हवा की तरह फैला हुआ प्रेम
धरती की तरह धारण करता आंचल में
धूप की तरह पसरा हुआ
बिछा हुआ दूब की तरह
जैसे कि, नित पलते देखा गया
उसे सपनों की उजली कोख में
रक्त की हर धड़कन में बजता हुआ
हर दिल में होता उदित सूर्य की तरह
पूरा जनतान्त्रिक — ; सर्व सुलभ
अंतिम अचूक उपाय जो
खींच लाता
बीच मझधार से किनारे
अस्मिता की डगमग कश्ती
आदिम एक पुल —
जिस पर गुजरते हम ताउम्र।
पर –;
अब यह जर्जर हो चला इस सदी में
क्यूं हिल रही मेहराबें इसकी
जो थामे है समय को
— ज्यूं थरथरा रहा
वहशी रात के सन्नाटे में एक पुल
उस पर कांपती एक लौ
जैसे धरधराकर गिर ही जाएगा
उल्कापिंड की तरह
अतीत के किसी दु:स्वप्न में
एक पिटा हुआ नुस्खा
जिसे घेर लेंगे हतप्रभ लोग
मृत देह समझकर
अजीब विरोधाभास मे घिरा हुआ हूं
कि , नहीं ला सकता बीनकर एक प्रेम
उसके क्षितिज से किंचित बहिष्कृत होकर
कि ,नहीं कर सकता
प्रेम से बाहर रहकर
किसी दूसरे प्रेम को लिपिबद्ध
— मनुष्य की किसी भाषा में।
बस , प्रेम के लिए होना होता साकार
खुद प्रेम की सीमा रेखा के भीतर
गोया, चिर नागरिक का दर्जा लिए
कुछ उसी तरह विलीन होता एक जीवन — राग : उद्दाम
ज्यों डूबते उतराते
अपनी खोई पहचान लिए
रक्त की भाषा में घुले हुए शब्द।