प्रेम ! जितना तुममें डूबती गयी तुम्हारी गहराई की थाह पाना कठिन होता गया, मौन भाष्य में अनुभूत हुआ तुम्हारे समक्ष अभिव्यक्त हुआ सरलीकृत होते -होते होता गया क्लिष्ट , समर्पण की झील में एक ठहराव के साथ तरंगायित होता अस्पष्ट झंझावातों से बिखरा सा प्रतीत होता प्रेम … पर कहीं सुना है ‘प्रेम खोया या पाया नहीं जाता प्रेम तो जिया जाता है ‘ ये कोशिश जारी है …..
2- मैं बस एक कविता हूँ
मैं बस एक कविता हूँ तुम्हारे भावों में बहती उमड़ती घुमड़ती सिमटती रचती संवरती बस इतना ही और कुछ नहीं….!!
3 – पीड़ा
पीड़ा छलनी करती है ह्रदय को और छलकती है आंखों से, शुद्ध करती है आत्मा को, पर कभी -कभी बौद्धिक विलास के साथ ‘प्रदर्शन” भी बन जाती है !!