गुलाबों सी इनकी महक में डूबे,
खुद ही को भुलाती मदहोशियाँ!!
तेरी बतियां कितनी बचकानियां,
पग्गल सी करती हैं गुस्ताखियां,
बिजलियों सी खनके बोले कौंधे,
मुझ संग खेले आंख मिचैलियां!!
तेरे दो नयन चमकती गोटीयां
हाय दिल पे काटे चिकोटीयां!!
3. बरामदे की धूप
विधा – छंदमुक्त (स्वतंत्र)
विस्मृति के क्षणों की गांठे खोल लूं आज कुछ पल
समय से चुराकर ले आऊं इस धूप की चादर पर।
कुछ देर बैठूं,और सुस्ता लूं अपनी अधूरी कल्पनाऐं
और फिर से दो पल को जी लूं बरामदे की धूप को।
अरगनी पे सुखा लेती हूं,सीलते भीगे नयनों के छंद,
कुनकुनी गरमाहट में सेंक लूं सर्द दिल के अरमान।
अलाव की आंच दिखा ही दूं हथेली की लकीरों को,
शायद! गीली पांखुरी से किस्मत ओस सी झर जाये।
दो पल कुछ रिश्तों की उधङी बखिया भी सिल लूं,
रोशनी में पाट लूं मन में पङी गहरी जर्र दरारों को
धूप की अठखेलियां देखूं सीढियों पे यूं चढते उतरते
छूकर देखूं अपनी छाया के बनते मिटते पहाङो को।
कुछ बतिया लूं ,सौरभ में अपनी पिघली सांसो संग
कर लूं आलोकित नेह नेह सा बिखरा खोया तन,
श्वेत वसन से ढक काया को, अंगङाई लेती हुयी
मखमली ऊन संग अंतस के भी धागे सुलझा लूं।
कुछ देर बैठूं, और सुस्ता लूं अपनी अधूरी कल्पनाऐं
और फिर से दो पल को जी लूं बरामदे की धूप को।
4 सूखे गुलाब
सूखे हुए गुलाबों पर आ तेरी यादों के छंद लिखूं
गुलदान में जो महक रहे है उन पे कोई बंध लिखूं।
दिलजोई मुलाकात पे महकी आखों का अनुबन्ध लिखूं
गहरे हुये गुलाबों से वो बिखरी प्यार की सुगन्ध लिखूं।
चेहरा चांद गुलाब हो गया बातें अब क्या चंद लिखूं
क्या जीती हूं मैं,क्या हारी हूं जीवन का निबन्ध लिखूं।
तेरे जिस्म से छूकर गुजरे इन गुलाबों की गंध लिखूं
हौठों की जुम्बिश से महकायी छलकायी मकरन्द लिखूं।
थमें पांव है सांस सांस के ,धङकन भी है मंद लिखूं,
अल्फाज करूं बयां तो आती हिचकी कैसे बंद लिखूं।
मेरा इश्क़ किताबों सा सूखे फूलों की भीनी गंध लिखूं,
हसरतों ने की मौहब्बत रूह से रूह का संबंध लिखूं।
5.सफेद साड़ी
अवसान के समय स्वरमय
पहना दिया सफेद कफन
सभला दी गयी बंदिशो और
प्रथाओं की ढेरों चाबियां
जिस सिन्दूरी रिश्ते को वो
मनुहार से जीती आयी थी
वही निर्जीव नसीब में लिख गया
जमाने की रूसवाईयां।
उसके माथे की लाली फिर
धो दी समाज के ठेकेदारों ने
आंगन में लाल चूङियां भी तोङ दी
वज्रकठोर रिश्तेनातों ने।
कानून बनाकर मौलिक अधिकारों पे
संविधान लागू हो गये
वैधव्य का वास्ता देकर
समाजी रंगो की
वसीयत लूट ले गये।
सरहदें तय कर दी गयी अब
घर की देहरी, चौखट तक की
उसकी जागीर से छीन ली गयी
मुस्कराहट उसके होठों की।
स्पन्दित आखें नमक उतर आया
गंगाजल से उसे शूद्ध कराया
बटवारें में ऐलान
सांसों को गिन गिन कर
लेने का आया।
निरामयता समपर्ण से जुङे रिश्ते
तो उसे निभाने ही होंगे
शून्य सृष्टि सी प्रकृति संग
विरक्ति के नियम अपनाने होंगे
बिछोह का दंश रोज छलेगा
तपस्या ही अब जीवन होगा।
तन पे सफेद साङी
सूनी कलाई और
खामोश मातम होगा।