भारतीय मिथक और स्त्री शक्ति’ राष्ट्रीय संगोष्ठी में स्वाति का यह अंतिम परचा था, सेमिनार रूम में ज्यादा लोग नहीं बचे थे, जो बचे थे, भोजन के बाद, झपकियों में बुरी तरह गिरफ्त थे,कुछ विद्यार्थी थे जो कागज कलम लेकर बैठे थे कुछ प्रकाशक व पत्रिकाओं के संपादक थे जिन्होंने संगोष्ठी के लिए फंड दिया था, जिसकी एवज में बैनर पर उनका नाम था और वे ये निश्चिन्त करने को बैठे थे कि संचालक बार बार उनका नाम-गान करता रहे स्वाति ने बहुत डरते-डरते सभी का आभार प्रकट करते हुए अपना पेपर पढ़ना आरम्भ किया पर निष्कर्ष तक आते-आते उसका ओज-जोश बढ़ता गया ‘स्त्री शक्ति या विमर्श के लिए हम पश्चिमी जगत में क्यों झांकते हैंहमारे सामने सीता, सावित्री, शकुंतला द्रौपदी जैसे कितने ही सशक्त जीवंत चरित्र हैं जो सिर्फ मिथक नहीं बल्कि संस्कारों के स्रोत हैं । पश्चिम में हमें भारतीय संस्कृति और साहित्य का समृद्ध भण्डार मिल पायगा? हम उनसे कितना संपृक्त हो पायेंगें? स्त्री सशक्तिकरण हेतु हम सीता पर क्यों नहीं सोचते,  ‘सिंगल मदरके रूप में एक सशक्त स्त्री नहीं पाते क्या हम?’ वे विद्यार्थी जिन्हें स्वाति पढ़ाती हैं कोने में बैठे तालियाँ बजाते हैं, उसका उत्साह बढ़ जाता है  
‘हमारी वैचारिक बौद्धिकता क्या इतने दिवालियेपन से गुजर रही है कि स्त्री सशक्तिकरण को  आज फ़िल्मी हस्तियों में खोज रहें  हैं’ स्वाति ने पहले पढ़े गये किसी के पर्चे पर कटाक्ष करते हुए निशाना दागा सुष्मिता सेन, नीना गुप्ता और एकता कपूर हमारे आदर्श कैसे हो सकतें हैं? निष्कर्ष आते-आते स्वाति  का चेहरा तेजस्वी होता जा रहा था और उसकी  आवाज में ओज-सा भरता जा रहा था, लोग भी धीरे धीरे अपना स्थान ग्रहण करने लगे थे, स्वाति विद्वत समाज का चेहरा वह भाँपने  की कोशिश करती चली जा रही थी, उसका अंदाजा सही था या फिर अंतिम पर्चे की ख़ुशी, सभी ने ज़ोरदार तालियाँ बजाई| भारतीय मिथकों में स्त्री चरित्रों के महिमामंडन से वह स्वयं को भी गौरवान्वित  अनुभव कर रही थी, अंत में  दृढ़ता पूर्वक समापन अंदाज में, आवाज़ में कुछ-कुछ शालीनता लाते हुए ठहर-ठहर कर बोली- ‘मैं समझती हूं कि स्त्री-शक्ति तो हमारी जड़ों में हैं, पहले हम भारतीय साहित्य और संस्कृति की जड़ों तक तो पहुंचे, जितना विस्तार है उतनी ही गहराई भी है यहाँ!,बस मापने का हौसला होना चाहिए’ मानो अपने हौसले की तारीफ़ कर रही थी|  पश्चिम की  ओर भी जाएं,पर सिर्फ अपनी समझ विकसित करने के लिए या फिर घूमने  –फिरने के लिए  के लिए’ और एक व्यंग्य मुस्कान दर्शकों के बीच  बिखेरती हुई  धन्यवाद के साथ विदा हुई ।
तालियों की गड़गड़ाहट से हाल गूंज उठा । राष्ट्रीय  स्तर की संगोष्ठी में वह पहली दफा बोली थी,तालियों की गड़गड़ाहट ने उसका आत्मविश्वास बड़ा दिया, और उम्मीद भी जो श्रोताओं में बैठे पत्रिकाओं के संपादकों से थी, कोई तो ज़रूर छपेगा । शाम की चाय का समय हो चुका था,उसके विद्यार्थी उसे बधाई दे रहे थे कुछ सहकर्मी उसे देखकर मुस्कान फेंक-भर रहे थे फिर बातों में मसरूफ हो जाते, वह आकर अपनी सीट पर बैठ गई समापन समारोह के समय भी वह सभी को पढ़ने-परखने की कोशिश कर रही थी, अपना स्वयं का आकलन कर रही थी कि पुन: तालियाँ और सभी बाहर चाय की ओर बढ़े सभी को घर जाने की जल्दी थी चार-पांच लोगों के गुटों में कई घेरे बने हुए थे उसके सहकर्मी मित्र उसकी औपचारिक प्रशंसा कर रहे थे और स्वाति वास्तव में फूलों नहीं समां रही थी,धन्यवाद कहती हुई चाय लेकर एक कुर्सी खोजने के लिए इधर-उधर झाँकने लगी, सभी भरी हुई थी  
खड़े-खड़े अभी चाय का पहला घूंट उसने होठों पर लगाया भर था कि सोनी जी तमतमाती हुई उसकी ओर ही आ रही थी, आते हैं अपने व्यंग्य-बाण छोड़ने शुरू कर दिए-  ‘सिंगल मदर’ वाह भाई वाह! सीता को सिंगल मदर से जोड़ दिया!!! क्या, होता क्या है सिंगल मदर?? और इस सिंगल मदर का इतना महिमामंडन?? हमें गौरवान्वित होना चाहिए कि सीता ने अकेले लव कुश को अकेले पाला...’ स्वाति की नक़ल करते हुए सोनी जी ने टिप्पणी की स्वाति इस प्रतिक्रिया के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी, सोनी जी के तिक्त स्वभाव से परिचित थी इसलिए सँभालते हुए बोली ‘तो क्या सीता ने अकेले लव कुश को नहीं पाला था  मैम और शकुंतला ने भी तो …’ अभी वाक्य पूरा भी न कर पाई थी, बात बीच में काटते हुए आधिकारिक ढंग से अपने विचार स्वाति पर फेंकते हुए बोली “तुमने ये भी  सोचा कि सिंगल मदर को सिंगल बनाया किसने? अरे ! तुम लोग दु:ख दर्द, कष्ट का महिमामंडन करना कब छोड़ोगे? कब तक समेटते रहोगे वाह-वाही का कूड़ा करकट’ ‘सोनी जी मैं सिर्फ यही कहना चाह रही थी कि कैसे भी संघर्ष है उन संघर्षों का सामना हमें करना होता है, और प्रेरणा के लिए सीता जैसे सशक्त चरित्रों पर पुन: लौटना होगा, फिर महिमामंडन गलत क्यों है?  ‘सीता जी’ … ‘जी’ में छिपी आस्था पर चोट करती सोनी जी दोनों हाथों से शून्य का एक बड़ा-सा गोल घेरा बनाते हुए…कहती हैं- सीता जी के राम की कथा को समझती भी हो? जानती भी हो  …’   “जब  आपके मर्यादा  पुरुषोत्तम  श्री राम जी ने सीता को देश निकाला दिया तो बेचारी सीता मरती क्या न करती, मालूम पड़ा कि भीतर एक और जीवन संघर्ष कर रहा है तो अपना संघर्ष झटके में भूल गई, वरना कभी की धरती में विलीन हो जाती हो “जी  मैम…  मैं  वही तो कहना चाह  रहीं हूँ कि अपने बच्चों के लिए ही तो ‘सीता माता’ ने  समाज से और  न जाने कैसे कैसे  संघर्ष… जो उनके त्याग ओर तपस्या ….’ बीच में ही उसे टोकते हुए सोनी जी बिफर पड़ी- त्याग!   तपस्या!   संघर्ष…पर संघर्ष की नौबत ही  क्यों आई जी ? त्याग तो स्त्री करती ही है पर त्यागने का ठेका जानती हो न…! त्यागते तो पुरुष ही हैं! स्त्री में आज भी इतनी शक्ति कहाँ कि अपने पति का त्याग कर सके, और क्या आज भी लड़की पैदा होते ही माँ बाप उसे त्याग नहीं देते! सीता भी तो खेतों में मिली थी न! बात करती हो…स्त्री सशक्तिकरण की…इसके पहले उत्साहित स्वाति हतोत्साहित हो हार-सी मानती,एक विद्यार्थी बड़े उत्साह से स्वाति को कहती है “मैडम मैं सीता के चरित्र पर काम करना चाहती हूं, मेरा एक प्रश्न है कि सीता को जब राम ने छोड़ दिया तो वह अपने मायके क्यों नहीं गई?क्या उनके पिता राजा जनक ने कभी कोशिश नहीं की कि वे अपनी बेटी को पुन: अपने घर ले जाएँ स्वाति जवाब देती उसके पहले ही सोनी जी भड़कते हुए से बोली “क्यों सीता के चरित्र पर क्यों? राम के चरित्र पर क्यों नहीं लिखती हो? और त्यागी हुई स्त्री को माँ बाप भी कहाँ स्वीकारते हैं किस मूँह से वो वापस लौटती ? ‘मैडम, राम पर तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लड़की शायद सोनी जी के तेवर से वाकिफ न थी घबराई हुई-सी आगे बोली- मुझे लगता है अब सीता पर भी लिखना ही चाहिए और जिस तरह से स्त्री विमर्श ने इतिहास को पुनः खंगालाना शुरू हो चुका  है सीता पर नये सिरे से बात करना जरूरी है’ ‘नए सिरे से! सोनी जी कटाक्ष हँसी के साथ बोली , ‘अरे पहले पुराने सिरे पकड़ने की कोशिश करो, उनमें लगी अनगिनत गांठें खोलो जो विवाह के नाम पर इतना कस के बांधी हुई हैं… गहरी सांस लेती हुई सोनी जी की आवाज़ में ठहराव-सा आ गया, उदास सी बोली पूरा जीवन बीत जाता है… मगर हम उलझते चले जातें है और… स्वाति ने बीच में टोका  ‘सोनी जी अब आप पर्सनल हो रहीं हैंपर्सनल!! शर्म तो आ नहीं रही होगी अपने सीनियर से इस तरह से बात करते हुए इधर-उधर से कॉपी करके दो चार पेपर क्या लिख डाले… आप फिर पर्सनल हो रही है मैम मुझे आपसे इस विषय पर कोई बात नहीं करनी, ना स्त्री की ना स्त्री शक्ति की और ना स्त्री विमर्श की, मैं आपका सम्मान करती हूँ, उम्र  लिहाज कर रही हूं और आप, खैर! सुनो बच्चे, तुम मेरे साथ आओ, वहां आकर बात करते हैं‘ और स्वाति वहाँ से पलायन कर गई । 
स्वाति थोड़ा दूर जाकर कुर्सी पर बैठ गई वह विद्यार्थी भी उसके साथ वहीं बैठ गई।ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, स्त्री मुद्दों पर सोनी जी बहुत संवेदनशील हो जाती हैं और उनकी संवेदना दु:ख और क्रोध से गुजरती हुई, कहीं ना कहीं झगड़े के साथ अलगाव पर खत्म हो जाती है। हालांकि उनके निजी जीवन के अलगाव के बारे में लोग ज्यादा नहीं जानते और वह खुद भी इस पर किसी से बात नहीं करना पसंद करती है लेकिन लोगों को थोड़ा बहुत अंदाजा है जो इधर-उधर की बातें अफवाहों के रूप में सुनने को मिलती हैं कि उन्होंने अपने पति को छोड़कर एक सिंगल मदरबनने का रास्ता चुना, हालाँकि सामाजिक मान्यता के अनुसार तो उनके पति ने ही उन्हें त्याग कर दूसरा घर बसा लिया था । हमेशा लीक से अलग चलने वाली सोनी ने सोचा था कि सिंगल मदरबनकर वो समाज में एक मिसाल बनाएंगी नहीं जानती थी- ‘मदर’ कोई भी हो परिवार में हमेशा सिंगल यानी अकेले ही होती है, फादर कभी सिंगल नहीं होता इसलिए ‘सिंगल फादर’ जैसा कुछ है भी नहीं, उसके साथ उसकी मां बहन और परिवार से जुड़े और कभी-कभी दूसरी पत्नी होती है जबकि मदर यानी माँ भरे पूरे परिवार में भी हमेशा सिंगल ही तो होती है बगल में पति सो रहा है तब भी वह सिंगल होती है क्योंकि जब बच्चा रात में दो तीन बजे उठता है  रोता है, बिस्तर गीला कर देता है वो हमेशा सिंगल ही तो होती है सिंगल…अकेले …फिर क्यों सिंगलमदर शब्द को इतना महिमामंडन!! आज उसे साफ़ दिख रहा था कि उसे सिंगल बना दिया गया उसने कब चाहा था इतनी बड़ी जिंदगी अकेले काटे, बच्चों को अकेले पालने का सपना तो उसने न देखा था…पर ये ज्ञान चक्षु तो बहुत बाद में खुले, तब तक सोनी ‘खुद को’ मिसाल बनाने की जिद्द में या कहें अपने हर फैसले को जायज ठहराने की विवशता में बच्चों की तमाम संवेदनाओं उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं और महत्वकांक्षाओं को दाँव पर लगाती चली गईं, न ‘राम मिले न माया’ जिसका असर  उनके व्यवहार में दिखाई पड़ने लगा था। उस दिन जब स्टाफ रूम में नीना गुप्ता की फिल्म बधाई हो बधाईपर बात चल रही थी तो नीना गुप्ता के व्यक्तिगत जीवन पर भी विमर्श होने लगा, ज़ाहिर है प्रोफेसर लोग हैं, विमर्श तो करेंगे ही,तब भी उनका रवैया कुछ इसी प्रकार ठोस,यथार्थ और टक्कर लेने वाला था ‘नीना गुप्ता जिस फ़िल्मी दुनियाँ से है वो अलग समाज है, हमारे जैसा समाज थोड़ी ना है? आप नहीं जानते? सिंगल मदर का महिमामंडित क्यों कर रहें हैं ‘ये लोग’! “ये लोग” को दोबारा  ज़ोर देकर बोलती हैं वे चाहते ही यही है, स्त्री बच्चे पैदा करें और सिंगल-मदर का तमगा पहनाकर, अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो!’ ये सोनीजी ही हैं, जिन्हें सुनकर बड़े-बड़े विमर्शकारों को याद आने लगता है कि वे अध्यापक भी हैं- अरे, क्लास है! कह कर धीरे-धीरे सब खिसकते चले गए सोनी फिर सिंगल यानी अकेली रह जाती है । वैसे भी जिस गुडिया से आप खेलते हो, बोलने लग जाए तो आप उससे बचना ही चाहेंगे,फिर बोलने वाली गुड़िया को बदनाम होने में कहाँ देर लगती है| प्रोफेसर विमर्शकार बन अक्सर सोनी जी के जीवन पर विमर्श करने लगते कि ‘ये सोनी मैडम जाने कौन-कौन से किस्से सुनाकर लड़कियों को बोर करतीं हैं, उपदेश देती है’। जबकि इस उम्र में लड़कियां कुछ अलग ही रंगीन सपनों की दुनियाँ में रहती हैं,जीवन के हर रंग से वाकिफ होना  चाहती हैं, रंगों के कंट्रास्ट को बिना समझे उनमें डूब जाना चाहती हैं,खेलना चाहती हैं, कोई एकाध ही उनके काले कैनवास पर लाल रंग से लिखने को लालायित होती जिसे ‘विमर्शकार’ बरगलाना के रूप में परिभाषित करते हैं ।     
आज की बेरंग-स्याह जिंदगी के बावजूद सोनी जी खुद भी कहाँ भूलीं हैं उस इन्द्रधनुषी कैनवास को,उन  चटख रंगों को जब सांवले सलोने अखिलेश की नजरों से नजरें मिल जाने पर  उसका चेहरा गुलाबी हो जाया करता था, और जब वो उसकी तारीफ करता तो शर्म से लाल और जब छत पर उससे बात करते-करते अचानक कोई देख लेता तो चेहरा फक्क से सफेद और झट गमलों में पानी डालने लग जाती|  होली का वह दिन,आज भी इन काली घटाओं के बीच विद्युत्-सा चमकता है,भूले नहीं भूलता अपने ही रंग में रंग ले मुझको याद रहेगी होलीरे!! शायद बीसियों बार बजवाया था यह गाना अखिलेश ने मोहल्ले की होली की पार्टी में! बातों-बातों में पता लगा कि उसके बगल वाले कॉलेज में ही बीएससी कर रहा है, माँ बाप तो डॉक्टर बनाना चाहते थे पर एडमिशन नहीं मिला अब यहां रहकर सिविल सर्विसेज की एंट्रेंस की भी तैयारी करेगा और बीएससी तो कर ही रहा है। तीन और लड़के, पेइंग गेस्ट थे । दिल्ली का नया-नया मोहल्ला बन रहा था,  बहुत कम घर थे, किराया बहुत ही कम था, यह वह समय था कि अभी केबल का जमाना भी नहीं आया था छतों पर ही लुका-छिपी के दिन थे, पर कितने दिन लुकाछिपी खेलते हैं पहले पड़ोसियों को लड़की की चिंता सताई लेकिन प्रेम रंग में डूबी सोनी किसी की परवाह न करती,मम्मी के आगे कई झूठे-सच्चे किस्से गढ़ती लेकिन दो साल से ज्यादा सिलसिला न चला,चोरी पकड़ी गई तो वही लड़ाई झगड़ा मारकाट ।  रिश्तेदारों ने तो उसके दसवीं पास करने के साथ-साथ ही कहना शुरू कर दिया था,सोनी तो नाम के अनुरूप है कोई भी मांग कर ले जाएगा, माँ बाप को भी उसकी सुन्दरता पर गर्व था तो सोनी को क्यों न अपने सौन्दर्य पर गुमान होता,वो इतराती हुई कहती ‘मैं कोई चीज़ हूँ! जो किसी ने माँगी और दे दी!’ मुझे तो पापा ने घर के हर बोझ से बरी कर रखा है,मम्मी कुछ ही बोलती रहे पर पापा कहते हैं पहले टीचर बनो| रिश्तेदार फुसफुसाते नखरे तो देखो ‘मैडमजी’ के’ । टीचर बनने के पहले ही जिंदगी ने ‘कुछ और ही’ पाठ पढ़ा दिए, सोनी ने अखिलेश के सीने पर अपना सिर रखते हुए कहा कहा भूखी रह लूंगी, पर रहूंगी तुम्हारे साथ, कुछ भी करके थोड़ा बहुत कमा लूंगी.. तुम पढ़ाई करना, मुझे मालूम है तुम यूपीएसइ निकाल लोगे, मैं नहीं चाहती कि मुझे किसी ‘चीज़’ की तरह किसी को भी दे दिया जाए|’ परीक्षा-परिणाम से निराश जब सोनी के भीगे गाल अखिलेश के सीने से टकराए तो वो अपने घरवालों के ताने भूल गया ‘नहीं है तुम्हारे बस का कुछ भी अब घर लौट आओ…’ सोनी ने उसे कसकर पकड़ा हुआ था,वो खुद भी घर कहाँ जाना चाहता था और अपने जीवन के सबसे कमजोर क्षण में अखिलेश ने महत्वपूर्ण निर्णय ले लिया सोनी के साथ भावनाओं में बह गया । दोनों ने मंदिर में जाकर विवाह कर लिया । अखिलेश ने घरवालों को बताना भी ज़रूरी न समझा और सोनी के मम्मी पापा के पास पारिवारिक मोहर लगाने के अतिरिक्त कोई चारा न था । 
और फिर वह दिन जब  सोनी का भाई उसे जेल से छुड़ाकर लाया।अखिलेश का सिर फोड़ दिया था उसने| हमारे समाज में ये सोच पुख्ता है कि स्त्री हर अवस्था में पुरुष से कमजोर होती है,इसलिए उसे पुरुष का सामना नहीं करना चाहिए,लेकिन सोनी केवल परिवार की इज्जत और सामाजिक मर्यादा की खातिर नहीं  बल्कि प्रेमविवाह के अपने फ़ैसले को सही बनाए रखने की झूठी जिद के कारण अखिलेश के दुर्व्यवहार  को बर्दाश्त करती रही । एक बच्चे की मां बन चुकी थी, दूसरा भी अनचाहे ही आ रहा था। सोनी को गुमान था कि वह संघर्ष कर रही है…अपने अखिलेश के लिए, अपने घर के लिए| अखिलेश परीक्षा में पास भी हो गया लेकिन इंटरव्यू के लिए कोई बिचौलिया पाँच लाख रूपए मांग रहा था। भले ही सोनी के घरवालों ने दोनों को माफ कर दिया था और वह जानती थी पापा ने उसके दहेज़ के लिए पाँच लाख जमा किये थे जिनका क्या हुआ कभी नहीं पूछा अब क्या कहकर और वह किस मुँह से उनसे पाँच लाख मांगतीस्वाभिमान और अभिमान कूट-कूट कर भरा था । प्राइवेट स्कूल की नौकरी थी उसमें बचता ही कितना था, अखिलेश की माँ बहुत एहसान जताकर मंहगी किताब और कोचिंग के पैसे भेजती । और अब उनकी एक शर्त थी यहाँ आ जाओ, लड़की वाले दस लाख देने को तैयार है, पाँच लाख नौकरी के लिए दे देना बाकी पाँच लाख से नया घर बसाना, वैसे भी नौकरी तो दिल्ली में लगेगी नहीं और ‘वो’ दिल्ली छोड़कर बिहार आने वाली नहीं।दूसरी ओर पिता के रूप अखिलेश के पास अपने बच्चे को प्यार देने के लिए कभी समय ही नहीं था, वो तो पिता बनना भी नहीं चाहता था।पढ़ाई-पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई। रात में जब बच्चा रोता तो उसे बहुत गुस्सा आता वह चिड़चिड़ा हो उठता  और सोनी पर अपना गुस्सा उतारता, ‘कहता था न!!! बच्चा गिरा दो, मैडम जी को बच्चा पालने का शौक था, प्यार के निशानी है अरे, निशानी वहां होती है न भई जहां हम मर जाते हैं! जिंदा तो थे एक नौकरी लग जाती, दस  पैदा कर देता! चेहरे का गुलाबी रंग धीरे-धीरे ‘लाल’ और नीलरंग में बदलने लगा| प्रेम पर शादी का रंग तो वैसे भी एक बार चढ़ जाए तो प्रेम-रंग विलुप्त ही हो जाता है| शादी और प्रेम दोनों फीके पड़ते गये। रंगों की प्रेमी सोनी अपनी उपेक्षा सह भी जाती लेकिन  बच्चे की उपेक्षा माँ से बर्दाश्त ना हुई, और एक दिन उसने उसके सिर पर मार्बल का चकला फोड़ दिया। अखिलेश की चीख सुनकर मकान-मालिक ऊपर आए हालाँकि इसके पहले सोनी की चीखों को उन्होंने हमेशा नज़रंदाज़ किया, औरत पिटे तो ये पति-पत्नी का पारिवारिक मामला जो होता है। लेकिन आज उन्होंने 100 नंबर घुमा दिया| जान पहचान निकालकर ढेर रकम खर्च कर सोनी के भाई सोनी को उसे छुड़वा कर घर ले जाने लगा,तो उसने रोते हुए पूछा अखिलेश? भाई ने कहा अब कोई फायदा नहीं उसके परिवारवाले हैं, तेरे बेटे को किसी ने गोद में भी न उठाया… ‘पर एक बार बस…’ फिर दोनों भाई-बहन जेल से अस्पताल पहुंचे वहां उसके साथ उसके ससुर बैठे थे।वह चुपचाप उठकर बाहर निकल आए। ‘अच्छा हुआ जो मेरा सिर फोड़ा तुम्हारे प्यार की गर्मी सिर चढ़कर बैठी थी न मेरे , खून के साथ बह गई’सोनी का हाथ झटकते हुए अखिलेश ने अपने सम्बन्ध की समाप्ति का संकेत दिया  सोनी ने अखिलेश के पिता को जाते देखा था उनके चेहरे पर बेटे के कष्ट का दुःख नहीं अपितु जीत की चमक साफ़ झलक रही थी, पाँव छूकर प्रणाम करने पर वे पीछे जो हट गए थे, ‘मुझे माफ कर दो अक्की…’  ‘माफ़ मुझे कर दो सोनी अब और इस बंधन को बर्दाश्त नहीं कर सकता इतने में उसकी माँ कमरे में आई आज्ञा की मुद्रा में बोली ‘अस्पताल के बिल की जिम्मेवारी अब हमारी, तुम जा सकती हो इसकी चिंता करना छोड़ दो… । सोनी ने जब देखा कि अखिलेश ने माँ को इशारे से अपने पास बैठने के लिए बुला लिया तो उसने भी भाई से कहा ‘चलो घर चले’
घर! सोनी मैडम के होंठ बुद्दुदाये, घर, जिसे छोड़कर उसने अखिलेश के साथ घर बसाने को घर समझ लिया था पर उस किराए के घर को भी छोड़ आई थी, घर, जो फिर कभी ना बसा पाई| प्रेमविवाह फिर तलाकशुदा उस पर 2 बच्चे कहीं कोई विकल्प बचा ही कहाँ था? रंग तो तब भी पसंद थे,लेकिन अकेली परित्यक्ता औरत कालिमा पर कोई रंग भला कैसे चढ़ता? माँ बाप के ‘घर’ पर कब तक रहती, उसकी मेहनत ही थी कि आज कॉलेज में पढ़ा रही है| स्टाफ़रूम में दो-तीन लोग ही बचे थे छह बच चुके थे, पहुंचतें पहुँचते साढ़े सात–आठ बज जायेंगे और कैब का कहीं अता-पता नहीं था । तभी स्टाफ रूम में घुसते हुए स्वाति ने कहा ‘अरे मैडम आप अभी घर नहीं गई, ‘घर’ शब्द से सोनी फिर चिढ़ गई, अकड़ते हुए बोली ’नहीं तुम्हारा इंतजार कर रही थी, वहां तो तुम अपने स्टूडेंट की आड़ में पीठ दिखा गई’ स्वाति ने बेचारगी-सी हँसी के साथ कहा ‘अब वहाँ तमाशा बनती और बनाती क्या? आपकी कैब नहीं आई क्या बात बदलते उसने पूछा, कहाँ आई फ़ोन हाथ में लिए बैठें है कोई भी बुक नहीं हो पा रही’ ‘आप चाहो तो मेरे साथ चल सकते हो, आपको शिवाजी स्टेडियम छोड़ दूँगी, वहाँ से ऑटो आसानी से मिल जाएगा दस मिनट का भी रास्ता नहीं वहाँ से आपके घर का’ । ये जानते हुए भी कि सोनी जी की टीका टिप्पणी गाड़ी में भी चालू रहेगी स्वाति ने लिफ्ट का ऑफर दे डाला, पहले भी कई बार उन्हें लिफ्ट दे चुकी है और वो उनकी बातों को सुना-अनसुना कर देती हैं । थोड़ी देर पहले के अपने व्यवहार को सोनी मैडम हमेशा की तरह बिलकुल ही भूल गई अपना थैला उठाते हुए बोली ‘चलो इंतज़ार और अकेलेपन से तो बेहतर ही है तुम्हारा साथ’ स्वाति मुस्कुरा दी| सोनी जी उसे गाड़ी चलाते हुए देख रही थी और कुछ प्रसन्न मुद्रा में थी । स्वाति ने सवाल किया ‘कुछ कहना चाह रही हैं मैम’ नहीं कुछ ख़ास नहीं, सोनी जी ने बेल्ट के बंधन को थोड़ा ढीला करने की कोशिशि करते हुए कहा ‘सुरक्षा की दृष्टि से ही सही ये बंधन हमें बिलकुल पसंद नहीं, पर क्या करते तुम गाड़ी चलाओ और हम पीछे बैठे शोभा नहीं देता । पर हाँ, स्टीयरिंग व्हील पर तुम्हारा होल्ड कमाल का है, अच्छी गाड़ी चला लेती हो’ ओह… अच्छा’ स्वाति ने राहत की सांस ली पर फिर भी जाने क्यों,शायद उत्साह में लगभग छेड़ते हुए बोली ‘मुझे लगा आप फिर कोई टिप्पणी देना चाह रही हैं’ टिप्पणी या प्रश्न? फिर…तुम्हारे पास जवाब भी कहाँ हैं हमारे प्रश्नों का!! स्वाति जवाब फिर  गोल कर गई, एकदम बात काटती हुई बोली ‘अरे घर पर बात करनी थी…उसने स्पीकर पर फ़ोन लगाया बेटे ने फ़ोन उठाया मम्मी कब आओगी… मैं पापा से पिज़्ज़ा का आर्डर करवा दूँ, पापा कहाँ है? वो मीटिंग में है ओह … ठीक है मैं पिज़्ज़ा के लिए उनको मैसज कर देती हूँ ,मुझे आते-आते साढ़े आठ बज जायेंगे बेटा!ओके बाय । आप कुछ कह रही थी मैम?  तुम्हे गाड़ी चलते देख अच्छा लग रहा है, जानती हो स्वाति जब छोटी थी तो सपना था पति के बगल में सज-संवर कर बैंठेंगे और वो चाहे जहाँ ले जाए,   हम बेफिक्र आनंद से बैठे रहें लेकिन आज तुम्हें देखकर एहसास हो रहा है कि एक लड़की जब गाड़ी चलाती है तो उसे कितना मज़ा आता होगा ? अपनी मर्ज़ी से जहाँ चाहे, जिस भी गति में गाड़ी मोड़ ले, खिड़की खोले, ठंडी हवा अंदर आती रहे और बालों को संवारने का भी मौका न मिले बस गति के साथ उड़ते चले जाएँ  खुद गाड़ी चलाने का जो सुख है, वो बगल में सज कर बैठने में कहाँ?’ अचानक स्वाति एक भद्दे कमेंट के साथ ब्रेक लगाते हुए एक साईकल वाले पर चिल्लाई, तब उस अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने भी विशेषणोंके साथ जवाब दिया तेरे को गाड़ी किसने दे दी? जब चलानी नहीं आती तो घर में बैठ न! स्वाति ने पलट कर जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गई | कुछ देर बाद सोनी जी ने ही चुप्पी तोड़ी ‘गाड़ी हो या जिंदगी इन रास्तों पर हमें अकेले चलने का सुख जाने कब मिलेगा! देखो न अपनी गलती को किस धृष्टता से ये हमारे ऊपर लादकर चला गया, सारे ट्रैफिक नियमों को ताक पर रख कर लालबत्ती का इंतज़ार किये बिना सड़क पार कर गया| उस पर हमें ही… उनकी बात काटते हुए स्वाति बोली- मैम ये तो रोज़ का ही किस्सा है अभी कोई लड़का गाड़ी चला रहा होता तो चुपचाप आगे बढ़ जाता, सारे नियम, कायदे-कानून हमारे ही लिए तो हैं बस! डिफेन्स की मुद्रा में संघर्ष करी चली जा रहीं है हम,  अरे… सोनी जी हैरानी के साथ बोली भाई बोलती तो अच्छा हो तुम, पेपर लिखने के लिए कुछ इन उद्धरणों को भी रखा करों न! मतलब, मैं समझी नहीं सोनी जी, उन्होंने गंभारता से लेकिन अपने कड़वे अंदाज़ में बोलना शुरू किया ‘तुम जैसे कल के आये अध्यापक कोर्स की किताबें पढ़कर विमर्शकार बनने को लालायित हैं, जानती हो विमर्श अगर अनुभव की आंच पर न पका हो तो जंकफूड की तरह होता है- लाय! खाय! अघाय! और फिर वो जोर से हँसने लगी उनकी हँसी में छिपा व्यंग्य और व्यंग्य के भीतर का दर्द कब आँखों में उतर आया उन्हें भी न पता चला ‘शौक-शौक में लाया,बड़े मज़े से खाया और फिर अघाय के सो गए…पर सच्चाई जानती हो स्वाति इस सामाजिक ढाँचे से ज़रा कोई इधर-उधर खिसका कि ढाँचे के ओने-कोने चुभने लगते हैं, उस पर वह औरत हो जो ढाँचे की कटाई-छंटाई करने लगे तो सामाजिक बहिष्कार और परिवार घर से भी बेदखल करने में एक पल के लिए नहीं सोचता । ‘कितना अच्छे से समझाती हो मैम आप,आप लिखती क्यों नहीं? माहौल को हल्का बनाने की कोशिश में स्वाति ने कहा तब हँसते हुए बोली ‘मुझे सुनना तो कोई चाहता नहीँ, जानती नहीं मेरे आने पर लोग इधर-उधर हो जाते है,लिखूंगी तो उसे पढ़ेगा कौन?  ऐसा नहीं है मैम, स्वाति ने ब्रेक लगाते हुए कहा| शिवाजी स्टेडियम आ गया था । ‘बड़ी जल्दी आ गये कोई साथ हो तो रास्ते कैसे कट जाता है पता ही नहीं चलता!! बहुत-बहुत धन्यवाद स्वाति! ध्यान से गाड़ी चलाना, कल मिलते हैं, सोनी जी ने उतरते हुए विदा ली । अब स्वाति ने दुबारा घर फ़ोन लगाया अबके पति महेश ने ही फ़ोन उठाया ‘अरे,ये तुमने क्या इसे पिज़्ज़ा की रट लगवा दी? अभी सन्डे को तो ही खाया था, क्यों इसकी आदतें खराब कर रही हो?’ हाय हेल्लो कुछ भी नहीं सीधे सवालों की झड़ी, जवाब देने में तो स्वाति वैसे भी सहज नहीं रहती, उदासीनता से बोली ‘अभी आधा-पौना घंटा और लगेगा आते ही कैसे कर पाऊँगी ।’ अरे! पर रोज़-रोज़ ये जंक फ़ूड!! पैसों से ज्यादा सेहत का नुकसान नहीं दिखता तुम्हें|’ ‘और आपको ये नहीं समझ आता कि मैं सुबह आठ बजे से निकली ब्रेकफास्ट, लंच सब बनाकर आई थी, क्या तुम डिनर में दाल चावल भी नहीं बना सकते? स्वाति की थकान चिड़चिड़ेपन में बदल गई और एक साँस में बोलती चली गई ‘तुमने ये भी पूछा, पहली       बार मंच पर बोलना कैसा लगा? पसंद आया लोगों को? मगर नहीं… ‘कूल कूल स्वाति, ओके ओके, सॉरी यार,अपना मैसज बॉक्स तो देखो कॉलेज में तुम्हारा नेटवर्क मिलता है कभी? मगर तुम तो कुछ कहती ही नहीं, तुम कहती तो, अच्छा अब बताओ कितने चावल दाल लेने हैं? मैं धोकर गैस पर चढ़ा देता हूँ और हाँ! चाय मैंने भी नहीं पी अभी, जब आने को पांच मिनट रह जाएँ, तो एक घंटी बजा देना अकेले चाय पीने में मज़ा नहीं आता ।’ और चीकू ? ‘उसकी चिंता न करो मैं समझा दूंगा, तुम घर पहुँचों लव यू जान कहकर महेश ने फ़ोन काट दिया| जंक फ़ूड हलकी-सी मुस्कुराहट के साथ उसने बगल वाली खाली सीट को देखते हुए बोला और वो दिन याद आया जब किसी बात पर उन्होंने स्वाति से कहा था ‘सास अच्छी मिल गई है तुम्हें! तो स्वाति ने कहा नहीं मैम सास तो सास जैसी ही है, हाँ! पति ज़रूर अच्छा मिला है’ और उसने गियर बदल कर गाड़ी की गति तेज़ कर दी घर जाने की अब उसे जल्दी थी
डॉ रक्षा गीता 
सहायक आचार्य हिंदी विभाग 
कालिंदी महाविद्यालय
दिल्ली  विश्वविद्यालय 
9311192384
सहायक आचार्य हिंदी विभाग कालिंदी महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय संपर्क - rakshageeta14@gmail.com

1 टिप्पणी

  1. अभी पढ़ी आपकी कहानी। कथानक विमर्श का विषय है सोनी का प्रसंग कुछ लंबा खिंच गया सा लगा।
    रामचरितमानस में राम द्वारा सीता के त्याग का कोई वर्णन नहीं है। रामायण सीरियल के बाद और उससे पहले से भी यह प्रसंग सत्य की तरह रामायण के साथ जुड़ा हुआ है। पर बाद में यह प्रमाणित किया गया है कि यह प्रसंग सत्य नहीं है बल्कि बाद में जोड़ा गया है।
    मुगलों के काल में हमारी संस्कृति पर प्रहार करते हुए संस्कृत के विद्वानों को अपने विश्वास में लेकर और लालच देकर ग्रंथों में बहुत से परिवर्तन करवाए गए हैं।सीता का त्याग ही नहीं शंबूक वध भी उसी में से एक है।
    राजस्थान के बीकानेर जिले के वे अभी-अभी पदोन्नत होकर प्रिंसिपल हुए हैं। पहले वे चूरू में संस्कृत के प्रोफेसर थे। बहुत गहन अध्ययन है उनका। इस विषय पर उन्होंने बहुत अध्ययन किया है और प्रमाण सहित यह प्रस्तुत किया है कि इस प्रसंग में बिल्कुल सच्चाई नहीं है। इस विषय पर उनके कई सेमिनार हो चुके देश में ही नहीं विदेशों में भी।इस विषय पर किताबों में छपवा कर भी उन्होंने मुफ्त बाँटी है। लिंक भी हमारे पास थी। देखेंगे मिली तो।न मिली तो उनसे माँगकर भेजेंगे।
    हालांकि आपकी कहानी के अनुसार सीता और शकुंतला दोनों सिंगल मदर थीं पर दोनों ही ऋषि मुनियों के आश्रम में संरक्षित और सुरक्षित थीं।
    पर आज भी सिंगल मदर अपने दम पर अपने बच्चों को पालने की ताकत रखती है इसमें कोई दो मत नहीं। वह सोनी की तरह विचलित भी नहीं होतीं, किन्तु सबका अपना अपना स्वभाव होता है। सोनी जैसी महिलाओं की भी कमी नहीं।

    राम हमारे आराध्य हैं, उन्हें बहुत पढ़ा है। उन्हें मुश्किल समय में जीवन में अपने पास महसूस भी किया है इसलिए उनके बारे में न सुनने जैसा सुनकर रहा नहीं जाता। पर हर लेखक अपने अनुभव को व्यक्त करता है और सबके अनुभव अलग-अलग होते हैं।इसलिए हमें आपकी कहानी पर कोई आपत्ति नहीं है।
    कहानी का अंत बहुत पसंद आया पर ऐसा लगा कि सोनी के प्रसंग को थोड़ा कम कर दिया जाए तो कहानी और बेहतर हो सकती है।
    बधाइयां आपको।

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