- निवेदिता श्रीवास्तव
एक
रंग तो प्रिय …..
नीला -काला -बैगनी,
रंग न ये तुम लगाना ,
ये तो सारे अंधियारा लाते !
लाल-गुलाबी-हरा औ पीला
ये ही सब मनभाते हैं
सबके शगुन बन
खुशियाँ फैला जाते हैं
लाल चुनरिया ,
गुलाबी गात
हरी है चूड़ी,
पीला रंग शगुन
बन लहरा जाता
रंग तो प्रिय वही लगाना
तुम देखो ,मैं समझूं
मैं निरखूं तुम परखो
रंग तो प्रिय
दो
जब मैं न हूँगी …
सुनो ना
आज इन हवाओं में
अजीब सी
सरगोशियाँ हैं
मेरी कमियाँ
बताते-बताते
फेहरिस्त
कुछ ज्यादा
बढ़ती गयी
पर ज़रा इनसे
पूछ कर देखो
जब मैं ना हूँगी
तब
मुझमें तो नहीं
क्यों कि मैं
हूँगी ही नहीं
पर क्या मेरी कमी
कभी समझ पायेंगें
तीन
अच्छा लगता है….
जब जाते-जाते रुक जाते हो
देखते हो गेट बंद कर
मेरा अन्दर जाना …….
मेरे कहीं जाने पर
ओझल हो जाने तक
मुझको देखते रह जाना …….
मेरी खामोशी पर
तलाशना औ बुला लाना
मेरी आवाज़ की खनक …….
मेरे चेहरे की शिकन
मिटाने अपने वजूद के
एहसासों की तपिश देना …….
उलझनों में घिर जाने पे
फैला देना नयी उम्मीदों का
नव सृजन का आसमान ……..
तुमसे ही तो पल्लवित
और प्रमुदित रहता
मेरे मन का शिशु-भाव…..
शायद नहीं निस्संदेह
तुम ही तो हो मेरी
हर राह की मंजिल….