और पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उसके बिना गाँव की पहचान पूरी नहीं हो पाती। लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि जहां कभी लाल फ़ोन बॉक्स खड़ा रहता था, अब वहां केवल ख़ाली  जगह दिखाई देगी। कई समुदायों ने बी.टी. से पैरवी की है कि लाल फ़ोन बक्से देखने में मनोरम लगते हैं और उनका  एक  ऐतिहासिक महत्व भी है…. तो क्यों न इन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिये बचा लिया जाए और वहाँ उन्हीं लाल बक्सों में पुस्तकालय खोल लिये जाएं।

एक समय था जब लाल रंग के टेलीफोन-बक्से ब्रिटेन की पहचान होते थे। लंदन की लाल डबल डेकर बस, टेलिफ़ोन बूथ और लाल लेटर बॉक्स। फिर आहिस्ता आहिस्ता लाल टेलिफ़ोन बूथ सीन से ग़ायब होने लगे। लेकिन स्थानीय समुदायों और ब्रिटिश दूरसंचार के प्रयासों के लिये धन्यवाद कहना होगा कि उनमें से सैकड़ों लाल टेलिफ़ोन बक्सों को पुस्तकालयों के रूप में पुनर्जीवित कर दिया है। 
वर्ष 2002 में ब्रिटेन की सड़कों पर 92,000 ब्रिटिश टेलिकॉम फोन बॉक्स हुआ करते थे । यह आंकड़ा अब बुरी तरह गिर गया है और दस हज़ार से भी कम पारंपरिक लाल फोन-बॉक्स बचे हैं। पिछले 20 वर्षों के दौरान, कंपनी ने देश भर के स्थानों से हजारों प्रतिष्ठित स्थलों को इस पारंपरिक निशानी से वंचित कर दिया है क्योंकि लोगों ने मोबाइल फोन और इंटरनेट का उपयोग करना शुरू कर दिया है और लाल फ़ोन बॉक्स वीरान पड़े रहने लगे हैं।
लेकिन ब्रिटेन के कई कस्बों और गांवों के लिए फोन बॉक्स समुदाय के इतिहास और पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उसके बिना गाँव की पहचान पूरी नहीं हो पाती। लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि जहां कभी लाल फ़ोन बॉक्स खड़ा रहता था, अब वहां केवल ख़ाली  जगह दिखाई देगी। कई समुदायों ने बी.टी. से पैरवी की है कि लाल फ़ोन बक्से देखने में मनोरम लगते हैं और उनका  एक  ऐतिहासिक महत्व भी है…. तो क्यों न इन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिये बचा लिया जाए और वहाँ उन्हीं लाल बक्सों में पुस्तकालय खोल लिये जाएं। 
सच तो यह है कि ब्रिटेन भर में, लोग अपने लोकप्रिय ब्रिटिश लाल टेलीफोन बॉक्स को छोटे-छोटे पुस्तकालयों में बदल रहे हैं – आकस्मिक पुस्तक विनिमय… जहां कोई पंजीकरण नहीं है, और कोई जुर्माना नहीं है। कोई भी पुस्तक घर ले जाने के लिए स्वतंत्र है, बशर्ते वे इसे वापस लाएँ या इस के बदले घर से लाकर कोई दूसरी पुस्तक रख दे। 

ब्रिटेन में सार्वजनिक पुस्तकालयों के सामने बंद होने का ख़तरा तलवार की तरह उनके सिर पर छाया हुआ है। यह एक ऐसा नवीन एवं सरल विचार है जो इन सार्वजनिक पुस्तकालयों के सामने एक निरंतर खतरे के जवाब में उभरा है। इस तरह की पहली टेलीफोन बॉक्स लाइब्रेरी की स्थापना सोमरसेट में वेस्टबरी-सब-मेंडिप में की गई थी। यह स्थापना 2009 में स्थानीय परिषद द्वारा क्षेत्र की मोबाइल लाइब्रेरी के लिए फंडिंग में कटौती के बाद की गई थी। यानी कि वहाँ का पैसा लाल टेलिफ़ोन लायब्रेरी में लगा दिया गया। 
पैरिश काउंसिल ने एक पाउण्ड में ये टेलिफ़ोन बॉक्स – जिसे कि जाइल्स गिल्बर्ट स्कॉट के-6 डिज़ाइन कहा जाता है –  ख़रीदा, और वेस्टबरी-उप-मेंडिप के समरसेट गांव के निवासियों ने लकड़ी की अलमारियों को अंदर रखा और अपनी किताबें दान कर दीं।
फ़ोन बॉक्स लायब्रेरियों में अब पाक-कला की किताबों से लेकर क्लासिक्स और ब्लॉकबस्टर से लेकर बच्चों तक की किताबें शामिल हैं। 
इसी तरह की कहानी दक्षिण लंदन के इलाकों में भी देखी जा सकती है, जहां सेब हैंडली नाम के एक स्थानीय व्यक्ति ने ब्रिटिश टेलिकॉम से एक पाउण्ड में एक पुराना टेलीफोन बॉक्स ख़रीद लिया। और फिर बॉक्स को अपने हिसाब से बदला। अंततः इसे लंदन के सबसे छोटे पुस्तकालयों में से एक में बदलने के लिए अपने स्वयं के पैसों और हाथ के काम के कौशल का उपयोग किया। 
माइक्रो-लाइब्रेरी एक्सचेंज एक दूसरे पर विश्वास की प्रणाली पर काम करते हैं। इंग्लैंड भर के स्थानीय गांवों में, जहां हर कोई हर किसी को जानता है, ऐसा लगता है कि यह अपेक्षाकृत आसानी से किया जा सकता है। हालांकि, कुछ बड़े शहरों में, माइक्रो-लाइब्रेरी को कभी-कभी स्थानीय समुदाय पर भरोसा करना पड़ता है कि वे यदि किताब ले गये हैं तो या तो वापिस लाएंगे या उसके स्थान पर कोई दूसरी पुस्तक वहां रख जाएंगे।

मैं लंदन के ओवर-ग्राउण्ड रेलवे में कार्यरत हूं। मैं पाँच स्टेशनों की देखभाल करता हूं – हैडस्टोन लेन, हैच-एण्ड, कारपेण्डर्स पार्क, बुशी और वाटफ़र्ड हाई स्ट्रीट। इन में से हैच-एण्ड और बुशी में भी इसी प्रकार की पुस्तकालय योजना शुरू की गयी है। 
हैच-एण्ड में एण्ड्रू हैलिसे, लिएम निक्सन और नेहा पटेल अग्रवाल काम करते हैं और बुशी में पैमेला मर्फ़ी और जैनिस क्लार्क काम करती हैं। इन दोनों रेलवे स्टेशनों पर ऐसे ही पुस्तकालय स्थापित किये गये हैं। लंदन में रेलवे केवल यात्रियों को एक स्थल से दूसरे स्थल तक पहुंचाने का काम नहीं करती बल्कि अपने आसपास के रहने वालों के लिये एक मेलजोल का स्थल भी बनाती है।
हैच-एण्ड एवं बुशी में भी ठीक लाल टेलिफ़ोन बक्से की तर्ज़ पर हमारे स्टेशन के कर्मचारी अपने बलबूते पर ऐसे पुस्तकालय चला रहे हैं। यात्री जब लोकल रेलयात्रा करते हैं तो वहाँ से एक पुस्तक अपने साथ ले जा सकते हैं। और जब वापिस लौटें तो पुस्तकालय को अपने पुस्तक लौटा सकते हैं। यदि वे उस पुस्तक को लौटाना नहीं चाहते तो वे अपने घर की लायब्रेरी से कोई एक पुस्तक ला कर स्टेशन के पुस्तकालय में छोड़ सकते हैं। 
याद रहे कि यह सारी कार्यवाही विश्वास पर निर्भर है। समाज के पास विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। और दूसरा रास्ता भी है – क्योंकि आने वाली पीढ़ियों को हम पर भरोसा करना पड़ेगा कि हम उनके लिए इस तरह के काम कर रहे हैं ताकि इस उपग्रह को बचाया जा सके। उन्हें भरोसा करना होगा कि हम ऐसा प्रयास कर रहे हैं कि पुस्तकों का अस्तित्व बचा रहे। 
शायद भारतवासियों को इस प्रकार के पुस्तकालय पर एकाएक विश्वास न हो पाए जहां कोई लायब्रेरियन नहीं बैठता। हम स्वयं अपनी मर्ज़ी से जाकर अपनी पसन्द की पुस्तक उठाते हैं और पढ़ने के लिये ले जाते हैं। मगर ऐसे हालात हमें पैदा करने होंगे कि समाज में पुस्तकों के महत्व को समझा जाए। यह आवश्यक है कि हर इन्सान जो पढ़-लिख सकता है उसे पुस्तकों को हाथ में लेकर पढ़ने का अभ्यास बनाए रखना चाहिये। पुस्तकों की अपनी एक ख़ुश्बू होती है। उस ख़ुश्बू में ज्ञान भरा होता है। भारत में भी ऐसे पुस्तकालयों की सख़्त ज़रूरत है – मोबाइल के पागलपन से बचने का यही एक तरीक़ा है।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

10 टिप्पणी

  1. यह पढकर बहुत सुखद लग रहा है।हम भारतीय इस विषय में शायद ही सोच पाएं।ईमानदारी और विश्वास के कारण ही पुस्कालय चल रहे हैं।क्या हम भारतीय जनों में ऐसे अनुशासन और विश्वास की उम्मीद रख सकते हैं?मैं कल्पना भी नहीं कर सकती इस बात की कि हमारे देश में कहीं भी ऐसी लाइब्रेरी देखने को मिले।
    संपादकीय अच्छा लगा।

  2. महत्वपूर्ण कदम ! सुंदर पहल ।बहुत उपयोगी । अच्छा लगा पढ़कर । सचमुच पुस्तक की जगह
    तो कोई नहीं से सकता । जिसने पुस्तकालय बना दिया उसने देश का भविष्य बना दिया ।

  3. बहुत अच्छा कदम। और आपने बहुत मन से इसे लिखा भी है। पुस्तकों को बचाने और भविष्य की पीढ़ियों को देने के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है। साधुवाद।

  4. बडी समृद्ध है पुरवाई। साहित्य की कई पोशाकों से सुसज्जित। संपादकीय का विषय और अपील, दोनों ने रोमांचित किया है, प्रभावित किया है। धन्यवाद।

  5. सम्पादकीय अनोखी और रोचक जानकारीसे लबरेज़ है।ब्रिटेन के लाल टेलीफोन बक्सों का ऐतिहासिक महत्व तो है ही लेकिन ये पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र भी हैं।शायद ही कोई यात्री ऐसा होगा जिसने इसमेंखड़े होकर एक तस्वीर न खींची हो ।
    लाल टेलिफोन बॉक्स को पुस्तकालय में तब्दील करने का विचार भी इतिहास को दोहराएगा और आने वाली पीढ़ी किताबों के महत्व को जिंदा रखेगी ।
    एक विचार रेखाँकित करने योग्य है “यह सारी कार्यवाही विश्वास पर निर्भर है ” सच कहा आपने मुझे भारत के वर्तमान शासन में
    स्वस्थ परम्पराओं को स्थापित करने का जज़्बा नज़र आ रहा है
    और आज का युवा भी भरोसा दिला रहा है परिवर्तन की ।
    अब पर्यटक पुस्तकालय के साथ तस्वीर लेते दिखाई देंगे और लोग पुस्तकें पढ़ते ।साधुवाद
    dr prabha mishra

  6. जानकारी न केवल हम लोगों के लिए नई बल्कि हमारे भारतीय समाज के लिए विचारणीय भी है। हमारे देश में जहां पुस्तकों के प्रति आम जन समुदाय की अभिरूचि लगभग समाप्त होती जा रही है, ऐसे में इस तरह के प्रयोगों से नई चेतना जागृत हो सकती है। भले ही यहाँ ‘पीसीओ’ तरह की प्रणाली पर यह प्रयोग अब सम्भव नहीं है। लेकिन साइबर कैफे जैसे जगह (जिनका विस्तार भी अभी लगभग कम होता जा रहा है) पर इस प्रयोग को अवश्य ही किया जा सकता है। ऐसे अद्धभुत विषय को सम्पादकीय बनाने के लिए आप भी साधुवाद का पात्र है तेजेंदर शर्मा सर।

  7. हम भारतीयों के लिए ये बात बिलकुल अविश्वसनीय है कि लाइब्रेरी है लेकिन कोई लाइब्रेरियन नहीं ..इस विश्वास की हमारे भारत में बहुत ज्यादा आवश्यकता है ..

  8. उत्कृष्ट संपादकीय हमें भी भारत में ऐसा प्रयास करना चाहिए माना यह कार्य विश्वास पर ही निर्भर है पर यदि समाज में बुरे लोग हैं तो अच्छे भी हैं और यदि यह पहल की जाए तो यह एक नेक पहल है ज्ञान के लिए और पुस्तकें तो सर्वाधिक विश्वसनीय मित्र हैं इसलिए इस प्रकार का प्रयास अवश्य करना चाहिए

  9. सम्पादकीय पढ़ते समय लगा जैसे किताबों की ख़ुशबू आ रही है। आदरणीय तेजेन्द्र जी ! यह जादू आपकी लेखनी ही कर सकती है। किताबों के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए , परस्पर विश्वास जगाये रखने के लिए और आने वाली पीढ़ी को किताबों की धरोहर सौंपने के लिए ये बहुत नायाब तरीक़ा निकाला गया है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। भारत के लिए भी यह अनुकरणीय है। काश ! भावी पीढ़ी हाथ में हर पल मोबाइल चिपकाए रखने की जगह किताब लेकर उसे प्यार करना सीख ले।

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