सतीश उपाध्याय का व्यंग्य – गमले में अल्फांसो

इधर डीडी नगर  की कॉलोनी में ये आम चर्चा उफान पर थी कि मंजुला जी के गमले का  आम पक गया है। बारी बारी से आम को देखने वालों का यह कहना था कि गमले में ही पके  हुए आम का पीलापन  कुछ ऐसे...

दिलीप कुमार का व्यंग्य – व्यंग्य लंका

“ना रूपया ना पैसा ना कौड़ी रे  ये मोटू और पतलू की जोड़ी रे  मोटू और पतलू रे“ ये गीत गाते हुए प्रकाशक के लाये हुये लड्डू खाते हुए मोटू ने गब्बर स्टाइल  में  कहा – “अरे पतलू भाई, कितने आदमी होंगे  नए व्यंग्य संग्रह में ? “ पतलू...

विद्याभूषण की कलम से – सात रंगों का जश्न

यूं तो यह लेख होली के संदर्भ में हैं, जो बीत चुकी है, लेकिन इसमें निहित व्यंग्य-रस सार्वकालिक रूप से सुग्राह्य है। आशा है, पुरवाई के पाठक इसे पढ़ते हुए आनंदित होंगे। प्रस्तुत है : दोस्तो, खोज और खाज दोनों एक ही मर्ज के काज...

अर्चना चतुर्वेदी का व्यंग्य – भविष्यवाणी के मारे

बहुत सालों तक  विकसित देश में रहने के बाद वे काफी डिसिप्लिन टाइप इंसान में बदल चुके थे जैसे कूड़ा कूड़ेदान में ही डालते,इधर उधर थूकने और अन्य हरकतों से परहेज करते, गाड़ी सही जगह पार्क करते, यातायात के नियमों को मानते और तो...

दिलीप कुमार का व्यंग्य – फिजेरिया

“सूट पहन के, लगा के चश्मा कहाँ चले ओ मतवाले, गिटपिट इंग्लिश बोल रहे हो हिंदी की गले में तख्ती डाले” मैंने यूँ ही पूछा? “चले हम फीजी, हिंदी के लिये जल मत ओ बुरी नजर वाले पूछा नहीं बे, तुझे ओ व्यंग्यकार तेरे दिल में क्या चलते भाले”।  उनकी बात सुनकर मैं...

डॉ योजना साह जैन का व्यंग्य-लेख – डॉक्टर साहब की डिग्री या हलवा : कहानी “होनोरिया कौसा” डॉक्टरेट की

आज की दुनिया में चार तरह के डॉक्टर हैं। चार साल मेडिकल की रगड़ाई करके बने डॉक्टर । चार, पाँच, छह या सात साल घिस घिस कर, पोथियाँ बाँच कर, आँखें फोड़ कर, यूनिवर्सिटी के चक्कर काट काट कर और पिछले कुछ सालों से...