1- प्रेम
प्रेम ! जितना तुममें
डूबती गयी
तुम्हारी गहराई की
थाह पाना कठिन होता गया,
मौन भाष्य में अनुभूत हुआ
तुम्हारे समक्ष अभिव्यक्त हुआ
सरलीकृत होते -होते
होता गया क्लिष्ट ,
समर्पण की झील में
एक ठहराव के साथ तरंगायित होता
अस्पष्ट झंझावातों से बिखरा सा प्रतीत होता प्रेम …
पर कहीं सुना है ‘प्रेम  खोया या पाया नहीं जाता
प्रेम तो जिया जाता है ‘
ये कोशिश जारी है …..
2- मैं बस एक कविता हूँ
मैं बस एक कविता हूँ
तुम्हारे भावों में
बहती उमड़ती
घुमड़ती सिमटती
रचती संवरती
बस इतना ही
और कुछ नहीं….!!
3 – पीड़ा
पीड़ा
छलनी करती है
ह्रदय को
और छलकती है
आंखों से,
शुद्ध करती है
आत्मा को,
पर कभी -कभी
बौद्धिक विलास के साथ
‘प्रदर्शन” भी बन जाती है !!

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