“काय मार रए साब? हमसे कौन सो अपराध हो गओ? …काय मारो तुमने? ….अरे दिल्ली से कोनउ तरा साइकिल पे चले आ रहे,गरीब लाचार,बेबस मजदूर हां सताए से तुम्हें का मिल गओ? …तुमने साइकिल की हवा जुदी निकार दई .. ई महामारी ने रोजगार खत्म कर दये जीसे शहर छोड़कर अपने गांव जा रहे। आफ़तकाल में अपनी जन्मभूमि में जावो भी गुनाह हो गओ का? दो दिना के भूखे हैं, हम ओरें….राई भरे मोड़ा हाँ तक कछु नही खबा पा रहे। हमाए आदमी के हाथ सुजा दये तुमने …”
निर्दोष पीड़ित मजदूर की आक्रोशित धर्मपत्नी के शब्दों में अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार और नम हो आईं आँखों में सत्ता के दण्डधारी खाकी प्रतिनिधि के प्रति क्षोभ और परिस्थितिजन्य बेबसी स्पष्ट दिख रही थी।
हाथों में डंडा लिए दो मोटरसाइकिल सवार सिपाहियों में से एक ने नाहक ही साइकिल सवार के हाथ पर दो डंडे जोर से जड़ दिए थे।
एक सिपाही ने भगवती को भी रुकने का इशारा किया । भगवती ने रिक्शा सड़क के किनारे लगा लिया।
“यह देखो एक इशारे में इसने रिक्शा रोक लिया और तुम्हें पुकारे जा रहे …पुकारे जा रहे हैं और तुम हो कि सुन ही नहीं रहे अपनी साइकिल चलाए जा रहे हो.. चलाए जा रहे हो।” डंडा मारने वाले सिपाही ने साइकिल सवार की साइकिल के हैंडिल पर डंडा रखते हुए कहा।
“सांसी के रहे साब कछु सुनानो नइय्या। नई तो मैं काय न रोकतो।” साइकिल सवार हाथ जोडते बोला।
“न तो तुम मास्क पहने हो.. रोक रहे तो रुक नहीं रहे।” सिपाही अपनी हो चुकी गलती को जस्टिफाई करते हुए बोला।
दूसरे सिपाही पर साइकिल सवार की पत्नी की वेदना का असर पड़ा। वह विनम्रता से बोला, “मास्क नहीं है तो अंगौछा लपेटे रहो। बच्चे का ख्याल रखो।”
मोटरसाइकिल से एक बिस्किट का पैकिट बच्चे को देते आगे बोला,”दतिया में पीताम्बरा पीठ के बाहर रसोई चल रही है,वहाँ चले जाना भोजन मिल जाएगा। अच्छा रुको।” वह मोटरसाइकिल की डिग्गी से अपने व साथी सिपाही को मिले दोपहर के भोजन के दोनों पैकिट साइकिल सवार की धर्मपत्नी को थमा देता है,”लो यह तत्काल खा लो भूखे न रहो और सुनो जब भी पुलिस रुकने को कहे तुरन्त रुक जाओ। हम लोग आप लोगों की सुरक्षा और भले के लिए रात दिन खप रहे हैं। कोरोना बहुत बड़ी महामारी है। जाओ पहले खा लो फिर निकलना।….’और भाई तुम लोग कहां से आ रहे और कहां जाना है?” दूसरा सिपाही भगवती की ओर मुखातिब होते बोला।
“साहब यह रमेश है। झांसी के आगे अपने गांव सकरार जाएगा और हम दोनों बौरा सतारी महोबा जिले में कुलपहाड़ के एंगर हमाओ गांव है।”
“अच्छा ठीक है तुम लोग भी पीताम्बरा पीठ के पास रसोई से भोजन ले लेना। ठीक है जाओ।” दूसरा सिपाही
मोटरसाइकिल स्टार्ट करते बोला। पहले सिपाही की दृष्टि साइकिल सवार की लाल हो चुकी कलाई पर टिकी थीं। उसके चेहरे पर अपने द्वारा की गई गलती का पछतावा स्पष्ट दिख रहा था।
एक गलत निर्णय या गलती से पूरे महकमे की छवि खराब होती है। कहां डबरा के नगर कोतवाल और वहां के सिपाहीजन और एक ये सिपाही बेचारे गरीब को बेवजह मार दिया। भगवती ने द्रवित होते साइकिल सवार से पूछ लिया, “का नाव है भैया और तुम्हें किते जाने?”
“राम किशन हमाओ नाम है ओरछा से टीकमगढ़ के रास्ते पड़त हमाओ गांव दिगौड़ा। दो मोड़ी हैं गाँव में बाई के संगे रहती हैं। दिल्ली में राजगिरि करत ते राजगीर वोई चुनाई को काम मिस्त्री आये हम।” राम किशन साइकिल के पहिये को दबाते हुए चिंतित स्वर में आगे बोला,” हवा निकार दई सबरी। अब का हुए भगवान हवा….’
“तुम काय चिन्ता करबे में लगे लो जो पम्प और भर लो मनचाही हवा ।” भगवती ने रिक्शे की सीट से पम्प निकाल कर रामकिशन को दे दिया।
“आ जाओ इते छांव में काय घाम में खड़े बुकला रहे।” बलदेव ने सड़क किनारे घने विशाल बरगद के पेड़ की जड़ पर बैठे-बैठे भगवती को पुकार लगाई।
” हओ आ रहे भैया।”
भगवती धीरे से रामकिशन से कहता है “हवा बाद में भर लियो रामकिशन! जा पैला खा ले। देख! तोरी घरैतिन तोइ कूदई हेरवे लगी”
” हओ भैया। आओ तुमउ सब जाने थोड़ी थोड़ी खा लो।”
“नही तुम लोग पाओ। भूखे हो… पीताम्बरा पीठ में मैया के दर्शन करें उतई खैहै उनकी रसोई में।”
“मन्दिर सब बन्द है ई महामारी से।” रमेश बोला।
” अरे हाँ, चलो दूर से हाथ जोड़ लेहे।” भगवती ने पानी की बोतल बलदेव के हाथ में देते हुए कहा।
सोनू रामकिशन की पत्नी की गोद में साधिकार बैठ बिस्कुट खाने में लगा था। बलदेव उसे देख सोनू की मां का चेहरा बार बार याद करने की चेष्टा करने लगा। क्या सोनू अपनी माँ को भूल गया? क्या सोनू रामकिशन की पत्नी को अपनी माँ समझ रहा है?

रामकिशन दो दो पूड़ी उसपर आलू की सब्जी रख उन तीनों को दे गया। गरीब आदमी चाहे जितना भी भूखा हो वह कभी अकेले नही खाता वह सदैव दूसरे भूखे को खिला कर ही खाता है ।

रामकिशन अपनी दो पूड़ी हाथ में लिए उन लोगों के पास आ गया।
भगवती रिक्शे की सीट के नीचे पहले से रखी पूड़ियाँ उठा लाया, “लो दुपारी हो रही खा के पानी पी लो सब जने फिर दतिया में रात की ब्यारी हो जेहे।”
“हाँ,सही है रामकिशन लो ये पूड़ी दे आओ बच्चन हा।” बलदेव ने अपनी व रमेश की पूड़ी रामकिशन को वापस करते हुए कहा।
“हओ भैया।” रामकिशन पूड़ियाँ अपनी धर्मपत्नी को देकर आ गया।
“और सुनाओ रामकिशन कबे चले हते दिल्ली से।” बलदेव पूड़ी का कौर मुँह में रखते हुए बोला।
“तीन रोज हो गए आज चार दिना हो जैहैं । सब काम धंधा बंद हो गए और तालाबंदी की घोषणा भई तो ठेकेदार ने कही ‘कमरा खाली करो। सब गांव जा रहे हैं। तुमउ जाओ।’ तो हम औरे भी निकर आए।”
“रास्ते में खाएं पियें हाँ तुम्हे नहीं मिलो हम ओरन हां तो मिलत रहो। लोग-बाग बांट तो रहे थे?” भगवती ने पूछा।
“अब तुमसे का बताएं भैया! एक जने हते तो उनने डरा दओ बोले कि रास्ते में कछु बट रहो हो तो न लइयो पता नहीं का मिला के बांट रहे हो। ईसे नही लओ।”
” रामकिशन तुम बहुत भोले हो।” बलदेव पानी पीने के बाद बोला।
कुछ देर आराम करके एक दूसरे के हाल चाल लेते हुए वे दतिया के लिए चल दिए । इस बार बलदेव ने रिक्शा सम्भाल लिया और रामकिशन रिक्शे को धक्का लगाते हुए रिक्शे के पीछे चलने लगा। उसकी पत्नी सो रहे दोनों बच्चों को संभाले सामान सहित सीट पर बैठी थी। रमेश साइकिल चला रहा था और उसकी पोटली गोद में लिये भगवती साइकिल के कैरियर पर बैठा था।
दतिया यहां से दस किलोमीटर दूर रह गया था।

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